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Friday, May 25, 2012

उमेश मण्डल जीक “निश्तुकी” कविता, लघु-कविता, हाइकू/ टनका आ गजलक संग्रह -समीक्षक गजेन्द्र ठाकुर

उमेश मण्डल जीक “निश्तुकी” कविता, लघु-कविता, हाइकू/ टनका आ गजलक संग्रह थिक। मैथिलीक नव तुर मात्र उमेरकेँ प्रतिष्ठा नै देबऽ चाहैए, जँ ओ उमेर अग्रगामी नै होथि। आ से हेबाको चाही, काजक सम्मान छै उमेरक आ पुरानक नै। आ तेँ पुरान आ उमेरगर जँ अग्रगामी छथि तँ तिनका प्रतिष्ठा किए नै भेटन्हु? 

ई टनका देखू:

समस्याँ आप्त 
सोलहनी सजल 
साहि‍त्यआकार 
लेखे पुरान छै आप्तर 
केना एतै यथार्थ 
आ तेँ “बूढ़ाढीमे” लघु कवितामे ओ कहै छथि: 

जीनगी चाह करैए 

कर्मक बाट देखबैए 

कर्मका बाट जँ पकड़ि लेब तखन धुधुएबे करब: 

भुरकी-सँ-भार बनि 

बील बोहरि‍ धरि‍ 

बनि‍-बनि‍ असंतोष 

धोधरि‍ बनि‍ धुधुआ रहल अछि 

मिथिलासँ पड़ाइन भऽ रहल छै। से रहि-रहि कचोटै छन्हि कविकेँ। आ जँ वसन्तक आगमन भऽ जाए तखन तत्व ज्ञान भैये ने जाएत! 

बसंत आएल 

गाम जाएब 

आब एतए 

रहि‍ नै पएब 

बसंतेक खोजमे तँ 

छी बौआएल पड़ाइनसँ:- 

गामक मुँहथरि‍ 
जंगल बनल अछि‍ 
हुनका विचारक फाँट सेहो रहि-रहि देखा पड़ै छन्हि: 
अहाँक गप 
अपन मन 
दुनू मि‍लैए 
मि‍लि‍ दुनू अछि‍ चौचंग 
खोजि‍ रहल अछि‍ वसंत 
मुदा 
बसंतक चि‍ड़ैकेँ 
संग नै राखए चाहै छी हम 
हुनका बुझऽमे आबि रहल छन्हि : 
भकोभन ओइ अन्हाार कोठरीमे 
आ ओ अहाँसँ पूछि रहल छथि: 
तखन शीशामे केना देखाएत 
ओकर चि‍त्र केना आएत? 
आ कियो नै सुनऽ चाहै छथि ओ गीत जतऽ मात्र आ मात्र गाओल जा रहल अछि संस्कृतिक गीत: 

हनहनाइत, भनभनाइत ओइ स्वलरकेँ 
सुनैले नै‍ छथि‍ कि‍यो तैयार 
किए नै सुनै लेल छथि तैयार, कारण अछि डर, दर्दक डरे ओ नै सुनऽ चाहै छथि हनहनाइत, भनभनाइत ओइ स्वञरकेँ। 
किछु अजीब बात सभ हुनका असहज लगै छन्हि: 
आगि‍-पानि‍केँ 
मनक माइनकेँ 
कारण सेहो छै, अगिलहीक बिम्ब देखू: 
सप्पत खाइ काल देवता 
लोकक घर जड़बैकाल मि‍त्ता 
ज्ञान आ ज्ञानी आ ज्ञानक प्रकाश सेहो हुनका कखनो ओझरीमे धऽ दै छन्हि: 
ज्ञानो भऽ जाइत अछि‍ गुलाम 
सांकृत्यायन पड़ै छथि‍ मोन घराम 
लहास जे अहाँकेँ बुझा पड़ैए सेहो आब बाजत: 
आब ओ बाजत 
बजैत-बजैत हँसत 
अहाँक कृति‍पर 
बनल संस्कृ़ति‍पर 

मंगल आ मंगला हुनकर कवितामे सेहो कएक ठाम आएल अछि। विवशताक प्रतीक अछि मंगला! 

कातमे ठाढ़ भऽ मंगला 
आगाँ… 

अपनाकेँ केलक एकोर 

तँ सुखाएल घाटक घटवारी मंगलापर देखू ओकर विवशता: 

सुखलौ घाटक लेतै खेबाइ 

नै देबै तँ देत ई रेबाड़ि।‍ 

सएह भेल मंगला घुरि‍ गेल 

पछि‍मे मुरि‍‍ गेल 

कवि कुम्हरौटक बिम्ब एना अनै छथि: 

काँच माटि‍क मूर्ति जहि‍ना 

ढाॅचा मात्र कहबैए। 

तहि‍ना तँ फूलोसँ बनल फल 

सि‍रखार मात्र कहबैए। 

आ वएह सि‍रखार ने आशा बान्हि ‍-बान्हिि‍ रौद-बसात सहैए 

आ अपने सन आर बटोही सेहो हिनका भेटि जाइ छन्हि: 

हमरे सन इहो सभ बटोही हराएल बाट बढ़ए चाहैए 

कविकेँ कोनो भ्रम नै छन्हि जे जेहने बाट चलब तेहने घाट भेटत आ तखन ओइ घाटपर पानि सेहो तेहने भेटत: 

जहि‍ना चलैक बाट होइ छै 

तहि‍ना तँ बुझैयोक बाट छै 

जेहेन जे बाट चलै छै 

तेहने घाट पहुँचै छै 

ई बाट आ विचार हुनकर एकटा आरो कवितामे अबैत अछि: 

वि‍चारक संग जँ चालि‍ रहल 

घाटपर जाइसँ कि‍यो नै रोकत 

आ नीक वा अधलाह बाट कियो केना धरैए, तहूपर हुनकर लेखनी चलै छन्हि: 

जेहने घरक लोक रहै छै 

घरक मुँहथरि‍ तेहने होइ छै। 

जेहने घरक मुँहथरि‍ रहै छै 

तेहने ने बाटो धड़ै छै 

आ ई बाट हुनकर पछोड़ गजलमे सेहो नै छोड़ै छन्हि: 

गोर मौगी गौरबे आन्हर भेलि‍ अड़ल 

करि‍या बाट बुझाइए चलू घुरि‍ चली 

ओ निराश कखनो नै होइ छथि: 

मरलेमे मारि‍ खा-खा 

मारल बुइध कहबै छी 

आ एकर कारण छै, ओ कहै छथि: 

जहि‍ना पबि‍ते अद्राक पानि‍ 

मुइलहो धार जीबै छै। 

भलहि‍ं जीतहा धार बीच 

तीन-मसुआ ओ कहबै छै 

आ ऐ आशा-आक्रोश आ निराशाक मध्य ओ लिखै छथि: 

छोड़ि‍ देने टूटि‍ जाएत समाज 

अपन उमेश जोड़तै तँ चहकतै लगैए ई‍। 

उमेश मण्डल जे किछु कहै छथि निश्तुकी कहै छथि, घुरछी, ओझरी सभटा चारू कात पसरल छन्हि। मुदा सोझराबै छथि, ओझराबै नै छथि। 

 --गजेन्द्र ठाकुर १९ मइ २०१२