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Friday, July 13, 2012

पोथी समीक्षा: इंद्रधनुषी अकास:: समीक्षक डॉ. कैलाश कुमार मि‍श्र

हम मानव वि‍ज्ञान एवं कलाक शोध छात्र छी। शोध छात्रक भाषा तँ प्राणहीन होइत छैक। उपमा, अलंकार, सौन्दनर्य, स्वलप्न आदि‍ शोधछात्रक हेतु जेना कुनो बाहरी परि‍वेशक वस्तुभ होइक। मुदा छी हम घोर आशावादी आ पॉजीटीव। शायद अपन अही पॉजि‍टीव सोच आ दृष्टि ‍कोणक कारणे हम परमादरनीय जगदीश प्रसाद मण्ड ल केर कवि‍ता संग्रह इंद्रधनुषी अकास केर आमुख लि‍खबाक जि‍म्माह लऽ लेलहुँ। मण्डडलजी वि‍चारसँ प्रगति‍शील आ सभ तरहक लोक-वि‍चारधारा, परिस्थिखतित‍ आ परि‍वेशमे सामंजस्यल स्था पि‍त करएबला साहि‍त्याकार छथि‍। अल्ट रनेटि‍व डेवलपमेन्टष आ इकोलॉजि‍कल कन्सेतप्ट्केँ स्थाेनीयताक दृष्टि्‍कोणमे बुझबाक आ अपन ज्ञान गंगाकेँ कथा, उपन्या्स, नाटक एवं कवि‍ताक रूपमे बहेबाक असाधारण क्षमता छन्हिे‍ मण्डटलजीमे। हि‍नकर रचना पढ़ैत जाऊ आ ब्योंपत-पर ब्यौं त सुनैत जाऊ! हि‍नकर बात आ ब्यों त सभ सहज, चमत्का री मुदा वि‍श्वशनीय लागत। 
आब बात करी रचनापर। हि‍नक रचना इंद्रधनुषी अकास सरि‍पहुँ कवि‍ताक प्रकार, छोट-पैघक हि‍साबे, भावनाक प्रवाहक हि‍साबे, अनेक वि‍षयमे होबाक कारणे बहुरंगी चुनरी अछि‍। अतेक वि‍स्तृैत वि‍धा आ वि‍षयकेँ समेटबाक कारणे ऐ संकलनक नामकरण अहि‍सँ उत्तम नै भऽ सकैत अछि‍ : वैवि‍ध्य सँ भरल, मनोरंजक, रंगारंग, दीवास्वकप्न, सोहनगर-मनोरंजक आ मनोहारी अकास। ऐमे जीवनक यर्थाथ अछि‍, कवि‍क कल्पंनाक संसार अछि‍, उपमा आ अलंकार अछि‍, जीवनक दर्शन अछि‍, माटि‍सँ सि‍नेहक उद्गार अछि‍, गीत अछि‍, भाव अछि‍, अर्थ वि‍न्या‍स अछि‍, प्रेमक अनुभवजन्यऐ परि‍भाषा आ प्रवाह अछि‍, प्रकृति‍क अनुराग अछि‍, ग्राम्यप-जीवनक झांकी अछि‍ चीर प्राचीन आ चीर नवीन वि‍चार अछि‍। 
“इंद्रधनुषी अकास” नामसँ अपन लि‍खल एकटा छोट कवि‍ता स्मदरण अबैत अछि‍, आ स्म रण अबैत अछि‍ ओ परि‍स्थिकति ‍ जइसँ प्रेरि‍त भऽ पाँच वर्ष पहि‍ने इंन्द्रसधनुषपर एक छोट कवि‍ताक ि‍नर्माण केने रही। परि‍स्थि‍‍ति‍ ई छल जे हमर पाँच वर्षीय पुत्र शशांक हमरासँ जि‍द्द करय लागल जे ‘हमरा इन्द्र धनुष देखाउ।’ मुदा देखाऊ कोना! घोर समस्यार। कि‍छु काल सोचमे पड़ि‍ गेलौं। अन्तँत: कम्युरस् टर खोलि‍ इन्टरइनेट चालू कय ओकरा इन्द्रहधनुषक अनेको फोटो देखा देलि‍ऐक। शशांकक बालशुलभ मोन प्रसन्न भऽ गेलैक। राति‍मे सुतबासँ पहि‍ने मोनमे आएल जे ऐपर कि‍छु लीखी। पेन आ कागत लऽ लि‍खए लेल बैसि गेलौं। सोचल कवि‍ता लि‍खल जाए। कवि‍ताक शीर्षक सेहो फुरा गेल- ‘इन्द्र धनुषक वि‍न्याास’ कवि‍ता स्वोत: प्रारम्भट भऽ गेल- 

“सुरुजक इजोतसँ भरल आकास दग्धल कतेक अछि‍ 
गर्मीक धाहसँ मोन वि‍दग्धी कतेक अछि‍ 
कोना करी एहि‍ प्रचण्डध गीर्मीमे शीतलताक आभाष कोना करी टहटहाइत इजोतमे इन्द्रड धनुषक वि‍न्याभस?
मुदा हारि‍ मानब हमर प्रकृति‍मे कतअ अछि‍ एकाएक बुझाएल जेना इन्द्र धनुष अतअ अछि‍। मोन हरि‍याएल ब्यों्त फुराएल इन्द्र धनुषक ि‍नर्माण हेतु कल्पहनाकेँ सकार कय इन्द्रल-धनुषक रचना हेतु सोचल कोना नै हैत इन्द्र –धनुषक वि‍न्याधस?
टहटहाइत सुरुजदेवकेँ ऊपर आँजूरसँ पोखरि‍क पानि‍ छीटि‍, सुखल धरतीकेँ अरि‍यर करबाक हेतु कऽ लेब एकता छोट मुदा यथार्थक इन्द्र धनुषक वि‍न्यालस। फेर की सभ भऽ जाएत सोहनगर, की धरती आ की अकास।”

आब बि‍ना इमहर-ओमहर भटकने जगदीश प्रसाद मण्डलो जीक कवि‍ता संग्रहकेँ देखी। 110 कवि‍ताक समेटि‍ने 146 पन्नाक ई पोथी मैथि‍ली साहि‍त्यस केर एकटा अवि‍श्मरणीय धरोहर अछि‍। हरेक छोट आ पैघ कवि‍तामे कि‍छु संदेश, कि‍छु संस्कािर आ कि‍छु नव वि‍चार प्रस्फुेटि‍त होइत छैक। लोक मि‍थि‍लासँ बाहर पलायन करैत छथि‍ तँ मण्डसलजीकेँ कचोट होइत छन्हिन‍। मुदा जखन लोक मि‍थि‍लासँ साफे रि‍श्तात समाप्त कऽ आनठाम बैस जाइत छथि‍ तँ मण्डनलजीक हृदए जेना भोकासि‍ पाड़ि‍-पाड़ि‍ कानय लगैत छन्हिक‍। ऐ बातक सहज अनुभूति‍ उड़ि‍आएल चि‍ड़ैमे परि‍लक्षि‍त होइत अछि‍ : 
“उड़ि‍आएल चि‍ड़ैक ठेकाने कोन
उड़ि‍ कतऽ जा बास करत। भरि‍ पोख घोघ भरतै जतऽ
दि‍न-राति‍ जा रास करत। ओहन चि‍ड़ैक आशे कोन जे बि‍सरि‍ जाएत डीहो-डावर।”

देख! देस परदेस कतहु जाऊ मुदा अपन माटि‍ आ अपन संस्कृआति‍सँ अपनाकेँ बि‍मुख नै करू। शायद यएह बात थीक ऐ कवि‍ताक मूल। अगर आँखि‍ मूनि‍ पलायन करैत रहब आ अवसर एवं सफलता मात्र पेबाक कारणे अपन डीह-डाबर सदाक लेल त्या गि‍ लेब तँ भला अहाँ केहेन मनुक्ख ! अहाँक केहेन संस्काार? छोट कवि‍ताक माध्यासँ कतेक मर्मक बात बजैत अछि‍ जगदीश प्रसाद मण्डकल केर कवि‍ मोन!
एक आर कवि‍ता- “चल रे जीवन” अहाँकेँ रोकि‍ लेत। कवि‍ता पढ़ु, ओकर शब्द क युग्म केँ देखू आ कवि‍ताक संग अपना-अापकेँ गति‍मान बना लीअ। ने कवि‍ता रूकत आ ने अहाँ। बाह रे बाह! एहेन आसाधारन सम्बतन्ध- कवि‍ता आ पाठकक बीच जीवन गति‍शील थि‍क। ई बात अनेको कवि‍ अनेको भाषा आ कालमे अपन-अपन ढंगसँ कवि‍ताक माध्यपमसँ कहने छथि‍। मुदा अही बातकेँ सर्वहाराक शब्दािवलीसँ कहब। कहब की चलैत पहि‍यापर एना बैसाएब कि‍ पाठककेँ जोश आबि‍ जाइक। ई कला मण्डशल जीमे छन्हिह‍। कवि‍ताक कि‍छु अंश देखू- “कि‍छु दैतो चल कि‍छु लैतो चल कि‍छु कहि‍तो चल कि‍छु सुनि‍तो चल कि‍छु समेटतो चल कि‍छु बटि‍तो चल कि‍छु रखि‍तो चल कि‍छु फेकि‍तो चल बि‍चो-बीच तँू चलि‍ते चल। चल रे जीवन चलि‍ते चल।
समए संग चल ऋृतु संग चल गति‍ संग चल मति‍ संग चल। गति‍-मति‍ संग चलि‍ते चल। चल रे जीवन चलि‍ते चल।”
हँ, कवि‍ केवल गति‍मान होमाक प्रेरणा टा नै दैत छथि‍। ओ कहैत छथि‍ जे जोश संगे होशमे रहू : गति‍ संग चल/ मति‍ संग चल/ गति‍-मति‍ संग चलि‍ते चल।

‘सासु-पुतोहु वार्ता’ कवि‍तामे जेनरेशन गैप आ मनोवैज्ञानि‍क वि‍श्लेषण भेटत। जखन कवि‍ता पढ़ब तँ लागत मनोरंजक अछि‍। जखन सोचब तँ लागत एकटा अनुभवजन्या वि‍श्लेमषण अछि‍। एक-एक शब्द।क चयन कवि‍ताकेँ समाजसँ सीधे जोड़बामे प्रभावकारी अछि‍। “अपनेपर हँसै छी” शि‍क्षाक घटैत स्तेर, चाेरी, घूस दय नौकरी प्राप्तज करबाक तरीका, अवसरवादी नेता लोकनि‍क पाॅपुलि‍जम आ शि‍क्षा मि‍त्र इत्या दि‍ केर माध्ययमसँ कि‍छु पाइक मासि‍क भत्तामे राखब, ओइ लेल मुखि‍यासँ नेता आ अधि‍कारी धरि‍ घूसक प्रचलन आदि‍ प्रथापर सोझे-सोझ प्रहार अछि‍। जकरा फबलै से बि‍ना पढ़ने नकल कऽ परीक्षा पास कए डि‍ग्री हासि‍ल कय कोनहुना लाख-डेढ़ लाख टकाक ब्यौंअत कऽ नोकरी हथि‍या लेलक। भाँरमे जाउ शि‍क्षा बेवस्था‍ या चौपट्ट होथि‍ वि‍द्यार्थी! शि‍क्षामि‍त्र लोकनि‍केँ ऐ सँ की मतलब???

“बाट” कवि‍ता कवि‍ रवीन्द्र नाथ ठाकुरक कवि‍ता यदि‍ तोर डाक शुने केऊ न आसे/ तबे एकला चलो रे/ केर स्मथरण करबैत अछि‍। संगहि‍-संग गीताक मूल मंत्र “कर्मण्ये-वाधि‍कारस्तेत माँ फलेषु कदाचन,” अर्थात अहाँक अधि‍कार कर्म तक सीमि‍त अछि‍। तँए अहाँ कर्म करैत जाऊ, फलक इच्छा् नै करू... केर सेहो पुनर्स्था?पि‍त करए चाहैत छथि‍। 
कवि‍ भावुक सेहो छथि‍। होबाको चाही। भावुक नै भेल तँ कवि‍ताक कोना रचना करत कवि‍! कवि‍क भावुक मोन गीतमे बहय लगैत छैक। “गीत-2”मे कि‍छु एहने दशाक वर्णन थि‍क। भावनासँ द्रवि‍त मोन बाजत तँ कोना? बोल कुना फुटतै? : 
मुँहसँ बोल कन्ना कऽ फुटतै 
दरदसँ दुखाइ छै टीससँ टि‍सकै छै छाती लहि‍-लहि‍ लटुआएल छै मुँहसँ बोल कन्नाल.....। आशाक सभ मेटेलै बाटे सभ घेराएल छै ककरो कहने कि‍छु ने भेटत अपने बेथे बेथाएल छै मुँहसँ बोल कन्ना ... चोटसँ चोटाएल छै मन ढहि‍-ढहि‍ कऽ ढनमनाइ छै तैयो हँसि‍-हँसि‍ नाचय गाबए 
राति‍-दि‍न बड़बड़ाइ छै मुँहसँ बोल कन्नाद...। 
अही तरहेँ जाल आ गालक उपमा लऽ कवि‍ लोककेँ अगाह करै छथि‍ : जहि‍ना जाल सभ तरहक मांछकेँ पकड़ैत अछि‍, परन्तु. अगर मल्ला ह जालकेँ ठीकसँ नै ओछेलक आ काबूमे नै केलक तँ जाल फाटि‍ जाइत छैक, माछ भागि‍यो जाइत छैक। तहि‍ना मनुष्याकेँ अपन बोलीपर संयम करक चाही : शब्दैजाल छी महाजाल जइमे समटल महाकाल देखैमे जहि‍ना वि‍कराल तहि‍ना अछि‍यो महाकाल। सभ कि‍छु भेटत आँखि‍येमे सभ लटकल अछि‍ जालेमे सभ कि‍छु छै गालेमे। 
जे जेहन अछि‍ जलवाह से तेहन फेक फेकैए। गैंची ने गैंचि‍या जाइए रोहु, भाकुर तँ फँसि‍तेए। सभ कि‍छु भेटत जालेमे सभ कि‍छु छै गालेमे। गाल बजबैमे जे जेहन से तेहन जाल फेकैए। इचना-कोतरीकेँ के कहए डोका-काँकोर धरि‍ फॅसैए। सभ कि‍छु छै गालेमे सभ फॅसल अछि‍ जालेमे...।”

ि‍वचार तँ वि‍स्ता रपूर्वक अनेकाे कवि‍तापर लि‍खल जा सकैत अछि‍। हि‍नकर ई कवि‍ता संग्रह हाथक आंगुर जकाँ थि‍क। सभ आंगुर स्वेतन्त्रन अछि‍, मुदा सभ जुड़ल अछि‍ तरहत्थीजसँ। तहि‍ना हि‍नकर रचना “इंद्रधनुषी अकास” नामक मालामे गांथल एक सय दस कवि‍ता स्वितंत्र अछि‍- वि‍षय, भाव, शब्द‍–चयन, प्रेम, उपमा आदि‍क स्वाभावसँ परन्तुस अन्तनत: सभ कवि‍ता एक तागसँ गांथल अछि‍ ओ ताग थि‍क जगदीश प्रसाद मण्ड लक व्यकक्तिनत्वे  आ सोच। सभ कवि‍ता एक-सँ-बढ़ि‍ कऽ एक अछि‍। “माटि‍क फूल, गोधन पूजा, झगड़ा, नजरि‍, भभूत, पुरुषार्थ, अगहन, केना मेटत गरीबी, बाढ़ि‍क सनेस, बेरोजगारी, पू-भर, बेथा, एकैसमी शदीक देश, आदि‍ कि‍छु एहन कवि‍ता अछि‍ जकरा पाठक बेर-बेर पढ़ताह। 


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