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Sunday, August 5, 2012

जगदीश प्रसाद मण्‍डलक कवि‍ता संग्रह राति‍-दि‍न :: समीक्षक राजदेव मण्‍डल


मैथि‍लीक नव कवि‍ताक नि‍रन्‍तर वि‍कास भऽ रहल अछि‍। श्री जगदीश प्रसाद मण्‍डल पूर्ण नि‍ष्‍ठा आ तल्‍लीनताक संग ऐ वि‍कास कर्ममे संलग्‍न छथि‍। आ तेकर प्रति‍फल सम्‍मुख अछि‍- कवि‍ता पोथी- राति‍-दि‍न। ऐ पोथीमे 52 गोट कवि‍ता संकलि‍त अछि‍।



कवि‍ता भाव, बुधि‍ कल्‍पना आर शैलीक समन्‍वि‍त परि‍णाम थीक।

ऐ गुण आदि‍सँ अलंकृत मानस सृजनक गम्‍भीर, सचेत प्रक्रि‍यासँ संचालि‍त भऽ सकैत अछि‍। तइ कारणे कवि‍ अत्‍यधि‍क सवेंदनशील होइत अछि‍। हरेक कालावधि‍मे मनुखक अन्‍तसमे अभीप्‍सा पालि‍त-पोषि‍त होइत रहै छै आ ओइपर जखन तुषारापात होइ छै तँ जन मानस आन्‍तरि‍क वेदनासँ भरि‍ जाइत छै। मोह भंग भऽ जाइत छै। बेकतीक अन्‍तसँ उपजै छै। वि‍द्रोह, कंुठा, आक्रोश, संत्रास, क्षुब्‍धता, आत्‍म रक्षाक सबालादि‍। अही सबहक अभि‍व्‍यक्‍ति‍ मैथि‍लीक नव कवि‍ता थीक।

मण्‍डलजी सन सवेंदनशील कवि‍ जे ऐ यथार्थकेँ भोगने छथि‍ से केना चुप्‍प रहि‍ सकैत छथि‍। हुनका लेखनीसँ तँ संघर्षक स्‍वर नि‍कलबे करतैक।

“जि‍नगीक होइत संघर्ष।

सीमा बीच जखन अबैत

मचबए लगैत दुर-घर्ष।

घर्ष-दुरघर्ष बीच जखन

जि‍नगी करए रस्‍सा-कस्‍सी।

बीच समुद्र सि‍रजि‍ मथान

पकड़ए लगैत अपन-अपन रस्‍सी।”

(संघर्ष)



कवि‍ अखण्‍ड राज भोगी सभपर व्‍यंग्‍य प्रहार करैत कहैत छथि‍-

“मुसक खुनल बील पकड़ि‍

नाग-नागि‍न कहबए लगैए।

नागे तँ धरती टेकने छै

अखण्‍ड राज भोगै छै।”

(मानव गुण)



कि‍छु लोक बहुरूपि‍या बनल अछि‍। हरेक क्षण गि‍रगि‍ट जकाँ रंग बदलैत रहैत अछि‍। समाजकेँ दि‍शा भ्रमि‍त करैत अछि‍। ऐ सम्‍बन्‍धमे कवि‍क उक्‍ति‍ अछि‍-

“गि‍रगि‍टि‍या मनुक्‍खो तहि‍ना

दि‍न-राति‍ बदलैत चलैए

गीरगि‍टेक जहर सि‍रजि‍-सि‍रजि‍

बीख उगलैत चलैए।

भेद-कुभेद मर्म बि‍नु बुझने

देखा-देखी ओढ़ैत चलैए

ओढ़ि‍-ओढ़ि‍ ओझरा-पोझरा

डुबकुनि‍या काटि‍ मरैए।”

(घोड़ मन, भाग-२)



मनुखक रीत-नीत आ बेवहारमे कतेक परि‍वर्त्तन भऽ गेलैक अछि‍। बदलैत जुग-जमानापर हि‍नकर कहब छन्‍हि‍-

“जुग बदलल जमाना बदलल

बदलि‍ गेल सभ रीति‍-बेवहार।

चालि‍-ढालि‍ सेहो बदलि‍ गेल

बदलि‍ गेल सभ आचार-वि‍चार।

मुदा, राति‍-दि‍न एको ने बदलल

नै बदलल चान, सूर्ज, अकास।

पूरबा-पछबा सेहो ने बदलल

नै बदलल जि‍नगीक बि‍सवास।”

(जुग बदलल जमाना बदलल)



अंग्रेजी भाषापर शब्‍दक प्रहार करैत कहैत छथि‍-

“अंग्रेजी पढ़ि‍ अंग्रेजि‍या बनि‍-बनि‍

पप्‍पा-मम्मी आनत घर।

बाप-दादाक कि‍ भेद ओ बुझत

अड़ि‍-अड़ि‍ बाजत नि‍डर।”

(घरक लोटि‍या बुड़ले अछि)



समाजक रूप वर्णन ऐ पाँति‍सँ लक्षि‍त भऽ रहल अछि‍-

“अगम-अथाह रूप समाजक

असथि‍र भऽ सागर कहबैए।

बर्खा बुन्नी बीच-बीच

ओला-पाथर बरि‍सा दइए।

पबि‍ते पाबि‍ पृथ्‍वी पसरि‍

धरि‍या-चालि‍ धड़ए लगैए।

उट्ठी-बैसी खेल खेलैत

मोइन-धार बनबए लगैए।

टूक सुपारी समाज कटि‍-कटि‍

टुकड़ी जाति‍ बनल छै।”

(अपनेपर)



नव बि‍म्‍वक प्रयोग संवेदनशीलता आ मार्मिकताकेँ संगे होएबाक चाही। आ से मण्‍डल जीक कवि‍तामे वि‍षयक अनुरूप बि‍म्‍बक प्रयोग भेल अछि‍।

“झि‍लहोरि‍ झील खेलाइत रश्‍मि‍

आकर्षित-आकर्षण करैए।

प्रेमास्‍पद पबि‍ते पाबि‍

प्रेम-प्रेमी कहबए लगैए।



पाबि‍ प्रेमी प्रेमी जखन

सागर गंगा मि‍लए चाहैए।

बॉसक पुल बना समुद्र

गंगा-सागर स्‍नान करैए।”

(शील)



“अजस्र धार भवसार सजल छै।

नाओं एक खाली पड़ल छै।”

(संघर्ष)



स्‍थि‍ति‍क अनुकूल बि‍म्‍ब, नव उपमान, प्रतीक नव कवि‍ताक लेल साधन मानल गेल अछि‍। आ से ऐ संग्रहक सभ कवि‍तामे परि‍लक्षि‍त भऽ रहल अछि‍।

“जहि‍ना धरती अकास बीच

गाछ-वि‍रीछ लहलह करैत।

तहि‍ना वि‍वेक वि‍चार संग

सदि‍ हँसि‍-गाबि‍ कहैत।”

(प्रि‍य)



मण्‍डलजी प्रि‍य कवि‍तामे शैली आ भाषाक सम्‍बन्‍धमे कहने छथि‍-

“सम्‍पन्न शब्‍द, शैली सम्‍पन्न

शब्‍द कोष सि‍रजए लगै छै।

जड़ि‍-छीप पकड़ि‍ भाषाक

संसार-साहि‍त्‍य गढ़ए लगै छै।”



राति‍क अवसान भेलापर दि‍नक आगमन नि‍श्चि‍ते होइत अछि‍। जे कटुसत्‍य अछि‍। राति‍-दि‍न सर्वजन परि‍चि‍त शब्‍द अछि‍। शब्‍दमे व्‍यापकता सेहो अछि‍। राति‍-दि‍न कवि‍ता संग्रहक शीर्षक अनुकूल अछि‍। कवि‍ता सबहक भाव, वि‍षय, उद्देश्‍य इत्‍यादि‍ ऐ शीर्षकमे छि‍पल अछि‍।

साँझ-भोर कवि‍तामे कवि‍क कथन उजागर भेल अछि‍-

“केकरो साँझ केकरो भाेर छी

केकरो उदय केकरो अस्‍त छी।

दि‍नक अस्‍त साँझ अगर छी

राइति‍क तँ उदये छी।

बारहे घंटा दि‍नो चलै छै

ततबे टा ने राइति‍यो होइ छै।”



पुरान ठाठ आ खूँटा वि‍छि‍न्न भऽ रहल छै। नवका-नवका जि‍नगीक खूँटा आ घर ठाठ करए पड़तै। तँए कवि‍ “चेतन चाचा” कवि‍ताक माध्‍यमे कहने छथि‍ जे ई काल चेतबाक थि‍क-

“चेत-चेत चलू चेतन चाचा

सरसड़ाइत समए ससरैए।

समए छोड़ि‍ कतबाहि‍ जखने

ठहकि‍-ठहकि‍ नक्षत्र कहैए।

आगू डेग उठबैसँ पहि‍ने

चारू दि‍शा देखैत चलू।

चारू कोण ठेकना-ठेकना

आगू डेग बढ़बैत चलू।”



तँए जि‍नगीमे सीखबाक उपक्रम होएबाक चाही। बि‍नु सीखने कि‍छु नै भऽ सकैत अछि‍।

“जि‍नगीमे कि‍छु करब सीखू

जि‍नगीमे कि‍छु लड़ब सीखू।

सभ जनै छी, सभ देखै छी

अज्ञान-अबोध बनि‍-बनि‍ अबै छी।

सज्ञान-सुबोध तखने बनब

संघर्षक बाट जि‍नगी धड़ब।”

(कि‍छु सीखू कि‍छु करू)



“मुँहक झालि‍” कवि‍तामे कवि‍ ललकारि‍ कऽ कहि‍ रहल छथि‍-

“मुँहक झालि‍ बजौने कि‍ हएत,

काजक झालि‍ बजबए पड़त।

फोकला-खाख अन्ने की

सुभर दाना उपजबए पड़त।”



कहबाक तातपर्य ई अछि‍ जे सि‍रि‍फ गाल बजौने कि‍छु नै होएत। कर्म करै पड़त। जइसँ देस-दुनि‍याँक कल्‍याण संभव भऽ सकत। तँए कर्मशील होएब परमावश्‍यक अछि‍। तखने अपन इति‍हास लि‍खि‍ सकैत छी।

“कर्मक स्‍वरलहरी सीखू

अपन इति‍हास अपने हाथसँ

स्‍वार्णाक्षरमे लि‍खनाइ सीखू।”



अपन इति‍हास अपनेसँ सृजन करब बहुत कठि‍न कर्म अछि‍। ऐ लेल सतत कर्म आ वश्‍वास चाही तखनहि‍ संभव भऽ सकैत अछि‍।



हम अज्ञ छी तथापि‍ एतबा धरि‍ जरूर कहब जे प्रस्‍तुत “राति‍-दि‍न” पोथीमे बोधक अनुकूल नव बि‍म्‍ब, प्रतीक, नव उपमान इत्‍यादि‍क प्रयोग भेल अछि‍। भाषा-शैलीमे आंचलि‍कता अछि‍। मि‍थि‍लांचलक गंध समाहि‍त अछि‍। सुधी पाठकगण स्‍वागत करताह। आ संगहि‍ नवाकुंरक लेल पाथेय बनत।

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