Pages

Saturday, August 4, 2012

यात्रीक कवितामे गाम- समीक्षक राज


स्थानीयतासँ सार्वभौमिकता तकक निरंतर कविता-यात्रा केनिहार, लेखन आ देखनमे अति साधरण लगनिहार अति विशिष्ट, असाधारण आ अप्रतिरूत कविक नाम-ए यात्री। श्रेष्ठतम रचनाकारे नै श्रेष्ठ नवमानवतावादी युगक उन्नायक, उद्गाता आ शलाका पुरूष। यात्रीक कविता गम्हारिक शील भेल करैए जे देखबामे तँ सभसँ अनुपयोगी लकड़ी पिट्ठाक समतूल लगैए मगर उपयोगितामे एके ठाम विविध काठक गुण आ वैशिष्ट्य उपलब्ध करा दैए। कोनो अतिरिक्त मानस संवेदनक बिना। हुनकर कविता सभक लेल भेल करैए। जत्ते आ जतबे जकर ग्राह्यता आकि अभिरूचि। जै तीमनमे अपने स्वाद गुण छै, ओइमे बेसी मर-मसल्लाक कोन खाँहिंस। जे वास्तविक रूपमे बिना अतिरंजनक ‘सत्यम्’ छै ओ अनारोपित ‘सुन्दरम’ हेबे करतै। ज्ञान आ अनुभवक काशीमे लोक अस्सी बरिस सोझे बिताइयो लेत तैयो कि दूनूमे सँ किछु बिना प्रयासक थोड़बे भेट सकतै। तैं बहुतो भौतिक प्राप्तिक भट्टीमे भँाडे़टा झोंकैत रहि जाइ-ए। बर्तज बाबा यात्रीयेक ‘चानन बुझि देहमे किदन लेपैत रहि जाइए’ आकि कथीदन पर फूल-घी चढ़ा-औंसि पुण्य लाभक दुराशा आ भ्रमक परसादी लेने घुमि-फिरि अबैए। यात्राी बाबा अपन कथ्यकेँ कोनो सँाचमे गढ़ि कऽ पाठकक आगू नै राखि सोझ-सोझ बिना कोनो रंग-टीप क उपस्थित कऽ दै छथि, तैं पाठक हुनकर कविताक कथ्यसँ सोझे जुटि जाइ छथि। आलंकारिकता आकि कल्पनाशीलतामे बोरिया पाठक बाम-बूच नै जा सकैए। यात्री अपन कवितासँ सम्पूर्ण रूपसँ मिथिलांचलक किसान आ गमैया मजदूर आ मुख्यतः ओही नजैर सँ पूरा भारतीय समाज केँ ओकर प्रबलता आ दुर्बलता संग देखैत उजागर करै छथि। तैं हुनक कवितामे वर्णित सामग्री सोझे समाजसँ ओतऽ गेल रहैए आ हमरे बात कहैए। अपन परिवेश आ अपन संवेदना द्वारा यथार्थकेँ टोहियेबाक एगो चेष्टा यात्राीक कवितामे सभतैर भेटैए। जिनगीक यथार्थ सँ सरोकार रखनिहार एगो खँाटी रचनाकार मात्रा ऐन्द्रिक सुन्नरते केँ नै चित्रित करैए अपितु ओ जिनगीक कुरूपताकेँ सेहो अँाकैए। ओजह ई छै जे जिनगीमे सभ किछु सुढब-सुन्नरे नै छै। ओइ जघ सुन्नरताक पीठ-पाछू कुढब, चँाछल आ धोखाधरियोक अस्तित्व छै। यदि एक दिस गामक अपार आ असीमित सुन्नरता छै तँ दोसर दिस गाममे बसनिहार लोक टोला-परोसक उधेसल- पुधेसल, उजरल-अपटल जिनगीक दर्दनाक कुरूपता सेहो। एतेक थाकल-हारल आ थकुचल जिनगी कि सुखक सभ बात गामक रहरहँा लोकक लेल रूप कथे बुझाइत रहै छै। फेर मुट्ठी-दू मुट्ठी भात आकि किछु टुक्का-साबुत सोहारी आ दालि कि तीमनक झोर जुमि गेलापर ओ दिल्लीक दरबार आकि रंगमहलक सुध किए लेत? यएह तँ अछि ऐ जिनगीक असीमित विरोधभास। यात्री अपन कविताकेँ ग्रामीण परिवेश आ अपन संवेदना द्वारा यथार्थ केँ देखैक प्रयास निरंतर करै छथि। सभसँ खास बात तँ यात्राीक कविता मे ई ऐ जे ओ कविकर्म केँ प्रतिष्ठामूलक नै, अपन विशिष्ट संवेदनशीलताक दायित्व पूर्वक व्यवहार करब मानैत रहल छथि। यात्री जेहन काव्य युगक निर्माण केलनि, ओकर तरूमे नै जा बेसी रचनाकार ओकर आकृतिकेँ स्वीकार आकि खारिज करैत रहलाह। ऐ फाँटक रचनाकार लग गामक अति जरूरी मुदा उपेक्षित थीतिक खबैर तँ रहै छनि बलू गोबर केँ गणेश आकि पाथर केँ भगवान बनेबाक मुद्रा आ चेष्टामे। यात्रीक कवितामे पाथर बनि गेल लोकक सुधि आ संधान भेटैए। गाम घुरू (भुसपुतरा) आकि ठठरीक ‘फोटो’ जेकँा हुनकर कविता मे नै अबैए। जेतऽ यथार्थ युग-सत्य बनि जेबाक ओजह सँ विज्ञापनी मंडीमे थोक रूपसँ उतरैए जरूर, बलू ओइमे नै तँ गामक आम जनक थीते उजागर भऽ पबैए, आने खास लोकक चरित्रो उघारल-उधेसल जा सकैए। जहिना वर्तमान समयमे वैश्विकता सुनबामे तँ वसुध्ैव कुटुम्बकम् अथवा मार्क्सक दुनिया भरिक मजदूरक एकताक आह्वान सन उदात्त बूझि पडै़ए बलू क्रिया आ असैर मे एकर विपरीत एक छत्रा साम्राज्यवादिक सूत्र सौन्दर्यवादी सुकुमार कविक गाम सँ फराक यात्रीक गाम तखने ऐ जे मूल रूप सँ किसान आ खेत-मजदूरक पक्षधरता हिनकर कविताक गामक प्रतिबद्धता ऐ, कोनो ‘फैशन’ नै। आ अही ओजह सँ अपन जिनगीक सभसँ कम, जटिल आ आरंभिके काल खंड अपन जनमथान तरौनी मे बितबितो हुनक कवि ओकर गुरूत्त्वाकर्षण सँ मुक्त नै भऽ पबैए। देश-विदेश सभतरि सर्वाधिक रहनिहार ई यात्री कवि कोनो शहरी उद्यान; पार्कमे ब्योंतल आ करतब, ड्रिल कराओल मौसमी फूल आकि पत्ताबहार, क्रोटन क चाक-चिकपर आकृष्ट नै होइ छथि बलू ओत्तौ गामक चर-चाँचरमे अगराइत भेंट-कुमुदिन, माछ-मखान, लीची आ आम सभ कथूक नैसर्गिक सुन्दरता केँ नै बिसरि पबै छथि- कत्ते दीब लगैए हमरा अपन ओ तरौनी गाम। मोन पड़ैए लीची आ आम। मोन पडै़ए कुमुदिनी आ ताल मखान। गाम सँ दूर रहबाक कचोट स्पष्ट रूप सँ व्यक्त करैत अपन विवशताकेँ फरिछाकऽ रखै छथि यात्री अपन कवितामे। खाहें तन सँ कतौ रहथु बलू मोन मैथिल जातीय भारतीयता सँ हेंठ नै भऽ पबैए। होइ कोनहुँ ठाम। किछु भै जाइ। रही बहुतो दूर वा लगीच। बंधुगण बरू दुरदुराबथु किंतु। जननि राखब भाव अँह जननीक। एकरा आर फरिछाबैत एक ठाम ओ कहै छथि- किंतु की हम बिसैर पाएब। तरौनी सन गाम? गड़हरा सन आम? दीदिक इनारक पानि। अपन पोखरिक ओ ठुट्ठ पातर जाठिं।... धनरूर बाध कोसक कोस। हुनकर अनुराग सिन्दूर तिलकित भाल पर केन्द्रिते रहैए। आकृष्ट करैए कवि केँ नेनाक थोंथ हँसी, जेकरामे महज सुन्नरते नै, संजीवनी शक्तिक संचारक छेमता ओ पबै छथि। अहल भोरे जाड़ मासमे गाममे ओरियाओल छूराकेँ तपैत, जिनगीक सुख-दुःख मादे निष्कपट बतियैत, घूराक सोन्हगर गमैया गंधक पता ओहन आत्मीय भाव सँ कोनो यात्राीये सन माटि-पानिक कवि केँ भऽ सकै छै। आंचलिक बोलीक मिज्झरक, मिक्सचर अर्थात् संकीर्णता सँ हेंठ अनगढ़ बोली कोनो कवि यात्राीयेक कान जुरा सकै छै। जूता-मोजाक टीप-टाप पर नै ठेला आ बेमाय फाटल गोर पर कोनो कवि यात्राीयेक नजैर जा सकै छै। दू-गो बिम्ब जे खँाटी गमैया ऐ, आम लोकक आशा-आकंाक्षाक प्रतीक ऐ- दूधिया शीश आकि बालि ओ श्रमक फलाफल सोनिम पाकल शीश अधिक ठाम श्रमक गायक ऐ कविक कविता मे अबैत रहै-ए।

वर्तमान व्यवस्थापक प्रतीक ध्ूरू (भुस्सा भरल झामलाल बिजुका) क माध्यम सँ तँ कवि पूरा व्यवस्थापक चरित्र ओ थीत केँ बेपर्द करै छथि। चेतना हीन जनतंत्रक मालिक जनता साकांक्ष नै भऽ गफलैत मे पड़ल रहैए आ ओकर ओगरबारू प्रतिनिधि अपनेमे टर्र भाँजटा पूरैत रहै-ए। उपरका जँ सरङमे बिचरैत रहैए तँ निचलका दिन-दिन पताले धँसल जा रहल-ए। दूनू फँाट अपचक शिकार। बेसी कदन्न सँ तँ कम अधिक पौष्टिकता सँ। प्रतिनिधिक मगज आ करेज मे भुस्सा भरल बुझा पडै़-ए जै पर खद्धर, स्वदेशीक आङरक्षक खाल चढ़ल ऐ। अकालक ओजह सँ स्वतंत्र गामक अस्सी प्रतिशत लोकक त्रासदीक केहन सजीव चित्र यात्राीक कवितामे संभव भेल ऐ-’ बिना पजारक मन्हुवाएल चूल्हि, कामहि जँात-चकरी, अन्नदाताक संग समान जिनगी बसर तै त- बरतैत आश्रिता कनही पिलिया, लाभर-जीभर अहरा प्राप्त केनिहार गिरगिट, मूसआ कौवा सभक उदासी, हतासी आ फेर आंशिक जरूरैत पूर्ति सँ टुकटुकाएल ओकर सभक चेष्टा आ चुहुल केँ भला कोन ‘फेन्सी’ कवि एते कममे एते विराटताक संग प्रस्तुत करबाक सामरथ राखि सकैए।

भाखा केँ हम अभिव्यक्तिक माध्यम टा मानैत रहल छी तैं यात्राी आ नागा जनमे अंतर करबामे असोकर्जक अनुभव करैत छी। मूल वस्तु तँ छिऐ कथ्य। गोल कऽ दियौ तँ लालमोहन, नाम तँ गुलाबजामुन। हलवाइ तँ एकेगो- यात्री कहियौ कि नागार्जुन। गरीब-गुरबा, किसान आ मजूरक आत्मीय समाङ। कतौ पं वैद्यनाथ मिश्र नै कलगणारक रूप मे। मनुख तँ वास्तविक रूपमे अगबे मनुखेटा रहै छै। दोखी तँ भेल करै छै कोनो व्यवस्था माने संचालन तंत्र। जँातक  काज छिऐ पिसनाइ। अखियासबाक तँ एतबे छै कि ओइमे ढारल की जा रहल छै- कोदो-मरूवा आकि चाउर-गहूम। सद्यः व्यवस्थाकेँ खेलौड़िया मुद्रामे लुल्हुवा देखेबामे बाबा यात्राी-नार्गाजुन हिन्दीक माध्यमसँ भाव व्यक्त्त केनिहार किसान कवि त्रिलोचन आ केदारनाथ अग्रवालो सँ सहज आ पटु देखनामे अबै छथि।

जनसंकुल टीसनो पर कवि गामेक अँाखिक प्रयोग करैत देखल जाइ छथि। ओइ लोक वरक अपार भीड़ोमे लोक-मन अर्थात निम्नवर्गीय ग्रामीणे परिवेशक दुरगमनियँा कनियँा-बरे पर कविक अँाखि जाइए। पारंपरिक रङल-टीपल बाकस पर ओङठलि घोघ-मरद काढ़ने नवकनियँा आ ओकर रछिया लेल बहाल लोकनियाँ चानीक टकहीक हर पहिरने, माङुर माछ सन काठी आ सिमरताइवाली आँखिसँ गामेक अनगढ़ सुन्नरताक पारखी कोनो कविक अँाखिटा देखि सकैए। तेज सबारीक बिरड़ो आ घटाटोपक अछैतो भदबारिक भीजल घोंघा सन (सूक्ष्म गमै उपमा) मंद ससरैत ट्रामे पर कविक अँाखि जाइ छनि। गामक हरेक मोर्चा पर यात्राीक कवि साकंक्ष ठाढ़ भेटैए। माटिक सभ स्पंदन हुनकर कवितामे निनादित होइए। तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक सभ प्रकारक विद्रूपताक खबैर यात्री लैत चलैत छथि, संगे गामक सम्पूर्ण जिनगीकेँ रूपायित सेहो करै छथि। गामक लोकक सभ आशा-आकांक्षा, दुःख दरेग, हँसी-खुशी, सौन्दर्य-कुरूपता, जय-पराजय, उत्थान-पतन, कमजोरी-मजगूती, समटा समभाव सँ हुनकर कविता-यात्रा मे सरीक रहैए। कविकर्म हुनकर धर्म छनि, जिनगीक मर्म छनि। कतौ लौल, सौख आकि प्रदर्शनकामिता नै।

यएह ओजह ऐ जे प्रगतिशीलताक प्रर्दशन मे ओ अपन मैथिल समाजक ;स्थानीयताक सभसँ ज्वलंत आ अपरिहार्य समस्या वैवाहिक दुर्गुण सभसँ सेहो मुँह नै मोडै़ छथि। ‘यत्-यत् पिण्डे, तत् ब्रह्माण्डे, स्थानीयता सँ सार्वभौमिकता हुनक आदर्श बुझा पडै़ए। सरजमीन सँ कटि अकासक गप्प कखनौं नै। तैं मिथिलांचलमे व्याप्त बेमेल बियाह, बहु बियाह आदि दुर्गुण सार्वभौमिकताक हुनक विशद दृष्टिक अछैतो ओत नै भेल ऐ। तत्कालीन मैथिल समाजक खाहें बेमेल बियाहक स्पष्ट चित्रण हो आकि चरित्रक उद्घाटनक संग तहियाक पेशेवर घटकक सजीव आकलन जेना यात्रीक कवि कऽ सकल ऐ, निस्संदेह मिथिला केन्द्रित आन कोनो कवि सँ संभव नै भऽ सकल। संस्कृतिक एहन सम्यक आ निठुर व्याख्याक संयम अंतऽ कतौ भेटब दुर्लभ।

गामक-घर, माटि-पानि सँ केहन संव्यक्त्त छला ओ एकर परिचय तँ सुगमताक संग जेतऽ–तेतऽ भेटते ऐ, तैयो बानगी सरूप किछु पतियानी उदघृत करबाक इच्छा केँ नै रोकि सकबाक विवशताक संग एतऽ राखऽ चाहै छी जे बाल-विधवाक दुःख दैन्यकेँ सूक्ष्मताक संग उजागर करैए ‘‘भुस्साक आगि जेकँा नहूँ-नहूँ। जरै छी मने-मने हमहूँ। फटै छी कुसियारक पोर जेकँा। चैतक पछबा मे ठोर जेकँा। काते रहै छी जनु घैल छुतहर.....।’’

यात्राी अपना केँ कतौ विशिष्ट नै, अपन कवित्त्व केँ सामान्ये मानैत रहल छथि।  जहनि कि सभ मतक माननिहार सारस्वत चेतनाक सर्वोपरि सिद्धि मानैत रहल छथि, तेनाहितियो मे यात्री अवसरक अनुकूलते केँ आने सफलता जेकँा सर्वोपरि मानै छथिथ। परम मेधवी कते बालक जेतऽ। मूर्ख रहि गायटा चरबैत छथि। .......कालिदास कते। विद्यापति कते। छथि हेरायल महिंसबारक हेंड़मे। यात्राीक शिल्पी गामक ‘कमर्शियल’ सौन्दर्य केँ प्रस्तुत करब मात्र अपन अभिष्ट किन्नौं ने रखने ऐ। ओ यथार्थक एहन समतल भूमि तैयार करैत चलै छथि कि ओ अनायास ‘सुन्दरम्’ भऽ कवितामे प्रकट भऽ जाइए, वनफूलक महमही जेकँा। जौं एक दिस हुनका फसिलक मंजरीक दुर्लभ महमही अभिभूत करै छनि तँ दोसर दिस जेठक तिक्ख आतप केँ सहैत कृषि कर्म मे साधनारत बीया बाउग केनिहार हाथ ओ मुँहक दूरीक सुरता सेहो सतबैत रहल छनि। ग्रामीण क्षेत्र दऽ’ बुलैतहैत तीरभुक्त्तिक माला हुनका नै सिहाबै छनि। थलहा कृषि –कर्मसँ लऽ जल-कृषक मलाहक जिनगी तकक शैली ओ संास्कृतिक चेतनाक सूक्ष्म ज्ञान बाबाक ओतऽ जतबा ऐ, आनठाम एहन आ एते दुर्लभ ऐ। एकर संगे नदी सभक प्रलयंकारी ताण्डव आ ओइसँ उपजल ओबा-टुनकी, मरकी-फौती सँ सेहो छगाइत छथि बाबा यात्री।

एकर विभीषिका सँ कोन फाँट पर कोन असैर पडै़ छै नीमन जगती बूझल छनि कवि यात्राीकेँ। एकेगो थीत केना ककरो गोटी लाल करैए, ककरो उफँाटि तँ ककरो पबन्नी लगबैए आ ककरो खेले उसरि दैए।

सहज सपर्द भाखामे विराट शब्द अभिव्यंजना जे यात्राीक ओतऽ भेटैए ओ कोनो खँाटी ग्रामीणे संस्कारक कवि ओतऽ संभव छै। नव निर्मित मुलकी व्यवस्थाक प्रति मोह- भंगक मादे स्पष्ट आ संधानल कसगर चोट करितो फूलगेना सँ प्रहारक मुद्रा ऐ महान कविक अपन विशेषता रहल-ऐ। यात्री अपन लोकदृष्टिकेँ गमैया संस्कारक ओजहसँ घोघटामे बादरिक चान सन भँापि, अपवाद थीतिकेँ छोड़ि, प्रस्तुत करैत रहल छथि जे निश्चित रूपसँ ग्राम्य संस्कारेक असरि ऐ। स्वदेशी त्रुुटिपूर्ण आ जंगलशाही वर्त्तमान व्यवस्थापक प्रति मोहभंग केँ यात्री सोझ-सहज हाड़ तक छूबऽ बला शुरमे व्यक्त्त करबाक सामरथ रखै छथि तै पर थोड़ेक दीठि देल जाय - चानन बुझि हम किदन लेपल देह मे। वाहरे ! महान कविक शब्द अभिव्यंजना। आम लोक केँ उमेद रहै चाननक शीतलताक, बलू भेटलै वएह निर्घिन अवशिष्ट-नव व्यवस्थाक चरित्र केँ केहन मर्यादित गमइ संस्कारक संग उधेसबामे सफल होइ छथि- पूँछ उठाकर नाच रहे हैं ‘पार्लिया-मेन्ट्री मोर’। बिखिन-बिखिन बिम्बक प्रयोगक अनिवार्यताक अछैतो भारतीय ग्राम्य संस्कारक केहन निर्वहन। अखारा पर दम प्रदर्शन सँ बेसी दम पचेबाक प्रक्रिया बेसी कुशलताक मानल जाइ छै। ई बात भिन्न जे ऐ ग्राम्य सहज चेतना केँ गरियेबाक उदेस सँ गमार आकि भदेसी विशेषण सँ अभिहीत किए ने कएल जाउक। यात्री नव मानवताकेँ आकृतिक आधार पर छोट-पैघ आङुरक छपाटि हाथकेँ सुरुब बनेबाक दलील देनिहार मिथ्याकार सभक फाँटक नै भऽ सकै छथि, ओजह जे हाथ ‘स्वस्ति-स्वाहा’ सभ कथूमे सक्षम आ मूल भेल करैए जहनि कि सुरूब अनुकृति मात्र। ओ कोनो प्रणालीक संचालनक सामरथ नै राखि चमचा चालन मात्र कऽ सकैए। साम्यक अर्थ युगकवि यात्री सभंजन जेकि भारतीय दर्शनोक मूलाधार ऐ, सएहटा लगबैत रहल छथि। कोनो वायवीय अर्थक आधारपर सत्यकेँ खारिज करबाक कुप्रयास ओहन महामना कवि भला किए करत?

एतावता जनवादी चेतना आ ग्रामीण सौंदर्य-बोध महान कवि यात्राीक जिनगीक सहज उच्छवास आ ऊर्जा, करेजक ध्ुकध्ुकी आ धमनीक प्रवाहित रक्त्त रहल ऐ।

No comments:

Post a Comment