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Friday, July 13, 2012

इन्द्र्धनुषी अकासमे सामाजि‍क वि‍मर्श:: समाक्षक शि‍व कुमार झा ‘टि‍ल्लू ’




“इंद्रधनुषी अकास” आधुनि‍क मैथि‍लीक चर्चित गद्यकार श्री जगदीश प्रसाद मण्डुलक पहि‍ल पद्य संग्रह अछि‍‍। जगदीशजी सन् 2008सँ पूर्व मैथि‍ली साहि‍त्यदक लेल अनचि‍न्हज नाओं छलाह, मुदा गत तीन-चारि‍ बरखक भीतर हि‍नक वि‍वि‍ध बि‍म्बनक उपन्याँस, कथा, नाटक, एकांकी, बाल गद्य साहि‍त्यस आदि‍सँ मैथि‍ली साहि‍त्याकेँ उतर आधुनि‍क युगमे प्रवेशक अवसरि‍ भेट गेलनि‍।

मूलत: कथाकार आ उपन्यारसकार जगदीश प्रसाद मण्ड।ल कोनो चन्दाी झा सन प्राचीनता ओ नवीनताक सन्धिी‍क कवि‍ नै आ ने हि‍नक रचनामे परम्पनरावादी प्रीति‍क कतहु दर्शन होइछ। भुवनेश्वर सिंह भुवन जकाँ ने जगदीश नवीन प्रगीत काव्यीक व्यातख्याोता छथि‍ आ ने आरसी प्रसाद सिंह जकाँ आशु कवि‍।

९५ कवि‍ताक संग्रह “इंद्रधनुषी अकास”मे जे ई वैशि‍ष्ट्यसता प्रमाणि‍त कएलनि‍ ओ अछि‍ सम्पूरर्ण समाजक लेल समन्वेयवादी दृष्टि्‍कोणक दार्शनि‍क अवलोकन आ अर्थनीति‍क सम्यसक वि‍श्लेषण। अनचोकेमे कवि‍ता सबहक रूपेँ हि‍नक वि‍राट सरल जीवन दर्शन प्रदर्शित होइत अछि‍।
“मणि‍” वि‍षधर साँपकेँ सेहो मनोरम बना दैत जकर लोभमे सपेरा सबहक अंत भऽ जाइछ। ओ मणि‍ तँ वैज्ञानि‍क दृष्टिै‍कोणसँ काल्पअनि‍क थि‍क, मुदा मणि‍ कवि‍तामे कवि‍ अपन मनक मनोभावकेँ मढ़ि‍-मढ़ि‍ मणि‍’क रूप रेखाक संदेश दैत छथि‍। भाववाचक संज्ञा थि‍क-मणि‍ मुदा जाति‍ आ व्यंक्तिि‍क रचनाक लेल भावक आवश्यककता प्रासांगि‍क होइछ। जखन अर्न्तिमनमे दि‍व्य् ज्योमति‍ जागत तँ तन अवश्या प्रज्जइवलि‍त हएत। लक्ष्मीर  तखने औतीह जखन कर्मपथ उज्व्ांगल हएत। कर्मपथकेँ प्रकाशि‍त करबाक लेल स्वेस्थ् मोनक आवश्याक्ताज  होइत छैक। पहि‍ने ई अवधारना छल जे स्वतस्थ् शरीरमे स्वऽस्थ‍ मनक नि‍वास होइत छैक, मुदा आधुनि‍क वैज्ञानि‍क दृष्टेकोणे ई मि‍थ्याह प्रमाणि‍त भ्‍ाऽ रहलैक। व्य स्ती जीवन शैलीमे मोन अस्थिे‍र भऽ गेल छैक। बि‍नु कर्मक अधि‍क प्राप्ति।‍क तृष्णावसँ मनमे वि‍चलन स्वा‍भावि‍क जइसँ मोन अस्विस्थ । जखन मोन अस्वास्थष तँ शरीरक अस्वऽस्थ‍ हएब कोनो अजगुत नै। ‘चि‍न्ह बि‍ना औषधि‍ भारी’ वैज्ञानि‍क दृष्टिज‍कोणसँ अक्षरश: सत्यष  मानल जाए। सोडि‍यम कार्बोनेट धोवि‍या सोडर थि‍क आ सोडि‍यम बाइकार्वोनेट पेटक अम्लीोयताकेँ दूर करैत अछि‍। मात्र ‘वाइ’ शब्द: हटलासँ जौं उलटा सेवन हएत तँ जीवन वाइ-वाइ भऽ सकैत अछि‍।

मुदा सामाजि‍क जीवनमे धोवि‍यो सोडर अनि‍वार्य कि‍एक तँ मात्र पेटक अम्लीियता दूर कएलासँ शरीरक मोइल नै धोअल जा सकैछ। तँए जीवनमे सबहक लेल समायुसार स्थामन देल जाए। ‘श्रेष्ठी जीवन मानव कहबै छै मानवता उद्देश्ये जकर’ ऐ पॉति‍सँ रचनात्मेक समन्ववयवादी न्यावय दर्शन प्रदर्शित होइत छैक। समाजक आगाँ पॉति‍क लोक जखन कात लागल वर्गकेँ मर्मािहत करैत अछि‍, तखन कातक लोक सेहो उग्रता प्रदर्शित करैत अछि‍। ऐ प्रकारक अदला-बदलाक भाव जगदीश जीक ऐ कवि‍तामे नै भेटल। ई तँ सकारात्म-क सोचक आशावादी दार्शनि‍क जकाँ अपन कवि‍ताक इति‍ श्री करैत छथि‍- 
‘मनुखक भेद वि‍भेद
मेटबैक छी धर्म ओकर’
संभवत: ब्रह्माक वरद पूत सभकेँ आदर्शवादी बनबाक संदेश देलनि‍ अछि‍। ओना अलंकार मि‍लएबाक क्रममे एकठाम चूकि‍ गेल छथि‍
जखने मन मणि बनत छि‍टकत ज्यो ति‍ धरतीपर
अपने बाट अपने देखब हँसैत चलब पृथ्वीकपर
ऐठाम पृथ्वीन परक स्थाबनपर ‘परतीपर’ जौं लि‍खल रहि‍तए तँ शब्दन सामंजस्य् भऽ सकैत छल। ओना कवि‍क दृष्टिप‍कोण भऽ सकैत छैक जे कि‍छु आर होन्हि।‍। 

गंभीर आशु काव्येक मान्य‍ता समाप्त  होइत मैथि‍ली साहि‍त्यरमे वि‍चार मूलक पद्य बि‍रले भेटैत अछि‍। जीवन आ आध्या त्मतक संबंध चलन्ति समाजक बीच देखैमे आबि‍ रहल छैक। सभ दि‍श भागमभाग सोचबाक लेल फुरसत नै। मैथि‍ली साहि‍त्य्मे छायावादक काल ि‍नर्धारण तँ नै कएल गेल अछि‍, मुदा अनचोकेमे कि‍छु साहि‍त्यधकार ऐ काव्यल वि‍धापर समए-समैपर रचना कऽ दैत छथि‍। ‘चल रे जीवन’ कवि‍ता आध्या‍त्मिर‍क दर्शनसँ कर्मशील जीवनक संधि‍ करबामे पूर्णत: सफल मानल जा सकैछ। महाकवि‍ आरसीक कहब छलन्हि्‍ जे सभ लोकमे आशुत्वि होइत छैक मुदा लेखनीसँ अभि‍व्यहक्त‍ करबाक लेल अर्न्त्मन आ आत्मामक मि‍लन जि‍नकामे हएत वएह ‘आशु कवि‍’ मानल जएताह। जगदीश तँ आशुकवि‍ नै छथि‍, मुदा ‘चल रे जीवन’ हि‍नक क्षणि‍क अर्न्त मन आ आत्मीीय मि‍लनक परि‍णामे आशु कवि‍ता अवश्यन भऽ गेल। जीवनमे गति‍ सर्वाधि‍क उपयोगी आ सम्प्रेभु-सर्वशक्तिक‍ मान तत्व‍ थि‍क। जइ वसुन्धलराक माथपर हमर अस्ति्‍त्वक अछि‍ ओ कखनो ने रुकैत छथि‍। ग्रह-नक्षण सभ सदि‍खन गति‍मान, अंति‍म काल धरि‍ जीवन गति‍मान, मुइलापर प्राण गति‍मान होइत अदृश्यल चक्रमे प्रवेश कऽ जाइत अछि‍। 
“यात्रीकेँ आराम कहाँ छै
यात्रा पथ वि‍श्राम कहाँ छै।”
जे अभागल छथि‍ ओ सुतले रहथि‍ मुदा हुनको शरीरमे क्षि‍ति‍, जल, पावक, समीर, रुधि‍रक संग सभ अंग मौलि‍क रुपसँ गति‍मान रहैत अछि‍। ‘सूर्य-तरेगन सेहो चलै छै’ वैज्ञानि‍क मान्यितासँ सर्वथा अनुचि‍त मानल जाइत अछि‍। सूर्य नै तँ उगैत अछि‍ आ ने डुमैत अछि‍। तँए कवि‍क एक पाॅति‍केँ मात्र उत्साकह वर्धनक लेल कवि‍त्वँक कि‍छु मंद वात मानल जाए। वास्तावि‍क रूपसँ ई असत्य  मात्र कवि‍तेमे क्षम्यक जौं कथा रहि‍तए तँ अप्रासंगि‍क मानल जा सकैत छल। 
जेना जगदीश कथामे शब्दक समंजन कऽ लैत छथि‍ ओना कवि‍तामे कतहु-कतहु ओझरा जाइत छथि‍न्हछ।
“समए संग चल, ऋूतु संग चल
गति‍ संग चल मति‍ संग चल।”
सभठाम ‘संग’ उदेश्यल आ कथोपकथनक लेल सर्वथा उचि‍त, मुदा स्वारात्मगक पद्यमे कथोपकथनक संग-संग अलंकार आ छंदक सम्मि ‍लन सेहो आवश्यपक होइत अछि‍। ई कवि‍ता कोनो अतुकांत कवि‍ता नै तँए छंदमे आबद्घ करबाक लेल कवि‍केँ वि‍शेष धि‍यान देबाक छलनि‍। जगदीशक शब्द -कोषमे मैथि‍लीक खॉटी शब्दन सभ भरल छन्हिि‍ तँए हि‍नकासँ आर आशा कएल जा सकैत अछि‍। 
बाल मनोवि‍ज्ञानक दृष्टिश‍सँ ई पद्य उपयुक्तज मानल जाए। जे बाल आ युवावस्था क संधि‍ भऽ सकैत अछि‍ कि‍एक तँ ऐ अवधि‍मे जीवनक गति‍-चक्रकेँ बूझब वि‍शेष अनि‍वार्य होइछ। ऐसँ भाषा-साहि‍त्‍य वि‍कास सेहो होइत छैक। आरसी प्रसाद सि‍ंह, सोहन लाल द्वि‍वेदी, सुमि‍त्रा नंदन पंत आ हरि‍वंश राय बच्चअन सन हि‍न्दी‍  साहि‍त्य क ‘आशुकवि‍’ लोकनि‍क ऐ प्रकारक पद्य प्रारंभि‍क आ माध्यामि‍क शि‍क्षामे वि‍शेष लोकप्रि‍यता प्राप्तक कएने अछि‍। 
“टुटए ने कहि‍यो सुर-तार
हुअए ने कहि‍यो जि‍नगी बेहाल।”
जखने जीवनमे गति‍ मति‍ आ नि‍यति‍क त्रि‍वेणी अलग-अलग भऽ जाइत अछि‍ तँ जीवन उदासीन आ परि‍णाम कष्टयदायी, तँए कवि‍क ऐ उक्तिि‍केँ वि‍चारक संग-संग शि‍क्षा मूलक सेहो मानल जाए। गति‍ बि‍नु पहि‍ने जि‍नगी अक्रि‍य फेर अकर्मण्यतता आ परि‍णाम जि‍नगी बेहाल, अंकगणि‍तीय आधारपर दृष्टिा‍कोणकेँ प्रमाणि‍त कएल गेल जे सर्वथा उपयुक्त  लगैत अछि‍।

जीवन जीवाक कलासँ संबंध काव्यछमे प्राय: कवि‍ लोकनि‍ स्व यंकेँ नायक बना कऽ कवि‍ता लि‍खैत छथि‍। हि‍न्दी   साहि‍त्यकमे जानकी वल्ल भ शास्त्रीक आध्यातत्म  दर्शनक सम्मिद‍लन- “मेरे पथ में न वि‍राम रहा” सँ कएलनि‍ तँ मैथि‍ली साहि‍त्यकमे कालीकान्त  झा बूच- “मृगी जकाँ हम कॉपि‍ रहल छी, झॉखुरसँ तन झॉपि‍ रहल छी” रूपेँ समाजक रुग्नि दशासँ बचि‍ कऽ जीबए चाहैत छथि‍। मुदा जगदीश ऐ समाजक मैलकेँ साफ करबाक लेल उद्वि‍ग्नज छथि‍। ‘धोब घाट’ कवि‍ता कोनो मैल वस्त्रदक मूल नै, वरन समाजक कृत-कृत्यापर लागल कुचक्रकेँ साफ कऽ कऽ ऐ सँ वचबाक प्रेरणा थि‍क-
“धोइब घाट ओ घाट छी,
पाप धुआ पुन बनैत रहैत
अज्ञान-ज्ञान राति‍ दि‍न
रगड़ि‍ सान चढ़बैत रहैत”
मैथि‍ली साहि‍त्यचमे रीति‍क त्रि‍भाषीय नाटक, प्रीति‍क महाकाव्यी अर्थहीन वैरागी काव्यल शास्त्र् कखनो वि‍नोदी, कखनो चलन्तत कवि‍ता आ कखनो नाम-गाम आ ठामक पद्यसँ भरल पद्य संग्रहक प्रधानता अछि‍ कि‍एक तँ भलमानुस जे लि‍खत वएह कोसक पाथर मानल जाएत। तँए अभावक ऐ साहि‍त्येमे नीति‍शास्त्रनसँ सन्नि‍हि‍त पद्याभावकेँ ‘धोब घाट’ सन कवि‍ता पूरा करैत अछि‍- 
उला-पका राति‍केँ
साले साल सूर्ज सुड़कैए
सुख आरामक पहर छीि‍न 
हँसि‍-हँसि‍ राति‍ दि‍न झाड़ैए।
कोनो आवश्यपक नै जे जाज्वँल्य‍मान नक्षत्रक कर्मसँ नि‍कसैत प्रभावक सभटा परि‍णाम उत्तमे हएत। सूर्य ज्यो ति‍क प्रतीक छथि‍, मुदा कखनो तँ हि‍नको कि‍रण जीव-अजीवकेँ उला-पका दैत अछि‍ तत्प श्चात् अन्हाेर। हि‍नक प्रति‍भा आ कर्मपर कवि‍केँ कोनो संदेह नै तँए भलमानुसोक अधलाह कर्मक वि‍रोध करबाक चाही। ऐसँ समाजमे दृष्टि ‍कोणक वि‍जय प्रासंगि‍क हएत। वृक्ष मात्र गगनगामी..... एकर एक दृष्टि ‍ एकटा उद्देश्यय होइछ परंच शोर वि‍चलनसँ भरल लक्षण रखैत अछि‍। एक ध्व नि‍ अकास आ दोसर पताल प्रकृति‍क रंग बॉसक गि‍रह जकाँ प्रत्येकक दृश्ययपर पटाक्षेप। नाटकक अंकमे एकसँ बेसी दृश्यध होएबाक चाही, मुदा प्रकृति‍ अर्थात् वि‍धाता अपन प्रत्येसक अंककेँ अलग-अलग दृष्यृसँ आबद्घ कऽ वि‍वि‍ध नाटकीय परि‍दृश्यंक मंचन करैत अछि‍। ऐ पद्यक प्रत्येवक छंदमे वि‍शेष अर्थ झॉपल अछि‍ जे पाठकक मस्तिै‍ष्कपर ज्या्मि‍ति‍क दबाब अवश्यि बनाएत-
जहि‍ना डारि‍ करोटन लीची
खोंधि‍‍ते खोंइचा पकड़ैए
नि‍च्चाँे-ऊपर ससरि‍-ससरि‍
अपन-अपन बाट पबैए
भारतीय संस्कृपति‍क संग ई दुर्भाग्य  रहल जे परम्प‍रावादी दृष्टि ‍कोणक कि‍छु अवांक्षि‍त तत्वईसँ लोक परेशान तँ छथि‍ मुदा कि‍यो ओकरा समाप्त  होमए देबए नै चाहैत छथि‍। ‘काटर प्रथा’ ऐ रूपेमे सभसँ ि‍नर्घिष्ठम मानल जाए। ‘सासु-पुतोहु वार्ता’मे कवि‍ ओना स्पयष्टक रूपेँ काटरक परि‍णाम स्व रूपक उद्वोधन नै कएने छथि‍, मुदा परक बेटीकेँ बेटीक रूपमे स्वीठकार करब सुसंस्कृकत समाजक नारी लेल असहज होइछ। ई वि‍डंवना जे अपन संतानक संग जे सि‍नेह रहैछ ओ  दोसराक संतान जे आब आत्मनसात भऽ गेल छथि‍ ति‍नका लेल असंभव। ओना एकरा स्वांर्थ सेहो नै मानल जा सकैछ कि‍एक तँ पुतोहुक आवश्यरकता व्यााहुत बेटीसँ बेसी होइत छैक। ऐमे प्रति‍द्वन्द्व ताक भाव रहैत अछि‍‍। मनुक्खऐकेँ अपन अधि‍कार तँ मोन रहैत अछि‍ मुदा कर्त्तव्य वोधक ज्ञान जि‍नकामे नै रहत हुनका पारि‍वारि‍क शांति‍क स्प प्न। देखनाइ सर्वता अनुचि‍त आ भ्रामक।
प्रति‍द्वन्द्वि ‍ता ऐ खेलमे सासु-पुतोहु दुनू दोषी मुदा सासुक दोख बेसी कि‍एक तँ आनक बेटी अपन घरमे अनलाक बाद हास-परि‍हास सासुएक मुखसँ पहि‍ने नि‍कलबाक संभावना रहैत छैक-
ओसार पुवरि‍या बैस सासु
पड़ल पुतोहुकेँ देल धाही
अकड़ि‍ कऽ मकड़ि‍ बाजलि‍
देहक पानि‍ लऽ गेल हाही।
ककरोपर जौं झूटका फेंकब तँ प्रत्युलत्तरमे पाथर अवश्यो भेटत, कि‍एक तँ कि‍यो-ककरोसँ कम नै। अधलाह देखौंस संस्का र मनुक्ख मे पहि‍ने अबैछ तँ नवकी कनि‍याँ कोना चुप रहतीह-
पानि‍ये तँ पसरि‍ देहमे
पीब गेल सभटा पाणि‍ 
की करब, फुरि‍ते कहाँ अछि‍
कहाँ पड़ल छी जानि‍....।
ऐ प्रकारक आरोप-प्रत्याअरोप ग्रामीण समाजमे बरोबरि‍ देखए मे अबैत अछि‍। परि‍णाम परि‍हासक संग-संग अपन दैनन्दित‍नीमे लागलि‍ पुतोहु सासुरमे बसलि‍ ननदि‍केँ बीचमे सेहो लऽ अबैत छथि‍।
कवि‍क कहबाक उद्देश्यप छन्हिम‍ जे स्विस्थद जड़ि‍सँ स्व्स्था वृक्षक वि‍कास हएब प्रासंगि‍क तँए सासुकेँ अपन मर्यादाक स्मवरण राखि‍ पुतोहुक संग ओहने बेबहार करबाक चाहि‍यनि‍ जेना बेटीक संग करैत छथि‍। पुतोहुकेँ सेहो सासुमे अपन माइक छबि‍ देखबाक आवश्यछकता छैक।

प्रयोगात्मगक रूपेँ आब ऐ प्रकारक अनटेटल क्रि‍या-कलापक संभावना क्षीण भऽ रहलैक कि‍एक तँ पलायनवादी समाजमे सासु-पुतोहु एक संग रहतीह, बि‍रले अवसरि‍ भेटैछ। जगदीशजी गाममे रहि‍ कऽ साहि‍त्यक साधना कऽ रहल छथि‍ तँए ऐ प्रकारक घटना गाम-घरमे घटि‍त होइत देखानाइ कवि‍क लेल कोनो अजगुत नै। कवि‍ताक बि‍म्बो आ शि‍ल्पेसँ बेसी महत्वापूर्ण अछि‍ कवि‍क उद्देश्य्। एे दृष्टि ‍सँ जौं देखल जाए तँ कवि‍ता नीक छैक। भाषा वि‍ज्ञानक रूपमे अद्भुत कि‍एक तँ अपन गद्य जकाँ एेठाम जगदीश धाही, अकड़ि‍, मकड़ि‍, हाही, लसि‍या, नि‍चेन सन लुप्त‍ होइत शब्द  सभसँ पद्यकेँ वांछि‍त रूपेँ बोरि‍ कवि‍ता श्रवणीय बना देलनि‍‍।

“बौड़ाएल बटोही” शीर्षक कवि‍ता ऐ संग्रहक सभसँ नीक बि‍म्बेकेँ केन्द्रि ‍त कऽ कऽ लि‍खल गेल अछि‍। जीवन दर्शन आ आध्या‍त्म क तात्वि‍क वि‍वेचन अत्यिन्ते वि‍स्मदयकारी छायावादसँ भरल मानल जा सकैछ। ‘परदा’मे ओझराएल जि‍नगी जकाँ वर्त्तमान मनुक्ख्क जीवन भऽ गेल अदि‍। प्रयोगात्मझक रूपेँ आब कोवरक कनि‍याँक ओ रूप कतए जकर कल्प‘ना कवि‍ कएने छथि‍, मुदा गामक समाजमे एखनो कोवरमे नुकाएल कनि‍याँ भेटैत अछि‍। कोवरक कनि‍याँ तँ मर्यादाक अनुपालनक लेल नुकाएल छथि‍ मुदा कर्म पथपर वि‍चरण करैबला मनुक्खन कटि‍ कऽ कि‍एक रहि‍ रहल अछि‍? जे कि‍छु नै जानि‍ रहल अर्थात् अशि‍क्षि‍त मूक अनभुआरसँ सामर्थ्यनशील मनुक्ख  कि‍एक तकरार कऽ रहल छथि‍? अपन-अपन कर्मक संग-संग माए-बापक कर्म ओ धर्म संतानक सफलताक बाट उज्ज्व ल करैत अछि‍। ऐठाम धर्मक भाव संप्रदाय नै अपि‍तु मानवीय मूल्यैक सम्यठक अनुपालन मानल जाए। वि‍लगि‍त पथपर जौं चरण राखल जाए तँ बुइध बि‍‍लेनाइ स्वाबभावि‍क आ जखन बुइध बि‍ला जाएत तँ बाट कलुष अवश्यज भऽ जाएत-
बाटे बि‍ला वुइध
बाटे बि‍सरि‍ गेल
जेम्हबर जे चलल
तेम्हबरे पहुँचि‍ गेल...।
कर्मक बीआ जाैं सत्वँ तम ओ रज रस रससँ बोरल नै जाएत तँ ‘मनोकामना’ भ्रम बनि‍ अपन सि‍द्धि‍क आशमे लुप्ता अवश्य  भऽ जाएत। 
कोनाे रचनाकार जौं स्वमयं नायक बनि‍ कवि‍ता लि‍खैत छथि‍ तँ कोनो अचरज नै, मुदा बेसीठाम कवि‍ स्वायंकेँ रीति‍ ओ प्रीति‍क नायक बना कऽ कवि‍ता लि‍खलाहेँ ई बरोबरि‍ मैथि‍ली साहि‍त्यिमे देखएमे अबैत अछि‍। अपन आलोचना करब सबहक लेल संभव नै, ओना कतौ-कतौ हास्य  रसक कवि‍तामे कवि‍ लोकनि‍ अपन मजाक अवश्यत उड़बैत छथि‍ मुदा एना करब कवि‍ताकेँ लोकप्रि‍य बनाएब मात्र मानल जाए। ‘अपनेपर हँसै छी’ शीर्षक कवि‍ता मूलत: वर्त्तमान शि‍क्षा प्रणालीपर कविक‍ आलोचनात्मीक काव्य‍ शैलीमे प्रहार थि‍क। स्व्यंकेँ नायक बना कऽ चोरि‍क डि‍ग्रीक आधारपर ‘शि‍क्षा मि‍त्र’क नौकरी प्राप्त  करबामे हेर-फेर देखाओल गेल अछि‍। गाममे रहि‍ कऽ बि‍हारक शैक्षणि‍क प्रणालीपर कटु टि‍प्पधणी न्यारयोचि‍त। शासन तंत्र कतबो मजगूत मानल जाए मुदा जखन बेबस्थेर भ्रष्टल, तखन इमानदारीक दाबा केनाइ भ्रामक सि‍द्ध होइत छैक। साम्यअवादी वि‍चारधाराक अक्षरश: सम्पोोषक कवि‍ कोनो राजनैति‍क दल वि‍शेषपर टि‍प्पधणी नै केने छथि‍। अर्थनीति‍ जौं भ्रामक हुअए तँ ऐ लेल सम्पूदर्ण समाजकेँ दोख देल जाए। लोक जखन स्वेयं भ्रष्टअ भऽ गेल छथि‍ तँ प्रजातंत्र वा शासन तंत्रपर दोख देब अनुचि‍त-
लाखे रूपैयामे
दशो कट्ठा जमीन गमेलौं
गुरु दक्षि‍ना देने बि‍ना
गुरु भाइक भार उठेलौं....।
ओना भारतीय परि‍दृश्य मे बि‍हारक राज्ये बेबस्था् भलहि‍ं स्तवरीय मानल जा रहल मुदा शैक्षणि‍क बहालीमे योग्यषतमक उत्तरजीवि‍कामे धन बल आ कुचक्रबल बेसी भारी पड़लैक, ज्ञानक मोजर एखनों नै भेटि‍ रहल। पाँच हजारक नौकरीक लेल मूल्‍यवान वसुन्धीराकेँ बेचि‍ लोक लौटरी लगा रहल छथि‍। एकर दू गोट कुपरि‍णाम- पहि‍ल कृषि‍ कार्य जे हमरा समाजक रीढ थि‍क तकर महत्वु समाप्त‍ भऽ रहलैक आ दोसर प्रति‍भाक पलायन अवश्यपभावी कि‍एक तँ साधनहीन प्रति‍भा सम्परन्न व्यरक्ति ‍ ऐ भ्रष्टत मंचपर कोना आसीन होथि‍-
बि‍नु धनक धनि‍क जहि‍ना
ताम-झाम देखबैए
देखि‍-देखि‍ आँखि‍ करूआए 
लाजे आँखि‍ मुनै छी
अपने पर हँसै छी.....।

वि‍चारमूलक पद्य देशकालक दशाक एक रूपेँ सत्यआश: चि‍त्रण करैत अछि‍। चारूकातक परि‍दृश्यर हेहर भऽ गेलैक, ऐ दशामे सोझ बाट अकल्यारणकारी लगनाइ कोनो अनुचि‍त नै। चोटगर तीक्ष्णी वान चला कऽ भ्रष्टँ लोक अपनाकेँ सत्यच साबि‍त करबामे कोनो अर्थे नै हुसैत अछि‍ कि‍एक तँ धनक संग गालक जमाना एक तँ चोरि‍ आ दोसर सीना जोरि‍। ऐ कटु सत्यएकेँ साहि‍त्य मे कोना स्वी कार कएल जाए ई तँ भवि‍ष्य क गप्पन मुदा यात्री आ आरसी जकाँ अपन लेखनीक संग जीवनमे सम्य क साम्य‍वादी जगदीशक ई कवि‍ता समाजक लेल दि‍शा ि‍नर्देश कऽ रहलैक‍। ओना ई अलग बात जे वर्त्तमान परि‍दृश्य  फ्रांसक राज्याक्रांति‍ जकाँ नै जखन रूसो आ वाल्टेेयरक आखर-आखरसँ समाजमे क्रांति‍ आबि‍ गेल छल।
आशावादी दृष्टि्‍सँ जौं सोचल जाए तँ साहि‍त्यव समाजक दर्पण अवश्यद प्रतीत हएत, मुदा प्रत्येतक पाठक एकर सम्येक् तत्वरकेँ जौं अपन जीवनमे उतारि‍ लेथि‍ तखने ई संभव मानल जा सकैछ।

क्रमश:............. 

समाजक माने सबहक दृष्टि ‍कोण आ आचार-वि‍चारक सभ गोट रूप व्याकपक अर्थमे मंथन कएल जाए। जगदीशजी ‘धोब घाट’ कवि‍ताक बाद ‘धोबि‍ घाट’ कवि‍ता सेहो लि‍खने छथि‍। ‘दर्शन’ कोनो पोथी पढ़ि‍ नै उत्पन्न कएल जा सकैछ, ई तँ जीवनकेँ देखबाक अपन दृष्ट कोण होइत अछि‍। उदयनाचार्य कोनो काशी आ प्रयागमे रहि‍ ‘न्या‍य कुसुमांजलि‍’ सन पोथी नै लि‍खने रहथि‍। राजपूत कालक ‘करि‍यन’ हुनक साहि‍त्यप सृज्न ताक गहवर छलनि‍। तँए जगदीशसँ टेम्सर नदीक सभ्युताक आधुनि‍क बि‍म्बहक आश केनाइ सर्वथा अनुचि‍त हएत कि‍एक तँ मि‍थि‍लाक खॉटी गाम ‘बेरमा’ हि‍नक साहि‍त्यए साधनाक केन्द्र  बि‍न्दु  छन्हिा‍। दर्शनक तीन वयस होइत अछि‍- नीति‍, श्रृंगार ओ वैराग्यक। सामाजि‍क जीवनमे रहनि‍हार मनुक्खिक लेल तीनूक सम्यनक काल ओ भाव होइत छैक। जीवन क्रममे संतुलन बनएबाक लेल तीनू वयससँ अलग-अलग सत्वक रज ओ तमो गुण टपकैछ। ‘सात्विव‍क भाव’ कवि‍ता सत्वी गुणकेँ आधार बना कऽ लि‍खल गेल अछि‍। सात्वि‍‍क भाव वि‍रासतपर आधारि‍त होइत छैक। जाहि‍ ठामक भूमि‍ सात्‍वि‍क, हवा पानि‍ सात्विर‍क माने नैसगि‍क संस्का‍र सात्व कतासँ भरल होइछ ओइठाम एकर प्रभाव अवश्यंैभावी होइत छैक। लक्ष्य्, संकल्पठ आ दृष्ताव सेहो मनुक्खेकेँ सम्ययक शाश्वोत कर्म दि‍श लऽ जाइछ, मुदा ऐ लेल संस्काार अनुवंशि‍की आदि‍पर व्यसक्ति ‍त्वाक वि‍चार ि‍नर्भर होइछ। सुभाव-कुभाव आदि‍ संगहि‍ चलैत अछि‍ मुदा ऐ लेल दृष्टि्‍कोणकेँ जाहि‍ रूपसँ देखल जाए वएह रूप दृष्टि ‍गोचर हएत। कवि‍ताक भाव दर्शनपर आधारि‍त सरल शब्दिमे मुदा वि‍चार बोधक लेल गूढ़ अछि‍ तँए एकरा बेशी लोकप्रि‍य नै मानल जाए परंच साहि‍त्यि ‍क वि‍कासक लेल आ जीवन-दर्शनक लेल युक्तिए‍संगत कवि‍ता थि‍क।

दि‍व्यर पुरुष ओ जे सोलह कलासँ परि‍पूर्ण होथि‍। ‘दि‍व्यभ शक्तिज‍’ शीर्षक पद्य सरल रूपेँ पढ़लाक बाद कि‍छु वि‍शेष नै देखबामे अबैछ मुदा जेना कवि‍क व्यलक्तिस‍त्व  अर्न्तममुखी तहि‍ना पद्यमे गूढ़ रहस्य् झॉपल छैक। दि‍व्य् शक्‍ति‍सँ पूर्ण होएबाक बाद मनुजमे प्रखर ज्यो ति‍क आवरण पनकि‍ जाइत अछि‍। नीक-अधलाह वि‍चार संस्काैरसँ उत्पयन्न होइत अछि‍ मुदा गंगा माने पवि‍त्रताक परि‍चायक संस्कृैति‍सँ आबद्घ् जलधाराक कोखि‍मे सबहक लेल समान स्थाधन। जइ भूमि‍पर वसुदेव वि‍राजथि‍ वएह वसुधा.......।
नन्दू आ वसुदेवक प्रसंग तँ वर्तमान सामाजि‍क परि‍दृश्यसमे ‘उपहास’ जकाँ भऽ गेल अछि‍ मुदा कवि‍ आशावादी छथि‍.....
पाँचम कला बनि‍ जे बीआ
मनुज मन वि‍रजैए
डेगे-डेगे डगरि‍-डगरि‍
सोलहम कला पबैए...
जगदीश जीक जे काव्यग सृजनता ओ व्यंागनाक वि‍शेषता छन्हि.‍ ओ थि‍क हि‍नक आशावादी सकारात्मकक दृष्टि ‍कोण। अपन पद्यमे कतौ कवि‍ सामाजि‍क दशासँ नि‍राश नै छथि‍। कालक अकालकेँ अपन पद्यमे देखबैत तँ छथि‍ मुदा ओहि‍सँ उदि‍ग्नन नै। 
‘उड़ि‍आएल चि‍ड़ै’ कवि‍तामे वर्त्तमान मानवक मनोवृत्ति उझलि‍ लेखनीसँ कवि‍ताक रूपेँ उद्धृत कऽ कवि‍ पलायनवादपर तीक्ण्न  प्रहार कएलनि‍ अछि‍। ऐ पलायनमे मात्र अपन माि‍टसँ पलायन नै अपि‍तु संस्काँर आ मानवीयमूल्य क पड़ाइन सेहो देखाएल गेल अछि‍। ‘चि‍ड़ै’क उदाहरण मात्र कवि‍क छायावादी दृष्टि ‍कोण छन्हित‍, कचोट तँ संस्कृवति‍क पराभवकेँ मानल जाए। जे चि‍ड़ै अपन डीहो-डाबरकेँ बि‍सरि‍ स्वाार्थ आ कृत्रि‍मताक लहरि‍मे जतऽ घोघ भरतै ओतहि‍ रास करत ओहि‍ चि‍ड़ैक मधुर स्व रसँ मूल समाजकेँ कोन काज-
ओहन स्मृ‍ति‍ स्मृ ते की
जे मने मन घुरि‍आइत रहैत
पसरि‍ नै पबैत जे कहि‍यो
तरे-तर खि‍आइत रहैत....।
कवि‍सँ बेशी समाजक लेल वि‍डंबना जे बाटसँ भटकल बाटोही अपन मूल बाटपर श्रद्धा तँ व्यकक्त‍ करैत अछि‍, मुदा जइ पथमे पहि‍ल बेर उदयायल आदि‍ि‍लक दर्शन होइत अछि‍ ओइ पथपर फेर धुरब पथ भ्रष्ट क लेल असंभव जकाँ लगैत अछि‍। अपन मूल संस्काफरक पराभव करब उचि‍त नै मात्र स्मृअति‍सँ मूल माटि‍मे मातृत्वम कोना उत्पन्न हएत। तँए ‘पलायन’ कोनो रूपेँ उचि‍त नै।

मि‍थि‍लाक माटि‍-पानि‍सँ फलैत-फूलैत हि‍न्दीनक चर्चित उपन्याससकार फनीश्वर नाथ रेणु आंचलि‍क बनि‍ गेलनि‍। जौं मैथि‍लीक गप्पन करी तँ कथाकार तँ कथा जगतमे ललि‍त, राजकमल, धूमकेतु, कुमार पवन आ कमला चौधरी सन प्रांजल आंचलि‍क कथाकार भेल छथि‍ मुदा आंचलि‍क काव्यल जगतमे समग्र सामाजि‍क दैनन्दि ‍नीककेँ छूबैत कवि‍मे यात्री (चि‍त्रा) ओ आरसी प्रसाद सिंह (सूर्यमुखी)क पश्चात् जगदीश प्रसाद मण्डतलकेँ मानल जाए। ‘सान-धार-धारा’ कवि‍ता कोनो कैंचीक शानपर आधारि‍त काव्य  बून नहि‍ ई तँ मानवीय मूल्यि ओ संवेदनाक शानपर आधारि‍त पद्य अछि‍-
जे धारा सि‍रजए गंगा
कमला कोशी ओ महानन्दार
ओ धार कहि‍या धरि‍ ठमकि‍
मानैत रहत फंदा?
गंगा, कमला आ कोसीक कि‍छेरमे बसल गाम सभ मि‍थि‍लाक परि‍धि‍क भीतर अबैछ ऐ तरहक उल्लेलख तँ बहुत रास कवि‍तामे भेटैत अछि‍, मुदा ऐठाम ‘महानन्दा‍’क चर्च कऽ कवि‍ पुबरि‍या बि‍हारक क्षेत्र कि‍शनगंजसँ आगाँ धरि‍क लोककेँ आश्वस्त् कऽ देलन्हिप‍ जे अहूँ मैथि‍ले थि‍कौं? मात्र पद्यमे लयात्मँकता भरबाक लेल एना नै कएल गेल। कवि‍ मोन भावुक होइत छैक, भावमे बहनाइ कवि‍क प्रवृत्ति‍ मुदा मि‍थि‍लाक संस्कावरसँ भरल रहलाक बादो ई क्षेत्र साहि‍त्यामे अपच जकाँ छल, तँए कवि‍क भावनाकेँ सम्मा्न करबाक चाही।
’जहाँ न जाए रवि‍ वहाँ जाए कवि‍’- ई वाक्यर जे कि‍यो लि‍खने होथि‍ मुदा ई सर्वथा वि‍चारमूलक अछि‍। ऐ संग्रहक कि‍छु पद्य जेना पपीहाक गीत, वि‍खधरक बीख, नंगरकट घोड़ा आदि‍ पढ़लासँ स्पहष्ट,त: बुझना गेल जे छायावादी दृष्टिर‍कोण रचनाकारकेँ छोड़ि‍ सबहक लेल पूर्णत: बुझबामे नै अबैत छैक। ‘कोइली’ शीर्षक कवि‍तामे कवि‍ चन्द्र भानु सिंह ‘मैथि‍ली’क सरसताकेँ स्परष्ट‍ रूपेँ पाठक वा श्रोता लग परसि‍ देने छथि‍ मुदा पपीहा गीत शीर्षक पद्य कोनो चि‍ड़ै-चुन्मु्न्नीक स्व रपर आधारि‍त संस्कृसति‍ गीत नै ई तँ सम्पूतर्ण दर्शन थि‍क- जीवन-मरणक दर्शन। धरती अकाश, जल-थल कानि‍-अकानि‍ सन सहचाी विपरीतार्थक जीवन दर्शन.........


काव्य क व्यासख्यात बड़ कठि‍न होइछ, तँए गजेन्द्र  ठाकुर जीक ऐ मतसँ सहमत छी जे कवि‍ता कम लोक पढ़ैत छथि‍। चलन्तर गीत-नादकेँ जौं छोड़ि‍ देल जाए तँ प्राय: साहि‍त्यित‍क काव्युमे कतौ ने कतौ कवि‍ स्वीयं जीवि‍त रहैत छथि‍। कि‍छु वि‍शेष बि‍म्ब केँ स्प र्श करएबला कवि‍ता सभमे सेहो छायावादि‍ताक आवरण लागल रहैत अछि‍। ऐ ओहारक मध्ये बि‍न्दुत दर बि‍न्दु‍ प्रवेश करब कि‍नको लेल दुष्कार, तँए कवि‍ताक वास्तववि‍क दृष्ट कोणकेँ कवि‍-छोड़ि‍ कि‍यो नै बूझि‍ सकैत छैक।

“सरस्विती वंदना” कोनो देवोपराध क्षमा मंत्र नै, आ ने पारम्पपरि‍क सनातन संस्कृ‍ति‍क अवलम्ब केँ स्पमर्श करैत भक्तिे‍गीत। ऐ वन्द नामे समाजक असंतुलि‍त दशाकेँ समाप्तव करबाक लेल बुधि‍क देवीकसँ याचना कएल गेल अछि‍। कि‍छु वि‍शेष दि‍वसकेँ देवोपासनाक लेल चयन आ तात्काललि‍क आस्थाव कोनो भक्तिु‍क श्रद्धा नै, एकरा कवि‍ आडंवर मानने छथि‍। साम्यावादमे आस्तिभ‍कता वि‍शेष पंथसँ संबंध नै रखैत अछि‍। कर्म प्रधान वि‍वेचन कवि‍क कोनो कवि‍ता मात्रमे नै ई अर्न्तछआत्मामक ज्वा‍र थि‍क। मात्र एक दि‍न वर्ष भरि‍मे बुधि‍क आवरहन आ शेष दि‍वस-राति‍मे कुमार्गपर चलैत रहबामे संस्कामरक पराभव अवश्य म्भासवी हएत। तँए सरस्वकतीसँ प्रति‍क्षण आ प्रति‍पल संग रहबाक प्रार्थना कएल गेल अछि‍। कर्म आ ज्ञानक सराबोरि‍ जौं नै हएत तँ सि‍नेहसँ सि‍नेह स्पआर्श नै कऽ सकैछ। जेना महाकवि‍ वि‍द्यापति‍ “अपन करम फल हम उपभोगव तोहि‍ कि‍ए तेजह पराने सखि‍ हे मन जनि‍ करुऊ मलाने......” लि‍खि‍ कर्म फलक मूल्यांहकनमे कर्त्ताक कर्त्तव्युकेँ आधार बनेने छथि‍। जगदीश सेहो कहैत छथि‍-
“जे हूसल से हम्म र हूसल
तइले कि‍अए छी कलहन्तल
सभ जागैए सभ सूतैए
एक दि‍न हेतै सबहक अंत....”

ऐमे याचक भगवती सरस्वबतीसँ कि‍छु वि‍शेष नै मँगैत अछि‍ मात्र सत्कयर्मक बाटपर चलबाक दि‍शा ि‍नर्देशक आश रखैत अछि‍। जौं ऐमे ओ हूसि‍ जाएत तँ भगवानक संग-संग आन ककरो दोख नै।

कामना तँ सभ करैत अछि‍ मुदा ओकरा कर्मक पतवारि‍सँ जौं ि‍नत्ये आगाँ नै बढ़ाएल जाए तँ प्रति‍स्परर्द्धाक युगमे पाछाँ रहब प्रासंगि‍क अछि‍। सबहक आगाँ आ पाछाँक बाट सुन्न नै, सभ ठाम जीव अपन अस्तिढ‍त्वकक रक्षार्थ ि‍नरंतर लागल छथि‍ ऐमे वि‍जयश्री ओकरे भेटत जेकर चंचल मन रुढ़ रहत आ भीड़-भार देखि‍ उजगुजाएत नै-
“टुटि‍ते लाट धरासँ
भीड़े-भीड़ बनैत रहैत
एक्के-दुइये भीड़ टपैमे
भीड़ेमे भरमति‍ रहैत....”
कर्त्तव्यरनि‍ष्ठड व्येक्तिभ‍केँ हंस जकाँ दुग्धन आ नीरमे वि‍भेद करबाक प्रयोजन कि‍एक तँ हरि‍-हरी सन सहचरी कखनो नारायण कखनो बेग तँ कखनो साँप सेहो भऽ सकैत अछि‍। 
ऐ प्रकारक काव्य  सामान्यस बहुत आकर्षक आ सुस्वाखदु नै भऽ सकैछ मुदा नि‍ष्‍ि‍क्रय जीवन भेलापर अलात अनि‍वार्य। जेना भूमि‍गत जल पीबाक योग्यक होइत अछि‍ मुदा आसुतजाल कंठसँ पीअल नै जा सकैछ कि‍एक तँ ओ सीरम थि‍क। वएह सीरम नाद आ स्ना युमे नाद आ स्नाययुमे ि‍नर्जलीकरणक स्थिन‍ति‍मे सोडि‍यम आ क्लो रीन मि‍ला कऽ नस द्वारा सूई भोंकि‍ शरीरमे चटाओल जाइछ। तँए जगदीशक कवि‍ता हास्यक आ प्रीति‍क मंचसँ थपरी बजएबलाक लेल भलहि‍ं उपयोगी नै होनि‍ मुदा ऐमे छुच्छ  तत्वँ भरल छैक तँए मृतक समान भऽ रहल समाजक लेल एकरा सीरम अवस्थाऐ मानल जाए।
ऋृतु वर्णन बहुत रास कवि‍तामे भेटैत अछि‍ मुदा “अगहन” कवि‍ताक माध्यसमसँ कवि‍क ऋृतुक वि‍वेचन अत्य न्त” वि‍लक्षण छन्हि ‍। “समय पाठ तरूवर फले, केतक सींचो नीर” जकाँ कवि‍ अगहन केर आ वाहनमे कि‍सान जकाँ उताहुल नै छथि‍। जखन धान लबालब शीशसँ धराकेँ स्प र्श करए लगैत अछि‍, तँ कि‍सान मजूरक धैर्यक बान्हध टुटब स्वाशभावि‍क। मुदा कवि‍ धैर्य धरबाक लेल आगाह करैत छथि‍-
“तीन दि‍न, आठ अगहन वाॅकी
धड़फड़ बेसी नै अगुताउ
धीरजसँ सभ कि‍छु होइ छै
तइ बीच घरक काज सरि‍आऊ....”

स्वा भावि‍क छैक कृषि‍ प्रधान देशमे कि‍सान मजदूरक जीवि‍काक साधन कोनो सभ मासक वि‍शेष तारि‍खकेँ नौकरि‍हारा जकाँ धनसँ कऽ नै अबैछ। बरख भरि‍क मेहमति‍ आ पसीनाक गंगा जखन बान्ह  तोड़बाक लेल उफान तोड़ि‍ रहल तँ कवि‍क ि‍नर्देश जे घरक आन काज सभ सरि‍या कऽ पहि‍ने खरि‍हान बनाएल जाए एकटा यथार्थ प्रयोगवाद मानल जा सकैछ। रातुक नाच देखबाक लेल दर्शक लोकनि‍ गाम-गाममे सपरि‍वार जाइत छलाह मुदा ओ कृत्रि‍मतासँ भरल, कि‍एक तँ भोर होइते जखन कलाकारक रूप बदलि‍ जाइत छै तँ दर्शकक कोन ठेकान ओतए ठका गेल। मुदा चौकीपर धम्मो–धम्मक जखन चानक बोझ पड़ि‍ चष्टाूएल बहार भऽ जाइछ कि‍सानक नाच कर्मफल बनि‍ कोठीमे भरि‍ जाइत अछि‍। ई चौकी स्टे्ज नै ऐठाम मान सम्मा नक माने आजीवि‍काक फल आ अर्थक आवाहन। एहू कर्ममे लोक सभ परानी हांसू लऽ कऽ खेत दि‍श जाइत अछि‍ मुदा अन्नपूर्णाक संग अपन घर घुरैत अछि‍। बनाबटी नाचमे टका अर्थात् अन्नपूर्णाक संग जाइत तँ अछि‍ मुदा घुरबाक काल खाली हाय अपन आंगन आ बथान वापस अबैत अछि‍।
मनोरंजन तखने नीक जखन कर्मक गति‍ प्रखर हुअए कवि‍क ऐ शि‍क्षामे समाजक वास्तूवि‍क रूप-रेखा दृष्टि ‍ पटलपर उभरि‍ कऽ समक्ष आबि‍ गेल। ऐ प्रकारक संदेश ऋृतु वर्णनक माध्यपमसँ मैथि‍ली साहि‍त्यामे संभवत: पहि‍ने नै भेटल हएत। ग्राम्य् जीवनक वृत्ति‍ चि‍त्रक ि‍नर्देशक वएह भऽ सकैत अछि‍ जे गामक संस्कायर आ व्यिवस्था केँ आत्मकसात कऽ नेने हुअए।


जीवन तीनू मौि‍लक गुण सत्वत रज ओ तमक दार्शनि‍क अवलोकन मैथि‍ली गद्य साहि‍त्य मे “खट्टर ककाक तरंग” रूपेँ प्रो. हरि‍मोहन झा कएने छथि‍, मुदा गंभीर चि‍न्त नकेँ हास्यतक बि‍हाड़ि‍मे उधि‍या देलासँ एकर प्रासंगि‍कता ओइठाम नि‍ष्क्रित‍य भऽ गेल। ऐ कमीकेँ जगदीशजी “तरंग” कवि‍तामे पूर्ण कऽ देलनि‍। तरंग कोनो जल तरंग नै जीवन क्रि‍याशीलता ओ शैलीक तरंग थि‍क। एकटा कहबी छैक जेहने छलि‍अ हौ कुटुम तेहने भेटलऽ हौ कुटुम- वास्तजवमे जीवन क्रीड़ाक मैदानमे जेहेन दृष्टिु‍कोण रहत ओहने खेलबाक खेलौना भेटत।

आइ धरि‍क मैथि‍ली काव्यक जगतमे जे कमी खलैत अछि‍ ओ थि‍क रचनाकारक जीवनशैली ओ रचनाक तारतम्यीक अभाव। संभवत: जगदीशक कवि‍ता पढ़ि‍ पाठक कवि‍क दृष्टिल‍कोणपर प्रश्नकचि‍न्हद नै ठाढ़ कऽ सकैत छथि‍। शैक्षणि‍क पाठ्यक्रममे कोनो चर्चित व्यगक्तिी‍ जीवन परि‍चय मात्र सकारात्मीक दृष्ट्कोणकेँ पनकबैत देल जाइत अछि‍। प्राथमि‍क आ माध्यवमि‍क शि‍क्षामे समालोचना छात्र नै कऽ सकैत अछि‍, ओइमे मर्यादाक बान्हदकेँ नाङब संभव नै। मैथि‍ली साहि‍त्य्मे संभवत: एहि‍ना होइत रहल अछि‍। व्यीक्तिक‍गत वा कि‍छु खास वर्गकेँ महि‍मामंडि‍त करबाक क्रममे अधि‍कांश साहि‍त्यसकार समाजक वास्त वि‍क वृति‍चि‍त्रकेँ झाँपि‍ देबाक प्रयास करैत छथि‍न्ह । ऐ दुर्भाग्य सँ साहि‍त्या कलंकि‍त तँ होइत रहल मुदा कि‍नको एकर क्षेभ नै। सभ शब्दा समंजन आ आत्मय संतुष्टिि‍मे लागल छथि‍ कि‍एक तँ आत्मै संदृष्टिस‍क रूप वि‍चि‍त्र भऽ गेल छैक।
जगदीश जीक काव्य्मे ई सभ नै भेटत कि‍एक तँ हि‍नक दृष्टिऽ‍कोण साफ छन्हि ‍ ई सामाजि‍क वि‍डंबना आ वि‍षमताकेँ झाँपि‍ कऽ नै राखए चाहैत छथि‍। आब ि‍नर्भर करैत छैक जे समाज हि‍नक दृष्टिा‍कोणकेँ कतए धरि‍ मोजर देतन्हिि‍-
सत बनि‍ कखनो राज वि‍राजए
रज बनि‍-बनि‍ शासन करए
धरि‍ते धारण तम तम-तमा
झहरि‍-झहरि‍ फुनगीसँ गि‍रए....

ऐ पद्यांशमे गि‍रए केर स्थागनपर खसए रहबाक चाही मुदा गि‍रए वा खसए जे लि‍खल जाए ई तँ अक्षरश: सत्यब अछि‍ समाजक परि‍दृश्यलमे अधोगति‍ शि‍खरकेँ छूबि‍ लेलक। “बान्हमसँ खाधि‍ ऊँच” अनि‍श्च्यवाचक लोकोक्ति ‍ छल मुदा मि‍थि‍लाक समाजमे आब ई नि‍श्चि‍यवाचक भऽ गेल। अंग्रेजीमे कहबी छै “Nature and signature remains constant” मुदा मि‍थि‍ला क्षेत्र एकर अपवाद ि‍थक। मंचीय भाषणमे जीवन शैलीक उद्वोधन कतबो साफ रहए मुदा वास्तiवि‍क रूप कि‍छु आर भेटैत अछि‍।
वि‍वादि‍त पृष्ठेभूमि‍सँ जगदीशजी कतबो दूर होथि‍ मुदा साहि‍त्य कार कुकर्मीक हाथसँ फेकल अक्षतकेँ माॅथसँ लगा कऽ सम्यवक जीवनक कतबो उद्वोधन करए परंच जखन लेखनी उठाएत तँ सत्य् अवश्यज परि‍लक्षि‍त भऽ जाएत। “नङरकट घोड़ा” एकर प्रत्य क्ष प्रमाण मानल जाए। कवि‍ समाजसँ मात्र सि‍नेह चाहैत अछि‍। कोनो आत्मि्‍क कवि‍ स्वासर्थी नै आ ने ओकरा समाजसँ पि‍रही वा सम्मा्नक आश... ओ तँ मात्र चाहैत अछि‍ जे वि‍द्वतमंडली ओकर रचनाकेँ जन-जन धरि‍ पहुँचा कऽ ओकर दृष्टिि‍कोणकेँ परि‍लक्षि‍त करथि‍। जकर अभाव मैथि‍ली साहि‍त्य क वास्तकवि‍क रूपकेँ पाठक धरि‍ पहुँचबा रहल अछि‍। अर्थात् ऐ साहि‍त्यओमे पारदर्शीकेँ कहए पारभासक समालोचक सेहो एखन धरि‍ नै आएल छथि‍। 
“गीत-1” द्वारा कवि‍ एकटा ि‍नर्भीक समालोचकसँ मैथि‍ली साहि‍त्य क रक्षाक आश रखैत छथि‍ ई संभव हएत वा नै ई तँ भवि‍ष्य क वि‍षय थि‍क मुदा जगदीशजी इंद्रधनुषी अकासक द्वारा की देलनि‍ ऐपर मंथन कएलासँ उत्तर आधुनि‍क मैथि‍ली काव्यल जगतकेँ अवश्यथ स्वनस्थर चि‍न्तकन भेटत। 

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