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Saturday, April 7, 2012

सुभाष चन्द्र यादवक कथा संग्रह बनैत बिगड़ैत पर डॉ कैलाश कुमार मिश्र


श्री सुभाषचन्द्र यादव केर कथा संकलन आद्योपान्त पढ़लहुँ। लेखक महोदय अपन भावनाकेँ वेवाक रूपेँ प्रस्तुत कएने छथि। कथा पढ़ब तँ लागत जे केना एकटा निम्न-मध्यम-वर्गीय परिवारमे बढ़ल-पलल एक पढ़ल-लिखल मनुक्ख अपन जीवनक घटना, अनुभव आ सम्वेदनाक वर्णन अक्षरश: कऽ रहल अछि। परम्पराक नीक चीजसँ लेखक अपना-आपकें जोड़ने छथि आ परम्पराक पाखण्डिक विद्रोह करबामे कख़नो नहि हिचकिचाइत छथि। गाम, घर, परम्प रा, परिवेश, खेत, खरिहान, गामघरक आपसी कलह, समन्वय, कोसी नदीक कहर, सौन्दर्य, यात्रा वृतान्त आदिक वर्णन सोहनगर लगैत अछि। सुभाषजीक कथा-संग्रहकेँ हमरा जनैत दू दृष्टिकोण सँ विवेचित कएल जा सकैत अछि:

(क) भाषा विन्यास आ शब्दावलीक दृष्टिकोण सँ ,
(ख) कथा-वस्तुक दृष्टिकोण सँ।

आब उपरलिखित दृष्टिकोण पर विचार करी:
भाषा विन्या स आ शब्दावलीक दृष्टिकोण सँ कथाकार बड्ड प्रशंसनीय कार्य केलन्हि अछि। प्रकाशक सेहो एहि तरहक रचनाकेँ प्रकाशित कए एक नीक परम्पहराक प्रारम्भी केलन्हि अछि।
मैथिली भाषाक सब सँ पैघ समस्या , हमरा एकटा मानवविज्ञानक छात्र हेबाक नाते, ई बुझना जाइत अछि जे जखन ई भाषा लिखल जाइत अछि तँ किछु तथाकथित संस्कृातनिष्ठज ब्राह्मण एवं कायस्थत लोकनिक हाथक खेलौना बनि रहि जाइत अछि। अनेरे संस्कृतक शब्द केँ घुसा-घुसा भाषाकेँ दुरूह बना देल जाइत अछि। छोट जाति, एवं सर्वहाराक शब्दब, विन्यांस, व्यनवहार आदि केँ नजरअंदाज कऽ देल जाइत छैक। सही अर्थमे भाषा माटिक सुगन्ध, आ लोक परम्पवरासँ दूर भऽ जाइत अछि। सर्वहारा वर्गसँ कटि जाइत अछि। एहिना स्थितिमे छोट जाति, स्त्रीोगण आदि अपना-आप केँ भाषाक तागसँ बान्हिल नहि बुझैत छथि। भाषाक प्रति लोकक सिनेह कम भऽ जाइत छन्हि। बाजब धरि तँ ठीक परन्तु् पढ़ब आ लिखब परमपरासँ ई लोकनि अपन नाता समाप्त। कऽ लैत छथि।
मैथिली भाषाक समस्या केवल जाति अथवा समुदाय मात्रसँ नहि छैक। विभिन्नभ सांस्कृनतिक एवं भौगोलिक क्षेत्रक हिसाबे सेहो लोक भाषाकेँ ऊँच-नीच बुझैत छथि। सौराठ (मधुबनी) एवं सौराठ गामक चारु दिशामे पाँच कोस धरिमे उच्चत वर्गक लोकक द्वारा प्रयुक्तं मैथिलीकेँ सर्वाधिक नीक मैथिली , पुन: समस्तीछपुर सँ कनीक दक्षिण दिस आगू गेलाक बाद प्रयुक्तश मैथिलीकेँ निम्नँ श्रेणीक मैथिली बुझल जाइत अछि। दक्षिणमे जे मैथिली बाजल जाइत अछि, तकरा पंचकोसिला लोकनि दछिनाहा , पूबमे व्युवहरित मैथिलीकेँ पुवहा एवं पच्छिम, विशेष रूपसँ सीतामढ़ीमे प्रयुक्त मैथिलीकेँ पछिमाहा भाषा कहि ओकर अपमान करैत छथि।
एहि सभ कारणसँ कुजरा मुसलमान, तेली, सूरी, यादब, बनिया, कोइरी, धानुख आदि अपना आपकेँ मैथिली भाषाक बाजय वला नहि बुझैत छथि। दक्षिण, पच्छिम केर लोककेँ एहन बुझाइ छनि जेना ई लोकनि भाषाक मुख्याधारासँ अलग-थलग होथि। लोकविद्या अथवा फॉकलोर एतेक सम्पयन्नोा होइतो एहि क्षेत्रमे बहुत नीक स्थाेन बनाबयमे मिथिला एखन धरि असमर्थ रहल अछि।
नामकरणक उदाहरण जे ली तँ बुझायत जेना ब्राह्मण एवं कायस्थ् लोकनि संस्कृथतनिष्ठउ नामक प्रयोग करबाक पूरा ठेका लऽ लेने छथि। जरवन कि पंजाबी भाषाक उदाहरण बहुत उल्टा अछि। पंजाबी भाषामे नाम आदि, लोक एवं सामान्यर जनमानस केर हिसाबसँ निर्धारित होइत अछि। गुरु ग्रन्थधसाहेबकेँ एखनहुँ धरि गुरग्रन्थ साहेब, कहल जाइत अछि। स्मररण आइयो सिमरन थीक। फॉकलोर जाग्रत छैक। एकर परिणाम ई होइत छैक जे की स्त्रीण, की पुरुष, की छोट, की पैघ सभ जातिक लोक अपना आपकेँ भाषा, संस्काषर आ संस्कृकतिसँ जुड़ल बुझैत अछि। सब भाषाकेँ अपन हृदयसँ सटेने रहैत अछि।
अतेक सम्प न्नह फॉकलोर रहितहुँ, मिथिलाक फॉकलोरपर किछु विशेष कार्य नहि भऽ सकल अछि। सुभाषजीक कथा-संग्रह एक उल्लेाखनीय कदम थीक। एक तँ सुभाष जी पंचकोसिया नहि छथि आ दोसर ओ ब्राह्मण अथवा कर्ण कायस्थ सेहो नहि छथि। से अपन परिवेशक प्रयुक्त शब्द , वाक्य , परम्प रा, नाम आदिक वेवाक वर्णन कयलन्हि अछि। किताबक सब पन्ना पढ़ि लेलाक बाद अपन ठेठ गाम, गामक परम्पिरा, लोक परिवेश इत्या दि स्मनरण होबय लागत। लोकमे प्रयुक्तप खांटी देसी नाम जेना कि मुनिया, कुसेसर, उपिया, बिहारी, बौकू, सिबननन, रामसरन, रघुनी, नट्टा, नथुनी, बैजनाथ, सकुन आदि पाठककेँ एकाएक गामक ठेठ परिवेशमे मानसिक रूपसँ लऽ जाइत अछि। भाषा सेहो अग्गबब देसी। कुनो बनाबटीपन नहि। जेना सुभाषजी क्षेत्रक लोक बजैत अछि, तहिना ई लिखलन्हि अछि।
एहि तरहक यथार्थवादी परम्पभराक प्रारम्भ, केलासँ मैथिली साहित्यछ सम्पान्ने हैत। वेराइटी बनतैक। पाठकक संख्याप बढ़त। अनेरे संस्कृमतनिष्ठ बनि जेबाक कारण मैथिलीक पाठकक संख्याप लगभग शून्यम जकाँ अछि। स्थिति ई अछि जे लेखक एवं कवि लोकनि स्वभयं किताब छपा मुफ्त बाँटैत छथि। तैयो कियोक पढ़यबला नहि। वेबवर्ल्ड क विकास हेमाक कारणेँ किछु प्रवासी एवं मिथिलासँ बाहर रहनिहार मैथिल आब आइ काल्हि किछु सामग्रीकेँ सर्फ कय देखि लैत छथि। हालांकि इहो लोकनि सब सामग्री मैथिलीमे लिखल पढ़ैत नहि छथि। हिनका सबमे अधिकाधिक लोक अपन कथ्य अंग्रेजीमे व्यखक्त करैत छथि।
सुभाषजी जकाँ अगर आरो लेखक, कवि इत्याेदि आगाँ आबथि तँ यथार्थवादी परम्पजरा समृद्ध हैत। मैथिलीमे नव-नव शब्दा वली विकसित हैत। सब क्षेत्र, सम्प्रीदाय, जाति, वर्गक लोक मैथिलीक संग सिनेह करताह। मैथिली पढ़बाक प्रति जाग्रत हेताह। कोसी, कमला, जीबछ, करेत, गंडक, बूढ़ी गंडक आ गंगाक बीच संगम हैत। मैथिली किछु विशेष केर हाथक खेलौनासँ ऊपर उठि सर्वहाराक भाषा बनत।
आब सुभाषजीक कथा-संग्रहक कथा-वस्तुो पर कनी विचार करब जरूरी। कथा-वस्तुाक दृष्टियें सेहो लेखक अपन परिवेशसँ बान्हरल छथि। कथा सभमे लेखककेँ परम्पसराक नीक तत्वक प्रति सिनेह, पाखण्डबक प्रति विद्रोह, एक निम्नल-मध्यकम वर्गक बेरोजगार शिक्षित युवक केर फ्रर्स्टेिशन, एक युवकक सुन्द र नायिकाक प्रति आकर्षण, कोसीक कहर, गाममे परिवर्तन केर प्रवाह, गामक समस्याँ, यात्रा-वृतान्तो, मोनक अन्तःवद्वन्द, सुन्दसरता आ सुन्दधरताक प्रति मृगतृष्णा आदिक मनोवैज्ञानिक आ सहज वर्णन भेटत।
‘‘बनैत बिगड़ैत’’ कथामे माए-बापक मनोदशा, जकर संतान बाहर रहैत छैक, नीक वर्णन कएल गेल छैक। कथाक मुख्य्पात्र माला टाँहि-टाहि करैत कौवाक आवाजसँ डरैत अछि। ओकरा हकार दैत उड़बै चाहैत छैक। लेकिन ‘‘टोकारा आ थपड़ी सँ नै उड़ै छै तऽ माला कार कौवा के सरापय लागै छै — “बज्जटर खसौ, भागबो ने करै छै”।
परदेसमे रहि रहल संतान सबहिक प्रति मालाक मनोदशा लेखक किछु ऐना लिखैत छथि:
कौका कखनियें सँ ने काँव-काँव के टाहि लगेने छै। कौवाक टाहि सँ मालाक कलेजा धक सिन उठै छै। संतान सब परदेस रहै छै। नै जानि ककरा की भेलैक! ने चिट्ठी-पतरी दै छै, ने कहियो खोज-पुछारि करै छै। कते दिन भऽ गेलै। कुशल समाचार लय जी औनाइत रहै छै। लेकिन ओकरा सब लेखे धन सन। माय-बाप मरलै की जीलै तै सँ कोनो मतलब नै।
“हे भगवान, तूही रच्छा करिहबु। हाह। हाह।”—
माला कौवा संगे मनक शंका आ बलाय भगाबय चाहै छै।”

आ मालाक बात पर हमरा जनैत लेखक सत्तोंक माध्य मसँ अपन विस्म य व्याक्तब करैत छथि। मायक मनोविज्ञानक तहमे जयबाक प्रयत्ने करैत छथि:
माला सब बेर अहिना करै छै। सत्तो लाख बुझेलक बात जाइते नै छै। कतेक मामला मे तऽ सत्तो टोकितो नहि छैक। कोय परदेस जाय लागल तऽ माला लोटा मे पानि भरि देहरी पर राखि देलक। जाय काल कोय छीक देलक तऽ गेनिहार केँ कनी काल रोकने रहल। अइ सब सँ माला केँ संतोख होइ छै, तै सन्तोंि नै टोकै छै। ओकरा होइ छै टोकला सँ की फैदा ? ई सब तऽ मालाक खूनमे मिल गेल छै। संस्काटर बनि गेल छै।
सन्तो्केँ छगुन्ताक होइ छै। यैह माला कहियो अपन बेटा–पुतौह आ पोती सँ तंग भऽ कऽ चाहैत रहै जे ओ सब कखैन ने चैल जाय । रटना लागल रहै जे मोटरी नीक, बच्चा नै नीक। सैह माला अखैन संतान खातिर कते चिंतित छै।”
अही तरहें अपन खिस्साब ‘कनियाँ-पुतरा’ मे लेखक ट्रेनमे ठाढि़ एक बारह बर्षक लड़की आ लड़कीक निश्छल व्यखवहारसँ आत्मविभोर भय, लड़की सँ एहन सम्बकन्ध़ बना लैत छथि जेना जो लड़कीक भाय अथवा पिता होथि। ट्रेनक व भीर भरल बोगीमे ठाढि़ लड़कीक छाती जखन कथाक सुत्रधारक हाथ सँ सटैत छैक तँ लड़कीक निर्विकार मुद्रासँ एना बुझना जाइत छैक जेना ‘ ऊ ककरो आन संगे नै, बाप-दादा या भाय-बहीन सँ सटल हो।’
लड़कीक भविष्यपर लेखक द्रवित होइत सूत्रधारक माध्य मसँ सोचय लगैत छथि : “ओकर जोबन फुइट रहल छै। ओकरा दिस ताकैत हम कल्पोना कऽ रहल छी। अइ लड़कीक अनमोल जोबनक की हेतै? सीता बनत की दरोपदी ? ओकरा के बचेतै ? हमरा राबन आ दुरजोधनक आशंका धेरने जा रहल ऐछ।”
‘ओ लड़की’ नामक कथामे सुभाष बाबू निम्न वर्गीय दब्बूडपनीक मनोदशाक वर्णन करैत छथि। जखन एक आधुनिका अपन हाथक ऐँठ पात्र नवीनकेँ थमाबय चाहैत छैक, तँ सूत्रधार बाजि उठैत अछि:
“सवाल खतम होइते नवीनक नजरि लड़कीक चेहरा सँ उतरि के ओकर हाथक कप पर चलि गेलै आ ओ अपमान सँ तिलमिला गेल। ओकरा भीतर क्रोध आ धृणाक धधरा उठलै। की ओ ओहि दुनूक अँइठ कप ल’ जायत ? लड़कीक नेत बुझिते ओ जवाब देलकै — ‘नो’। ओकर आवाज बहुत तेज आ कड़ा रहै आ मुँह लाल भ’ गेल रहै। ओकरा ओहि बातक खौंझ हुअए लगलै जे ओकर जवाब एहन गुलगुल आ पिलपिल किए भ’ गेलै। ओ कियैक नहिं कहि सकलै -हाउ डिड यू डेयर?’ तोहर ई मजाल ! मुदा ओ कहि नहिं सकलै। साइत निम्नवर्गीय दब्बूेपनी आ संस्काुर ओकरा रोकि लेलकै।”
- डॉo कैलाश कुमार मिश्र
(कैलाश जी इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्रमे स्कॉलर छथि आ कतेक प्रदेशमे मानवशास्त्रीय फील्डवर्कक क्रममे घूमल छथि। फॉक म्युजिक ऑफ मिथिलापर पी. एच.डी. छथि आ मिथिला चित्रकलापर हिनकर आलेख एहि विषयपर सभसँ नीक प्रबन्ध मानल जाइत अछि।)

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