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Friday, July 13, 2012

समीक्षा- जीवन-संघर्ष समीक्षक :: दुर्गानन्‍द मण्‍डल




मैथि‍ली साहि‍त्याकाशमे एकटा एहेन नक्षत्र जे अद्रा नक्षत्र जकाँ सुधी पाठककेँ सभ तरहेँ मनोरंजनसँ लऽ आदर्शवादी समाज, व्यक्ति‍‍, व्याक्तिक कुत्सिष्‍त एवं दमि‍त भावना, मनमे उठैत वि‍भि‍न्न प्रकारक समस्या आ ओकर नि‍दानक रूपमे भरि‍पोख मार्ग दर्शन करैत अछि‍, जीवन-संघर्ष। जीवन संघर्ष थि‍क आ संघर्षे जीवन। जौं जीवन अछि‍ आ जीवनमे संघर्ष नै तँ ओ जीवन जीवन नै। तहि‍ना जदी संघर्ष अछि‍ तँ ओ संघर्षे जीवन थि‍क। एक-दोसराक बि‍ना दुनू शब्द अक्षुण्न सन बुझना जाइत अछि‍। जीवन अछि‍ तँ संघर्षसँ अपने बचि‍ नै सकै छी आ जौं संघर्षेकेँ जीवन मानि‍ लेब जीवन थि‍क। अर्थात् जीवन-संघर्ष उपन्यास अपन संज्ञाक अनुसार आदि‍सँ अंत धरि‍ खड़ा उतरल अछि‍। सम्पूर्ण उपन्यासमे जे पात्र लोकनि‍ छथि‍ ओ कखनो संघर्षसँ अलग नै भऽ सकला अछि‍। जे संघर्षकेँ स्वीरकार कऽ लेलन्हि ‍ हुनका जीवनक लेल एक नै अनेको बाट स्वागतार्थ प्रकृति‍क संग नैसर्गिक सुख लऽ उपस्थित भेल।



उपन्यासकार एकटा लब्ध प्रति‍ष्ठित जाहुरी जकाँ वि‍भि‍न्न प्रकारक संघर्षकेँ जे देखौलन्हि तँ ओकर समाधानो तकबामे कतौ पाछाँ नै रहला। जीवनमे संघर्षक समाधाने तँ जीवनक अभि‍प्राय थि‍क। ऐ बातकेँ स्पष्ट‍ करबामे उपन्यासकार शत-प्रति‍शत सफल भेलाह। उपन्यासक आदि‍येमे उपन्यासकार बँसपुरा गामक एक गोट नववि‍वाहि‍त यौवना जे जीवनक आ यौवनक सुआद मात्र बुझने हेतीह। गामक सटले आयोजि‍त दुर्गापूजाक मेला देखए गेलीह। गनगनाइत मेला चहुओर लॉडस्पीकरक गगनभेदी आबाज चरि‍कोसि‍क नीन्न उड़ेने, गामक तीनटा लफुआ छौड़ा बहला-फुसला कऽ भनडार घर लऽ जा हुनका संग बलत्कार.....। समाजक सामंतवादी व्यवस्थाक ज्वलंत उदाहरण अछि‍। आखि‍र ऐ तरहक जे बेवस्थाक  हमरा समाजक बीच बाल-बच्चामे व्याप्त अछि‍ जे माए-बहि‍नक संग बलात्कारक संग प्रस्तुत हुअए तखन इज्जत केकर बँचि‍ पाओत? के इज्जतदार रहताह? एकटा प्रश्नचि‍न्ह छोड़बामे उपन्या्सकार पूर्णत: सफल भेलाह अछि‍।



समाजमे व्याप्त ई जे कुबेवस्था  अखनो अछि‍ नि‍श्तुकी ओ हमरा सभकेँ लज्जित करबामे कनि‍यो धोखा-धड़ी नै। जइसँ संभव अछि‍ जे समाजक ऐ कुबेवस्थासँ गाम-घरक धारमे पानि‍क बदला शोनि‍त बहए लागत। उपन्यासकारक उपन्‍यासक उदाहरणसँ स्पाष्ट जे पत्नी-बेटीक मुँहक बात सुनैत-सुनैत पति‍केँ कहलक- “जहि‍ना हमर बेटीक इज्जत सि‍सौनीबला लुटलक तहि‍ना सि‍सौनीक दुर्गास्थानमे मनुखक बलि‍ परत।”

मुदा बाह-रे उपन्यासकार! जखन सम्पूर्ण बँसपुराबला सि‍सौनीबलाकेँ कचरमबध कऽ लहाशक ढेरी आ शोनि‍तक बहबैले तैयार रणक लेल शंखनादक ध्वनि‍, लाठी, फरसा, ग्रांस लऽ मरै आ मारैले सि‍सौनी दि‍स बि‍दा भेल तखन गामक सभसँ बेसी उमेरक मनधन बाबा द्वारा रस्तापर चेन्ह दऽ ई कहब- “ऐ ढाँहि‍सँ जौं कि‍यो एक्को डेग पएर आगाँ बढ़ेबह तँ हम एत्ते प्राण गमा देब।”

मनधन बाबाक ई एक वाक्य, आगि‍मे पानि‍क काज केलक। सभ शान्त भऽ जाइ छथि‍।



तखन सि‍सौनी दुर्गापूजाक प्रति‍रूप बँसपुरामे कालीपूजा ठानल गेल। अध्य‍क्ष, उपाध्यक्ष चुनल गेलाह। एक्कैस आदमीक कमि‍टी बनाओल गेल। कोनो काज हुअए ओ सर्वसम्मपति‍सँ हुअए। ऐठाम उपन्यासकार सामाजि‍क सद्भावनाकेँ स्पष्ट करबामे शत-प्रति‍शत सफल भेलाह। जे उत्तर आधुनि‍क कालक मध्य‍ उन्नत समाजवादी दर्शनक कसौटीक झलक सहजहि‍ भेल। समाजकेँ आगाँ बढ़ेबामे दसगर्दा काज जरूरी अछि‍। जाधरि‍ लोकक मनमे दसनामा काजक प्रति‍ झुकाउ नै हेतैक ताधरि‍ समाज आगू मुँहेँ बढ़त केना? समाजेक बीच मंगल सन सोझमति‍या लोक अछि‍ तँ गणेश सन ठकहर सेहो। जइ संबंधमे उपन्यासकार कहए चाहैत छथि‍- “एक्के कुम्हारक बनाओल पनि‍पीबा घैल सेहो छी आ छुतहरो। मुदा देखैमे दुनू एक्के रंग होइ छै।”



उपन्यासकारक नजरि‍ लगि‍चाइत अमवसि‍या दि‍न साँझे दि‍वाली आ नि‍शा राति‍मे कालीपूजा। गाममे आएल धी-बहि‍नसँ बेसी साइरे-सरहोजि‍, तहूमे परदेशि‍या सारि‍-सरहोजि‍ आबि‍ कऽ गामक तँ रंगे बदलि‍ देलक। मेलाक लेल मुजफ्फरपुरसँ नाटक आ मेल-फि‍मेल कौव्वालीसँ लऽ महि‍सोंथाक नाचक आयोजनक संग वि‍भि‍न्न प्रकारक दोकान सभपर नजरि‍ सेहो छन्हि। मेलामे वि‍भि‍न्न प्रकारक दोकानक बीच, चेस्‍टरबला दोकान सेहो उपन्यानसकारक नजरि‍सँ नै बचि‍ सकल तँ दोसर दि‍स रमेसरा सन लोकक ई कथन- “धूर बूड़ि‍ दि‍ल्लीस तँ हौआ छि‍ऐ।”

अर्थात् पलायनवादी संस्कारकेँ चुनौती दैत गामेमे आयोजि‍त कालीपूजामे बाजार देखि‍ चारि‍-पाँच हजारक समान बनौलक। जे नोकर नै बनि‍ मालि‍क बनब! कतेक पैघ स्वाभि‍मानक परि‍चायक अछि‍? एवं प्रकारे वि‍भि‍न्न प्रकारक जाति‍ वि‍शेषसँ जुड़ल व्यवसायपर बल दऽ ग्रामीण उद्योगकेँ बढ़ाबा देलन्हि ,‍ जे सम्राज्‍यवादी प्रदुषणकेँ साफ करैत अछि‍।



ऐ प्रकारे उपन्यासक सार समस्त मि‍थि‍ला आ मैथि‍ल समाजक समस्याकक चि‍त्रण करै छथि‍। समाजक बीच व्याप्त वि‍भि‍न्न प्रकारक समस्या जे खाहे पलायनवादी होइ वा कि‍सान मजदूरक। सरकारी मसोमातक होइ वा सामाजि‍क मसोमातक। वि‍भि‍न्न प्रकारक जाति‍ वि‍शेषसँ जुड़ल व्‍यवसायसँ हुअए वा कोसी कहरक समस्या। हमरा समाजक बीच धर्मक आड़ि‍मे राजनैति‍क समस्या सभपर उपन्यासकारक दूर दृष्टि छन्हि। खास कऽ वि‍धवाक लेल कएल गेल प्रयासक पाछाँ बूझना जाइत अछि‍ जे उपन्यासकार कोनो-ने-कोनो रूपमे नायकक भूमि‍कामे होथि‍। चूँकि‍ वि‍धवाक समस्याकेँ एतेक लगसँ देखब आ ओतेक बढ़ि‍या समाधान नि‍कालब साधारण व्यक्तिक लेल संभब नै। अधंवि‍श्वासक आड़ि‍मे भगति‍ खेला केकरो शीलभंग करब आ जहल खटब, सेहो उपन्यासकारक नजरि‍सँ नै बचि‍ सकल। समाजेक मंगलक वि‍चार जोगि‍न्दारकेँ नीक लागब आ सामाजि‍क वि‍धवाक सहायताक उपाए करब, कि‍नको नीक लागि‍ सकैत अछि‍। एतबे नै, दुखनीक वि‍चारकेँ दुखनि‍येक शब्‍दमे उपन्यासकार लि‍खलन्हि- “हमहूँ तँ पाइयेबला ऐठीन रहलौं मुदा सभ सुख-सुवि‍धा रहि‍तो ओकरा एहेन नीन कहाँ होइ छै।'' देखै छी जे पेट खपटा जकाँ खलपट छै, भरि‍सक खेबो केने अछि‍ कि‍ नै। तखन जोगि‍न्दिर घुट्ठी हि‍लबैत बाजल-

“काकी, काकी....।” आ मोटरी खोलि‍ जोगि‍न्दनर जोर भरि‍ साड़ी, साया आ एकटा आंगीक संग दसटा दस टकही आगूमे राखि‍ देलक। ऐ तरहक समाजक दबल, कुचलक मसोमात वर्गक सेवाधारीक रूपमे हुनक यथार्थ सेवा भावना ओहि‍ना झलकि‍ रहल अछि‍, जे ओ कतेक पैघ समाजसेवी छथि‍।

ऐ तरहेँ उपन्यासक एक-एक पाँति‍ जीवन-संघर्षक सार्थकताकेँ प्रमाणि‍त करैत अछि‍। पाठककेँ उपन्यास- जीवन एकटा संघर्षक रूपमे बुझना जाइत अछि‍। प्रस्तुत उपन्यासमे सभ तरहक उदाहरण- हँसब, बाजब, कानब, मारि‍-पीट इत्यादि‍सँ लऽ नव उत्सा‍ह, नव चेतना आ नव दि‍शा भेटैत अछि‍। आन कोनो ओझराएल उपन्यासकार जकाँ जि‍नगीकेँ कोनो चौबट्टीपर नै छोड़ि‍ बल्कि एकटा नव सृजनात्मक रास्ता खोजि‍ पाठकक संग समाजोक लोककेँ देखौलन्हि अछि‍। जहि‍ना नदीक पानि‍ अपना जीवनमे अनेको उतार-चढ़ाबकेँ पार करैत अपन बाट अपने‍ बनबैत अछि‍ तहि‍ना प्रस्तुत उपन्यासमे उत्‍पन्न भेल समस्याक समाधान करैत समाजोकेँ एकटा प्रशस्त‍ मार्ग देखबैत नि‍र्विरोध आगाँ बढ़ल जा रहल अछि‍। उपन्यासमे एकटा समस्या नै अपि‍तु अनेको समस्या उपस्थित होइत अछि‍ मुदा ओइ समस्याक स्वत: बुधि‍-वि‍वेक द्वारा नि‍दान सेहो समस्येसँ नि‍कलैत अछि‍। समाजक सभ वर्ग चाहे ओ दुखनी हुअए आकि‍ पवि‍त्री, श्यामा हुअए आकि‍ तमोरि‍यावाली भौजी। नारीक एकटा सशक्त शक्तिक रूपमे देखा उपन्यासकार एकटा कृत केलन्हि ‍अछि‍। सम्पूर्ण उपन्याससमे उपन्यासकार मि‍थि‍ला समाजक सभ्यता एवं मान्यताकेँ देखाएब सेहो नै बि‍सरला अछि‍। मैथि‍ल बेटीक प्रेम माए-बापक प्रति‍ श्यामा द्वारा आनल गेल पाँच गो दलि‍पुरी, एक धारा चाउर, सेर तीनि‍येक खेसारी दालि‍, एकटा उदाहरण अछि‍। ओतबए नै, मसोमात दुखनीक बेटा भुखना द्वारा आनल रूपैयाक गड्डी देखि‍ ई बाजब आ सोचब-

“झाँपह-झाँपह नै तँ लोक सभ देखि‍ लेतह। आखि‍र ढहलेलो अछि‍ तँ बेटे छी कि‍ने।” मने-मन भगवानकेँ गोड़ लागि‍ बाजल- “भगवान केकरो अधलाह नै करै छथि‍न।”



उपन्याँस जेना-जेना आगाँ बढ़ैत अछि‍ सारगर्भित भेल जा रहल अछि‍। पाठक एकसूरे पढ़ैक लेल बाघ्य छथि‍। उपन्यासक मादे भोजनो-भातक धि‍यान नै रहि‍ जाइत अछि‍। अंत: उपन्यासक सारक रूपमे प्रोफेसर कमलनाथ द्वारा प्रस्तुत कथन-

“रतुका घटना दुखद भेल। मुदा ओ काल्हुक भेल। कालक तीन गति‍, भूत, वर्त्तमान आ भवि‍ष्य । जे समए बीत गेल वएह समए वर्त्तमान आ भवि‍ष्यक रास्ता देखबैत अछि‍। ढंगसँ एकरा बुझैक खगता अछि‍। दुखक भागब माने आएब भेल।”



ऐ प्रकारे जीवन-संघर्ष उपन्यास कल्पना नै अपि‍तु यथार्थपर आधारि‍त बुझना जाइत अछि‍। तँए अंतमे ई कहब जे आशाक संग जि‍नगीकेँ आगू मुँहेँ ठेलैत पहाड़पर चढ़ा अकाशमे फेक दि‍यौक। स्पष्ट अछि‍ जे जीवन संघर्ष थि‍क आ संघर्ष जीवन, अर्थात् जगदीश प्रसाद मण्डलक जीवन-संघर्ष। आ प्रकाशक छथि‍ नागेन्द्र कुमार झा जे मैथि‍ली साहि‍त्याकाशमे पोथी प्रकाशनक झंडा फहरा-फहरा कऽ बहुत कि‍छु कहि‍ रहल छथि‍‍। ऐ लेल श्रुति‍ प्रकाशनक संग उपन्यासकारकेँ सेहो दुर्गानन्द तरफसँ बहुत-बहुत साधुवाद।



ऐ रचनापर अपन मंतव्य ggajendra@videha.com पर पठाउ। 

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