भारोपीय भाषा
परिवार मध्य मैथिलीक स्थान
भाषाक पारिवारिक
वर्गीकरण ऐतिहासिक आधारपर होइत अछि, जाहिमे भाषाक इतिहास, एक भाषाक दोसर भाषासँ
उत्पत्ति, भाषाक आकृति-प्रकृति माने रचनात्मकताक संग अर्थ-तत्त्वपर सेहो ध्यान देल
जाइत अछि। जेना कोनो व्यक्ति वा समूह बीजीपुरुषक संकल्पना करैत अछि आ ओतएसँ अपना
धरि एकटा वंशवृक्षक निर्माण करैत अछि, तहिना भाषाक इतिहासक लेखक सेहो आदि, मध्य आ
आधुनिक कालक आधारपर भाषाक पूर्ववर्ती आ बीज भाषाक संकल्पना सोझाँ अनैत छथि। मुदा
भाषाक इतिहासमे पुत्री आ बहिन भाषाक संकल्पना सेहो एहि तरहेँ सोझाँ अबैत अछि।
मैथिलीक भारोपीय
भाषा परिवारमे स्थान
स्थान, शब्द,
व्याकरण आ ध्वनिक आधारपर भाषा एक-दोसरासँ लग होइत अछि। मुदा एहि मध्य किछु अपवाद
सेहो अछि। अवेस्ता, अंग्रेजी आ जर्मन भाषा मैथिलीसँ भौगोलिक रूपसँ दूर रहलोपर
एक्के परिवारक अछि, मुदा अरबी, तमिल आदि सापेक्ष रूपेँ भौगोलिक निकटता अछैत दोसर
परिवारक अछि।
फेर भाषा स्थित
आयातित विदेशज शब्दावलीक आधारपर हम एक भाषाकेँ दोसर भाषाक परिवारक सिद्ध नहि कऽ
सकै छी। तहिना ध्वनिमूलक आ शब्दमूलक अर्थक साम्य सेहो दू भाषा परिवारकेँ एक वर्गमे
नहि आनि सकैत अछि, जेना संस्कृतक जाल्म आ अरबीक जालिम -शब्दमूलक साम्य वा मैथिलीक
मियाऊँ आ चीनी मन्दारिन भाषाक म्याऊँ (बिलाड़ि)- ध्वनिमूलक साम्य।
ध्वनिक साम्यमे
सेहो कखनो काल गड़बड़ी होइत अछि, जेना मैथिलीमे ड़, ढ़ आ चन्द्रबिन्दुक खूब प्रयोग
होइत अछि मुदा ई तीनू ध्वनि संस्कृतमे नहि अछि।
भौगोलिक आधारपर
सेहो “भारोपीय भाषा” ई नामकरण पूर्ण रूपसँ समीचीन नहि अछि, कारण सम्पूर्ण भारतमे
भारोपीय भाषा परिवारक उपस्थिति नहि अछि आ भारतमे भारोपीय भाषाक अतिरिक्त आनो भाषा
परिवारक उपस्थिति अछि। यूरोपमे सेहो काकेशियन आदि भाषा परिवार भारोपीय भाषा
परिवारमे नहि अबैत अछि।
व्याकरण साम्यक
आधार दू भाषाकेँ एक परिवारमे रखबाक सभसँ सुदृढ़ आधार अछि।
मूल रूपसँ
भारोपीय परिवारक भाषामे प्रत्ययक प्रयोग खूब होइत अछि आ धातुमे प्रत्यय जोड़ि शब्द
बनैत अछि। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग आ नपुंसक लिंग, ई तीन तरहक लिंग अछि तँ एकवचन,
द्विवचन आ बहुवचन एहि तीन तरहक वचन। मुदा आब अधिकांश भाषामे एकवचन आ बहुवचन यैह
दूटा वचन होइत अछि। जाहि क्रियाक फल स्वयं प्राप्त हो से आत्मनेपदी आ जकर फल
दोसरकेँ भेटए से परस्मैपदी, ई दू तरहक क्रिया भारोपीय भाषमे रहैत अछि। समासक
प्रयोग सेहो मोटा-मोटी भारोपीय भाषाक विशेषता अछि।
भारोपीय परिवारक
दू भेद अछि। सए (१००) लेल प्रयुक्त मूल भारोपीय शब्द “क्मतोम” दू तरहेँ बाजल जाइत
अछि। संस्कृतमे “शतम्” आ लैटिनमे “केन्टुम्”। एहि आधारपर संस्कृतसँ लग भाषा समूह
अवेस्ता (भाषा आ ग्रंथ दुनूक नाम, जेन्द-अवेस्ता- ओहिपर भाष्य), फारसी, मैथिली,
रूसी आदि अबैत अछि। केन्टुम् वर्गमे लैटिनसँ लग भाषा जेना ग्रीक, जर्मन, फ्रेंच,
इटालियन आदि अबैत अछि।
शतम् वर्गमे
भारत-इरानी (वा इन्डो आर्यन), बाल्टो-स्लाविक, आर्मीनी आ इलीरी भाषा समूह अबैत
अछि।
इन्डो आर्यन वा
भारतीय-ईरानी भाषा समूहमे ऋगवेद सभसँ प्राचीन अछि। जोराष्ट्रियन धर्मक अवेस्ता
ग्रन्थ जे वैदिक कालक अछि ओ अवेस्ता भाषाक ग्रन्थ अछि। ईरानी भाषा समूहमे अवेस्ता,
प्राचीन फारसी, पहलवी, पश्तो, बलूची आ कुर्द भाषा प्रमुख अछि। भारतीय आर्यभाषा
समूहमे वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पाली (प्राचीन प्राकृत ५००. ई.पू.सँ १००
ई.पू. धरि), प्राकृत (मध्य प्राकृत १०० ई.पू. सँ ५०० ई. धरि), अपभ्रंश (५०० ई. सँ
९०० ई. धरि) आ अवहट्ट (९०० ई. सँ ११०० ई. धरि) आ तकर बाद मागधी प्राकृतसँ मैथिली,
बंगला, ओड़िया, असमी आदि भाषा (११०० ई. सँ) अबैत अछि।
विश्वक भाषाक
पारिवारिक वर्ग
(अ)
यूरेशिया,
(आ)अफ्रीका, (इ)प्रशान्त महासागरक क्षेत्र (पैसिफिक), (ई)अमेरिका
(अ)
यूरेशिया-
(क)भारोपीय, (ख)द्राविड़, (ग)बुरुशस्की, (घ)काकेशी, (ङ)यूराल-अल्ताई, (च)चीनी,
(छ)जापानी-कोरियाई, (ज)हाइपरबोरी, (झ)बास्क, (ञ)सेमीटिक-हेमिटिक- अफ्रीकामे
(क)भारोपीय- (i) इन्डो आर्यन, (ii)बाल्टो-स्लाविक,
(iii)आर्मीनियन, (iv) इलीरी, (v)ग्रीक, (vi)केल्टिक, (vii)जर्मानिक, (viii)इटालिक, (ix)हित्ती, (x)तोखारी
(i) इन्डो आर्यन- (a)भारतीय आर्यभाषा, (b)ईरानी
(a)भारतीय आर्यभाषा
(A)प्राचीन भारतीय
आर्यभाषा (२५०० ई.पू.सँ ५०० ई. पू.)
(B)मध्यकालीन
भारतीय आर्यभाषा (५०० ई.पू.सँ १००० ई.)
(C)आधुनिक भारतीय
आर्यभाषा(१००० ई. सँ आइ धरि)
(A)प्राचीन भारतीय
आर्यभाषा (२५०० ई.पू.सँ ५०० ई. पू.)- वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत (बाल्मीकि -
“मानुषिमिह संस्कृताम्”- संस्कृत आ मानुषी दुनू भाषा।)
(B)मध्यकालीन
भारतीय आर्यभाषा (५०० ई.पू.सँ १००० ई.)- पहिल प्राकृत (पाली), दोसर प्राकृत (साहित्यिक
प्राकृत- शौरसेनी, महाराष्ट्री, मागधी, अर्द्धमागधी, पैशाची, ब्राचड, खस), तेसर
प्राकृत (अपभ्रंश- प्रथमे-प्रथम व्याडि आ पतंजलि द्वारा उल्लेख।)
(C)आधुनिक भारतीय
आर्यभाषा(१००० ई. सँ आइ धरि) (अ) शौरसेनीसँ खड़ी बोली, व्रजभाषा, बाँगरू,
कन्नौजी, बुन्देली, मारवाड़ी, जयपुरी, मालवी, मेवाती, गुजराती (आ)महाराष्ट्रीसँ
मराठी, कोंकणी, नागपुरी, बरारी (इ) मागधीसँ भोजपुरी, मगही, बांगला, ओड़िया,
असमी, मैथिली (ई) अर्धमागधीसँ अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी (उ) पैशाचीसँ
लहँदी (ऊ) ब्राचडसँ सिन्धी, पंजाबी (ए) खससँ पहाड़ी भाषाक विकास रेखांकित
होइत अछि।
बाल्मीकि द्वारा
सुन्दरकाण्डमे मानुषिमिह संस्कृताम्- संस्कृत आ मानुषी दुनू भाषाक ज्ञान
हनुमानजीसँ कहबाओल गेल अछि। ज्योतिरीश्वर- “पुनु कइसन भाट- संस्कृत, पराकृत, अवहठ,
पैशाची, सौरसेनी, मागधी छहु भाषाक तत्वज्ञ” संगहि ज्योतिरीश्वर द्वारा सात “उपभाषक”
चर्च भेल अछि। प्राकृतक कैकटा प्रकार छल। ओहिमे मागधी प्राकृत मैथिली आ अन्य
पूर्वी भारतक भाषाक विकासमे योगदान देलक। अर्धमागधीमे जैन धर्मग्रन्थ आ पालीमे
बौद्ध धर्मग्रन्थ लिखल गेल। कालिदासक संस्कृत नाटकमे संस्कृतक अतिरिक्त अपभ्रंशक
प्रयोग गएर अभिजात्य वर्गक लेल प्रयुक्त भेल तँ चर्यापदक भाषा सेहो मागधी मिश्रित
अपभ्रंश छल। मैथिली सहित आन आधुनिक भारतीय आर्यभाषा दोसर प्राकृतसँ विकसित भेल
सेहो देखि पड़ैत अछि। अपभ्रंश परवर्ती
कालमे पूर्वी भारतमे अवहट्टक रूप लेलक। मैथिलीक विशेषता जाहिमे एकर सभ शब्दक
स्वरांत होएब, क्रियारूपक जटिल होएब (मुदा ताहिमे लैंगिक भेद नहि होएब), सर्वनामक
सम्बन्ध कारक रूप आदिक रूपरेखा अवहट्टमे दृष्टिगोचर होएब शुरू भऽ गेल छल। ऐतिहासिक आधारपर भाषाक पारिवारिक वर्गीकरणमे अवहट्ट
(अवहट्ठ) केँ “मैथिल अपभ्रंश” ताहि कारणसँ कहल जाइत अछि आ मागधी प्राकृतसँ सेहो
एकर विकास दृष्टिगोचर होइत अछि। अवहट्ठ मैथिलीसँ लग रहितो शौरसेनी
प्राकृत-अपभ्रंशसँ सेहो लग अछि, मुदा देशी शब्दक प्रयोगसँ एहिमे अपभ्रंशसँ बहुत
रास व्याकरणिक परिवर्तन देखा पड़ैत अछि। विद्यापतिक “कीर्तिलता” अवहट्ठमे अछि, मुदा
“चर्या गीत” आ “वर्ण रत्नाकर” कीर्तिलतासँ पूर्ववर्ती होएबाक बादो पुरान मैथिली
अछि आ अवहट्ठसँ सेहो लग अछि। दामोदर पंडितक
“उक्ति व्यक्ति प्रकरण” सेहो
कीर्तिलतासँ पूर्ववर्ती अछि मुदा पुरान अवधी आ पुरान कोशलीक प्रतिमान प्रस्तुत
करैत अछि आ अवहट्ठसँ लग अछि। भारोपीय भाषा परिवारमे मैथिलीक स्थान मोटा-मोटी
संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आ अवहट्ठक ऐतिहासिक क्रममे अबैत अछि।
मैथिली वा कोनो
भाषाक उत्पत्तिक मूलमे मनुक्खक मुँहसँ बहराएल ध्वनि आ ओहि ध्वनिक अर्थ कोनो वस्तु,
व्यक्ति वा विचारसँ होएब सिद्ध होएत। ध्वनि तँ चिड़ै, चुनमुनी, माल-जाल आ बौक
व्यक्ति द्वार सेहो उत्पन्न होइत अछि मुदा से अर्थपूर्ण नहि भऽ पबैए आ भाषाक
निर्माण नहि कऽ पबैए।
१८६६ ई. मे
पेरिसमे “ला सोसिएते द लिंग्विस्टीक” नाम्ना संस्था भाषाक उत्पत्ति आ विश्वक भाषा
सभक निर्माण” एहि विषयकेँ अपन कार्यकारिणीसँ हटा देलक कारण एहि विषयक विवेचन
अनुमानपर अधारित होएबाक कारणसँ वैज्ञानिक दृष्टिकोणसँ दूर रहैत अछि।
वैदिक संस्कृतसँ
लौकिक संस्कृत आ ओहिसँ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट आ मैथिलीक क्रम ताकल जा
सकैत अछि। मुदा वैदिक संस्कृतक प्राचीनतम ग्रन्थ ऋगवेदसँ पहिनेसँ ओ भाषा
अस्तित्वमे रहल होएत। कतेक मौखिक साहित्य जेना गाथा, नाराशंसी, दैवत कथा आ आख्यान
सभ ओहिमे रचल गेल होएत। एहने गाथा सभक गायकक लेल “गाथिन”, “गातुविद्” आ “गाथपति”
ऋगवेदमे प्रयुक्त भेल। वैदिक संस्कृतक उत्पत्ति दैवी रूपमे भेल वा आंगिक-वाक
संकेतक संप्रेषणीयता बढ़ेबाक लेल से मात्र अनुमानेक विषय भऽ सकैत अछि। भाषामे
ध्वनि, शब्द, पद, वाक्य आ अर्थक परिवर्तन भेलासँ वैदिकसँ लौकिक संस्कृत बहराएल आ
फेर पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट आ मैथिली। पाणिनी द्वारा भारतक विभिन्न
क्षेत्रसँ लेल शब्दावली लौकिक संस्कृतकेँ ततेक समृद्ध कएलक जे ओहिसँ आन सभ भाषाक कतेको
तरहक रूप बहार भेल। कतेक तरहक क्षेत्रीय प्राकृत आ अपभ्रंश ओहि भौगोलिक क्षेत्रक
विस्तारकेँ लैत बहार भेल आ ओहिसँ आजुक आधुनिक भारतीय आर्य भाषा सभक उत्पत्ति भेल।
मैथिली भारोपीय
भाषा परिवारसँ सम्बन्धित अछि। भारोपीय भाषा परिवारक भीतर विश्वक लगभग चालीस प्रतिशत
जनसंख्या अबैत अछि। ई सभसँ पैघ भाषा परिवार अछि, सभसँ समृद्ध सेहो। मोटा-मोटी एकर
दू विभाग छैक, पहिल यूरोपक आर्य भाषा आ दोसर भारत-ईरानी शाखा। भारत-ईरानी
आर्यभाषाक भीतर ईरानी, दरद आ भारतीय आर्यभाषा अबैत अछि। दरद भाषामे कश्मीरी आ
पामीर पठारक पूर्व दक्षिणक भाषा सभ अछि। मैथिली भाषाक उद्गम आ विकास भारतीय
आर्यभाषाक भीतर ताकल जाइत अछि।
भाषाक उद्गम तँ
अनुमानक विषय थिक। भाषाक उद्गमक आ तकर प्रयोगक कतेक वर्षक पश्चात् ओहिमे साहित्य
रचना होइत अछि। तखन जा कऽ ओकर रूप स्थिर होइत अछि। वैदिक संस्कृतक प्राचीनतम
ग्रन्थ ऋगवेद, लौककिक संस्कृतक प्राचीनतम ग्रन्थ वाल्मीकि रामायण, पालि भाषाक
प्राचीनतम ग्रन्थ बुद्ध त्रिपिटक, प्राकृतक प्राचीनतम ग्रन्थ विमल सूरिक पउमचरिउ,
अपभ्रंशक प्राचीनतम ग्रन्थ यूगीन्द्रक परमात्म प्रकाश अछि। आदि मैथिलीक प्राचीन
साहित्य सिद्ध साहित्य, बौद्धगान आ ज्योतिरीश्वरक वर्ण रत्नाकर अछि। सिद्ध सरहपाद 700-780 सरहपाद-“सिद्धिरत्थु मइ
पढ़मे पढ़िअउ ,मण्ड पिबन्तोँ बिसरउ एमइउ”।मिथिलामे
अक्षरारम्भ सिद्धिरस्तु (गणेशजीक अंकुश आँजी) सँ होइत अछि। मिथिलामे ई धारणा अछि जे माँड़ पीलासँ स्मरण
शक्ति क्षीण होइत अछि। दोसर उदाहरण- बलद बियायल गबैया बाँझे- बड़द बिया गेल आ गाए
बाँझे अछि।
मध्यकालीन
मैथिलीक ग्रन्थ विद्यापतिक मैथिली साहित्य आ तकर बाद चतुर चतुर्भुज, शंकरदेव,
विभिन्न मल्ल नरेश द्वारा रचित साहित्य, कीर्तनिया आ अंकिया नाटसँ मनबोध धरि अबैत
अछि। आधुनिक मैथिली साहित्य चन्दा झासँ प्रारम्भ होइत अछि।
प्राचीन भारतक
आर्यभाषाक क्षेत्र वैदिक संस्कृतक प्राचीनतम ग्रन्थ ऋगवेदमे वर्णित धार सभक आधारपर
निर्धारित कएल जा सकैत अछि आ एकर प्रसार कोना आन क्षेत्रमे भेल सेहो एहिसँ
निर्धारित होइत अछि। ऋगवैदिक आर्य “सप्त सन्धव” माने सात धारक क्षेत्रमे रहैत छलाह-
ई सात धार छल वितस्ता, अश्किनी, परुष्णी, शतुद्रु, विपाशा, क्रुमु आ गोमती। एहिमे
पहिल पाँचटा धार पंजाबक आ शेष दूटा अफगानिस्तानमे बहैत छल। ई सातो धार ऋगवेद कालक
सभसँ उपयोगी धार सिन्धुक सहायक छल। ऋगवेदमे सरस्वती धारक वर्णन “धार सभ माय”क
रूपमे भेल अछि। ऋगवेदमे यमुनाक दू बेर आ गंगाक एक बेर वर्णन अछि। ऋगवेदक दसम
मण्डलमे “धारक स्तुति” मे सिन्धु आ सप्तसैन्धवक स्तुति भेल अछि। ओइ
कालमे पुरु, अनु, द्रुह्य, यदु आ तुर्वस नाम्ना पंचजन बसैत छलाह। क्रिवि,
त्रित्सु, सेहो ओहि कालमे छलाह। पुरु आ सभसँ शक्तिवान भरत कबीला मिलि बादमे कुरु
कबीला बनल। भरत कबीला दाशराज्ञ युद्धमे पाँच आर्य आ पाँच अनार्य कबीलाक संगठनकेँ
हरेलक, जाहिमे भरतक पुरहित वशिष्ठ रहथि आ पाँच आर्य आ पाँच अनार्य (दस्यु) कबीलाक
संगठनक पुरहित रहथि विश्वामित्र। बोगजकोई एशिया माइनरमे हित्ती शासकक १४म शती
ई.पू.क उत्कीर्णित अभिलेखमे इन्द्र, दशरथ, अर्त्ततम आदि राजाक, इन्द्र, वरुण,
नासत्य, आदि देवताक उल्लेख अछि। यजुर्वेदक प्रचलित संहिता वाजसनेयी आ सामवेदक
संहिता कौथुम, सामवेदक आरण्यक आ उपनिषद छान्दोग्यक आधारपर मिथिलामे ब्राह्मणक
वाजसनेयी आ छान्दोग्यमे उर्ध्वाधर विभाजन एखन धरि अछि। यजुर्वेदमे विदेहक वर्णन
अछि तँ ऋगवेदमे वैदिक जनकक (सीताक पिता सीरध्वज जनक पछाति भेलाह।)
'वैदेह राजा' ऋगवेदिक कालक
नमी सप्याक नामसँ छलाह, यज्ञ करैत सदेह स्वर्ग गेलाह, ऋगवेदमे वर्णन
अछि। ओ इन्द्रक संग देलन्हि असुर नमुचीक विरुद्ध आ ताहिमे इन्द्र हुनका
बचओलन्हि।शतपथ ब्राह्मणक विदेघमाथव आ पुराणक निमि दुनू गोटेक पुरोहित गौतम छथि से
दुनू एके छथि आ एतएसँ विदेह राज्यक प्रारम्भ। माथवक पुरहित गौतम मित्रविन्द यज्ञक/ बलिक प्रारम्भ
कएलन्हि आ पुनः एकर पुनःस्थापना भेल महाजनक-२ क समयमे याज्ञवल्क्य द्वारा। निमि गौतमक आश्रमक लग जयन्त
आ मिथि -जिनका मिथिला
नामसँ सेहो सोर कएल जाइत छन्हि, मिथिला नगरक निर्माण कएलन्हि। निमीक जयन्तपुर वर्तमान जनकपुरमे छल, मिथीक
मिथिलानगरीक स्थान एखन धरि निर्धारित नहि भए सकल अछि, अनुमानित अछि
जनकपुरक लग । ’सीरध्वज जनक’ सीताक पिता छथि
आ एतयसँ मिथिलाक राजाक सुदृढ़ परम्परा देखबामे अबैत अछि। ’कृति जनक’ सीरध्वजक बादक 18म पुस्तमे भेल
छलाह। कृति हिरण्यनाभक पुत्र छलाह आ जनक बहुलाश्वक पुत्र छलाह। याज्ञवलक्य
हिरण्याभक शिष्य छलाह, हुनकासँ योगक शिक्षा लेने छलाह। कराल जनक द्वारा एकटा
ब्राह्मण युवतीक शील-अपहरणक प्रयास भेल आ जनक राजवंश समाप्त भए गेल (संदर्भ अश्वघोष-बुद्धचरित आ
कौटिल्य-अर्थशास्त्र)।अर्थशास्त्रमे(१.६ विनयाधिकारिके
प्रथमाधिकरणे षडोऽध्यायः इन्द्रियजये अरिषड्वर्गत्यागः) कराल जनकक पतनक
सेहो चर्चा अछि। तद्विरुद्धवृत्तिरवश्येन्द्रियश्चातुरन्तोऽपि राजा सद्यो विनश्यति- यथा दाण्डक्यो
नाम भोजः कामाद् ब्राह्मण कन्यायमभिमन्यमानः सबन्धराष्ट्रो विननाश करालश्च वैदेहः,...।
वैदिक संस्कृतक
कालमे आर्य सप्तसन्धवसँ विदेह धरि आबि गेल छलाह। अनार्य (दस्यु)सँ ओही कालमे हुनकर
सम्पर्क भऽ गेल छल आ शाब्दिक आदान-प्रदान सेहो भऽ गेल छल। यजुर्वेदमे बादमे
अथर्ववेदमे ई आदान-प्रदान दृष्टिगोचर होइत अछि। अनार्य (दस्यु) आ व्रात्य
(अनार्यसँ आर्य बनल जाति) दुनुक भाषा सप्तसैन्धव आर्यक भाषासँ मिलि गेल आ पुबरिया
आ आन क्षेत्रीय बसात लगलासँ वैदिक संस्कृत लौकिक संस्कृतमे बदलि गेल। निरुक्तक समयमे
सेहो वैदिक शब्दावली कठिन भऽ गेल छल, ओकर उत्पत्तिपर विवेचन शुरू भऽ गेल छल।
पाणिनीक भाषा पुबरिया, दछिनबरिया, पछबरिया आ उत्तरबरिया सभ क्षेत्रक दस्यु आ
व्रात्य भाषाक शब्दावलीकेँ समाहित कऽ बनल छल। ई संस्कारित भाषा बादक लोक मध्य
संस्कृतक रूपमे विख्यात भेल। पाणिनी लौकिक संस्कृतकेँ जेना “भाषा” कहलन्हि, तहिना
यास्क आ पाणिनी वैदिक संस्कृतकेँ “छन्दस्”। यैह छन्दस् अवेस्ता भाषाक भाष्य लेल
जेन्द (छन्द) कहल गेल।
संस्कृत,
प्राकृत, अवहट्ट, मैथिली
१. संस्कृत
देवनागरीक अतिरिक्त्त समस्त उत्तर भारतीय भाषा नेपाल आ
दक्षिणक (तमिलकेँ छोड़ि) सभ भाषा वर्णमालाक रूपमे स्वर आ कचटतप आ य, र ल व, श, स, ह क वर्णमालाक
उपयोग करैत अछि। ग्वाङ हेतु संस्कृतमे दोसर वर्ण छैक (छान्दोग्य परम्परामे एकर
उच्चारण नहि होइत अछि छथि मुदा वाजसनेयी परम्परामे खूब होइत अछि- जेना छान्दोग्य
उच्चारण सभूमि तँ वाजसनेयी उच्चारण सभूमीग्वंङ), ई ह्रस्व दीर्घ
दुनू होइत अछि। सिद्धिरस्तु लेल सेहो कमसँ कम छह प्रकारक वर्ण मिथिलाक्षरमे
प्रयुक्त होइत अछि। वैदिक संस्कृतमे उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित (क्रमशः क॑ क॒ क॓) उपयोग तँ मराठीमे ळ आ
अर्द्ध ऱ् केर सेहो प्रयोग होइत अछि। मैथिलीमे ऽ (बिकारी वा अवग्रह) क प्रयोग
संस्कृत जकाँ होइत अछि आ आइ काल्हि एकर बदलामे टाइपक सुविधानुसारे द’ (दऽ क बदलामे)
एहन प्रयोग सेहो होइत अछि मुदा ई प्रयोग ओहि फॉंटमे एकटा तकनीकी न्यूनताक परिचायक
अछि। मुदा आकार क बाद बिकारीक आवश्यकता नहि अछि।
जेना फारसीमे अलिफ बे से आ रोमनमे ए बी सी होइत अछि तहिना मोटा-मोटी सभ भारतीय भाषामे लिपिक भिन्नताक अछैत वर्णमालाक स्वरूप एके रङ अछि।
वर्णमालामे दू प्रकारक वर्ण अछि- स्वर आ व्यंजन। वर्णक संख्या अछि ६४ जाहिमे २२ टा स्वर आ ४२ टा व्यञ्जन अछि।
स्वरक वर्णन एहि प्रकारेँ अछि- जाहि वर्णक उच्चारणमे दोसर वर्णक उच्चारणक अपेक्षा नहि रहैत अछि, से भेल स्वर।
स्वरक तीन टा भेद अछि- ह्रस्व, दीर्घ आ प्लुत। जाहिमे बाजैमे एक मात्राक समय लागए से भेल ह्रस्व, जाहिमे दू मात्रा समय लागल से भेल दीर्घ आ जाहिमे तीन मात्राक समय लागल से भेल प्लुत।
मूलभूत स्वर अछि- अ इ उ ऋ लृ
पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा समानाक्षर कहैत छलाह।
दीर्घ मिश्र स्वर अछि- ए ऐ ओ औ
पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा सन्ध्यक्षर कहैत छलाह।
लृ दीर्घ नहि होइत अछि आ सन्ध्यक्षर ह्रस्व नहि होइत अछि।
अ इ उ ऋ एहि सभक ह्रस्व, दीर्घ (आ ई ऊ ॠ) आ प्लुत (आ३ ई३ ऊ३ ॠ३) सभ मिला कऽ १२ वर्ण भेल। लृ क ह्रस्व आ प्लुत दू भेद अछि (लॄ३), तँ २ टा ई भेल। ए ऐ ओ औ ई चारू दीर्घ मिश्रित स्वर अछि आ एहि चारूक प्लुत रूप सेहो (ए३ ऐ३ ओ३ औ३) होइत अछि, तँ ८ टा ई सेहो भेल। भऽ गेल सभटा मिला कए २२ टा स्वर।
एहि सभटा २२ स्वरक वैदिक रूप तीन तरहक होइत अछि, उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित।
ऊँच भाग जेना तालुसँ उत्पन्न अकारादि वर्ण उदात्त गुणक होइत अछि आ तेँ उदात्त कहल जाइत अछि।
नीचाँ भागसँ उत्पन्न स्वर अनुदात्त आ जाहि अकारादि स्वरक प्रथम भागक उच्चारण उदात्त आ दोसर भागक उच्चारण अनुदात्त रूपेँ होइत अछि से भेल स्वरित।
स्वरक दू प्रकार आर अछि, सानुनासिक जेना अँ आ निरनुनासिक जेना अ।
दत्तेन निर्वृत्तः कूपो दात्तः। दत्त नाम्ना पुरुष द्वारा विपाट्- ब्यास धारक उतरबरिया तटपर बनबाओल, एतए इनार भेल दात्त। अञ प्रत्यान्त भेलासँ ’दात्त’ आद्युदात्त भेल, अण् प्रत्यायान्त होइत तँ प्रत्यय स्वरसँ अन्तोदात्त होइत। रूपमे भेद नहि भेलोपर स्वरमे भेद अछि। एहिसँ सिद्ध भेल जे सामान्य कृषक वर्ग सेहो शब्दक सस्वर उच्चारण करैत छलाह।
स्वरितकेँ दोसरो रूपमे बुझि सकैत छी- जेना एहिमे अन्तिम स्वरक तीव्र स्वरमे पुनरुच्चारण होइत अछि।
आब व्यञ्जन पर आऊ।
व्यञ्जन ४२ टा अछि।
क् ख् ग् घ् ङ्
च् छ् ज् झ् ञ्
ट् ठ् ड् ढ् ण्
त् थ् द् ध् न्
प् फ् ब् भ् म्
य् र् ल् व्
श् ष् स्
ह्
य् व् ल् सानुनासिक सेहो होइत अछि, यँ वँ लँ आ निरुनासिक सेहो।
एकर अतिरिक्त्त दू टा आर व्यञ्जन अछि- अनुस्वार आ विसर्जनीय वा विसर्ग।
ई दुनूटा, स्वरक अनन्तर प्रयुक्त्त होइत अछि।
विसर्जनीय मूल वर्ण नहि अछि, वरन् स् वा र् क विकार अछि। विसर्जनीय किछु ध्वनि भेद आ किछु रूपभेदसँ दू प्रकारक अछि- जिह्वामूलीय आ उपध्मानीय। जिह्वामूलीय मात्र क आ ख सँ पूर्व प्रयुक्त्त होइत अछि, दोसर मात्र प आ फ सँ पूर्व।
अनुस्वार, विसर्जनीय, जिह्वामूलीय आ उपध्मानीयकेँ अयोगवाह कहल जाइत अछि।
उपरोक्त्त वर्ण सभकेँ छोड़ि ४ टा आर वर्ण अछि, जकरा यम कहल गेल अछि।
कुँ खुँ गुँ घुँ (यथा- पलिक् क्नी, चख ख्न्नुतः, अग् ग्निः, घ् घ्नन्ति)
पञ्चम वर्ण आगाँ रहला पर पूर्व वर्ण सदृश जे वर्ण बीचमे उच्चारित होइत अछि से यम भेल।
यम सेहो अयोगवाह होइत अछि।
अ आ कवर्ग ह (असंयुक्त्त) आ विसर्जनीय क उच्चारण कण्ठमे होइत अछि।
इ ई चवर्ग य श क उच्चारण तालुमे होइत अछि।
ऋ ॠ टवर्ग र ष क उच्चारण मूर्धामे होइत अछि।
लृ तवर्ग ल स क उच्चारण दाँतसँ होइत अछि।
उ ऊ पवर्ग आ उपध्मानीय क उच्चारण ओष्ठसँ होइत अछि।
व क उच्चारण उपरका दाँतसँ अधर ओष्ठक सहायतासँ होइत अछि।
ए ऐ क उच्चारण कण्ठ आ तालुसँ होइत अछि।
ओ औ क उच्चारण कण्ठ आ ओष्ठसँ होइत अछि।
य र ल व अन्य व्यञ्जन जकाँ उच्चारणमे जिह्वाक अग्रादि भाग ताल्वादि स्थानकेँ पूर्णतया स्पर्श नहि करैत अछि। श् ष् स् ह् जकाँ एहिमे तालु आदि स्थानसँ घर्षण सेहो नहि होइत अछि।
क सँ म धरि स्पर्श (वा स्फोटक कारण जिह्वाक अग्र द्वारा वायु प्रवाह रोकि कऽ छोड़ल जाइत अछि) वर्ण र सँ व अन्तःस्थ आ ष सँ ह घर्षक वर्ण भेल।
सभ वर्गक पाँचम वर्ण अनुनासिक कहबैत अछि कारण आन स्थान समान रहितो एकर सभक नासिकामे सेहो उच्चारण होइत अछि- उच्चारणमे वायु नासिका आ मुँह बाटे बहार होइत अछि।
अनुस्वार आ यम क उच्चारण मात्र नासिकामे होइत अछि- आ ई सभ नासिक्य कहबैत अछि- कारण एहि सभमे मुखद्वार बन्द रहैत अछि आ नासिकासँ वायु बहार होइत अछि। अनुस्वारक स्थान पर न् वा म् क उच्चारण नहि होएबाक चाही।
जखन हमरा सभकेँ गप करबाक इच्छा होइत अछि, तखन संकल्पसँ जठराग्नि प्रेरित होइत अछि। नाभि लगक वायु वेगसँ उठैत मूर्धा धरि पहुँचि, जिह्वाक अग्रादि भाग द्वारा निरोध भेलाक अनन्तर मुखक तालु आदि भागसँ घर्षित होइत अछि आ तखन वर्णक उत्पत्ति होइत अछि। कम्पन भेलासँ वायु नादवान आ यैह गूँजित होइत पहुँचैत अछि मुँहमे आ ओकरा कहल जाइत अछि घोषवान, नादरहित भऽ पहुँचैत अछि श्वासमे आ ओकरा कहल जाइत अछि अघोषवान्।
श्वास प्रकृतिक वर्ण भेल “अघोष” , आ नाद प्रकृतिक भेल “घोषवान्”। जाहि वर्णक उत्पत्तिमे प्राणवायुक अल्पता होइत अछि से अछि “अल्पप्राण” आ जकर उत्पत्तिमे प्राणवायुक बहुलता होइत अछि, से भेल “महाप्राण”।
कचटतप क पहिल, तेसर आ पाँचम वर्ण भेल अल्पप्राण आ दोसर आ चारिम वर्ण भेल महाप्राण। संगहि कचटतप क पहिल आ दोसर भेल अघोष आ तेसर, चारिम आ पाँचम भेल घोषवान्। य र ल व भेल अल्पप्राण घोष। श ष स भेल महाप्राण अघोष आ ह भेल महाप्राण घोष।स्वर होइछ अल्पप्राण, उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित।
जेना फारसीमे अलिफ बे से आ रोमनमे ए बी सी होइत अछि तहिना मोटा-मोटी सभ भारतीय भाषामे लिपिक भिन्नताक अछैत वर्णमालाक स्वरूप एके रङ अछि।
वर्णमालामे दू प्रकारक वर्ण अछि- स्वर आ व्यंजन। वर्णक संख्या अछि ६४ जाहिमे २२ टा स्वर आ ४२ टा व्यञ्जन अछि।
स्वरक वर्णन एहि प्रकारेँ अछि- जाहि वर्णक उच्चारणमे दोसर वर्णक उच्चारणक अपेक्षा नहि रहैत अछि, से भेल स्वर।
स्वरक तीन टा भेद अछि- ह्रस्व, दीर्घ आ प्लुत। जाहिमे बाजैमे एक मात्राक समय लागए से भेल ह्रस्व, जाहिमे दू मात्रा समय लागल से भेल दीर्घ आ जाहिमे तीन मात्राक समय लागल से भेल प्लुत।
मूलभूत स्वर अछि- अ इ उ ऋ लृ
पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा समानाक्षर कहैत छलाह।
दीर्घ मिश्र स्वर अछि- ए ऐ ओ औ
पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा सन्ध्यक्षर कहैत छलाह।
लृ दीर्घ नहि होइत अछि आ सन्ध्यक्षर ह्रस्व नहि होइत अछि।
अ इ उ ऋ एहि सभक ह्रस्व, दीर्घ (आ ई ऊ ॠ) आ प्लुत (आ३ ई३ ऊ३ ॠ३) सभ मिला कऽ १२ वर्ण भेल। लृ क ह्रस्व आ प्लुत दू भेद अछि (लॄ३), तँ २ टा ई भेल। ए ऐ ओ औ ई चारू दीर्घ मिश्रित स्वर अछि आ एहि चारूक प्लुत रूप सेहो (ए३ ऐ३ ओ३ औ३) होइत अछि, तँ ८ टा ई सेहो भेल। भऽ गेल सभटा मिला कए २२ टा स्वर।
एहि सभटा २२ स्वरक वैदिक रूप तीन तरहक होइत अछि, उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित।
ऊँच भाग जेना तालुसँ उत्पन्न अकारादि वर्ण उदात्त गुणक होइत अछि आ तेँ उदात्त कहल जाइत अछि।
नीचाँ भागसँ उत्पन्न स्वर अनुदात्त आ जाहि अकारादि स्वरक प्रथम भागक उच्चारण उदात्त आ दोसर भागक उच्चारण अनुदात्त रूपेँ होइत अछि से भेल स्वरित।
स्वरक दू प्रकार आर अछि, सानुनासिक जेना अँ आ निरनुनासिक जेना अ।
दत्तेन निर्वृत्तः कूपो दात्तः। दत्त नाम्ना पुरुष द्वारा विपाट्- ब्यास धारक उतरबरिया तटपर बनबाओल, एतए इनार भेल दात्त। अञ प्रत्यान्त भेलासँ ’दात्त’ आद्युदात्त भेल, अण् प्रत्यायान्त होइत तँ प्रत्यय स्वरसँ अन्तोदात्त होइत। रूपमे भेद नहि भेलोपर स्वरमे भेद अछि। एहिसँ सिद्ध भेल जे सामान्य कृषक वर्ग सेहो शब्दक सस्वर उच्चारण करैत छलाह।
स्वरितकेँ दोसरो रूपमे बुझि सकैत छी- जेना एहिमे अन्तिम स्वरक तीव्र स्वरमे पुनरुच्चारण होइत अछि।
आब व्यञ्जन पर आऊ।
व्यञ्जन ४२ टा अछि।
क् ख् ग् घ् ङ्
च् छ् ज् झ् ञ्
ट् ठ् ड् ढ् ण्
त् थ् द् ध् न्
प् फ् ब् भ् म्
य् र् ल् व्
श् ष् स्
ह्
य् व् ल् सानुनासिक सेहो होइत अछि, यँ वँ लँ आ निरुनासिक सेहो।
एकर अतिरिक्त्त दू टा आर व्यञ्जन अछि- अनुस्वार आ विसर्जनीय वा विसर्ग।
ई दुनूटा, स्वरक अनन्तर प्रयुक्त्त होइत अछि।
विसर्जनीय मूल वर्ण नहि अछि, वरन् स् वा र् क विकार अछि। विसर्जनीय किछु ध्वनि भेद आ किछु रूपभेदसँ दू प्रकारक अछि- जिह्वामूलीय आ उपध्मानीय। जिह्वामूलीय मात्र क आ ख सँ पूर्व प्रयुक्त्त होइत अछि, दोसर मात्र प आ फ सँ पूर्व।
अनुस्वार, विसर्जनीय, जिह्वामूलीय आ उपध्मानीयकेँ अयोगवाह कहल जाइत अछि।
उपरोक्त्त वर्ण सभकेँ छोड़ि ४ टा आर वर्ण अछि, जकरा यम कहल गेल अछि।
कुँ खुँ गुँ घुँ (यथा- पलिक् क्नी, चख ख्न्नुतः, अग् ग्निः, घ् घ्नन्ति)
पञ्चम वर्ण आगाँ रहला पर पूर्व वर्ण सदृश जे वर्ण बीचमे उच्चारित होइत अछि से यम भेल।
यम सेहो अयोगवाह होइत अछि।
अ आ कवर्ग ह (असंयुक्त्त) आ विसर्जनीय क उच्चारण कण्ठमे होइत अछि।
इ ई चवर्ग य श क उच्चारण तालुमे होइत अछि।
ऋ ॠ टवर्ग र ष क उच्चारण मूर्धामे होइत अछि।
लृ तवर्ग ल स क उच्चारण दाँतसँ होइत अछि।
उ ऊ पवर्ग आ उपध्मानीय क उच्चारण ओष्ठसँ होइत अछि।
व क उच्चारण उपरका दाँतसँ अधर ओष्ठक सहायतासँ होइत अछि।
ए ऐ क उच्चारण कण्ठ आ तालुसँ होइत अछि।
ओ औ क उच्चारण कण्ठ आ ओष्ठसँ होइत अछि।
य र ल व अन्य व्यञ्जन जकाँ उच्चारणमे जिह्वाक अग्रादि भाग ताल्वादि स्थानकेँ पूर्णतया स्पर्श नहि करैत अछि। श् ष् स् ह् जकाँ एहिमे तालु आदि स्थानसँ घर्षण सेहो नहि होइत अछि।
क सँ म धरि स्पर्श (वा स्फोटक कारण जिह्वाक अग्र द्वारा वायु प्रवाह रोकि कऽ छोड़ल जाइत अछि) वर्ण र सँ व अन्तःस्थ आ ष सँ ह घर्षक वर्ण भेल।
सभ वर्गक पाँचम वर्ण अनुनासिक कहबैत अछि कारण आन स्थान समान रहितो एकर सभक नासिकामे सेहो उच्चारण होइत अछि- उच्चारणमे वायु नासिका आ मुँह बाटे बहार होइत अछि।
अनुस्वार आ यम क उच्चारण मात्र नासिकामे होइत अछि- आ ई सभ नासिक्य कहबैत अछि- कारण एहि सभमे मुखद्वार बन्द रहैत अछि आ नासिकासँ वायु बहार होइत अछि। अनुस्वारक स्थान पर न् वा म् क उच्चारण नहि होएबाक चाही।
जखन हमरा सभकेँ गप करबाक इच्छा होइत अछि, तखन संकल्पसँ जठराग्नि प्रेरित होइत अछि। नाभि लगक वायु वेगसँ उठैत मूर्धा धरि पहुँचि, जिह्वाक अग्रादि भाग द्वारा निरोध भेलाक अनन्तर मुखक तालु आदि भागसँ घर्षित होइत अछि आ तखन वर्णक उत्पत्ति होइत अछि। कम्पन भेलासँ वायु नादवान आ यैह गूँजित होइत पहुँचैत अछि मुँहमे आ ओकरा कहल जाइत अछि घोषवान, नादरहित भऽ पहुँचैत अछि श्वासमे आ ओकरा कहल जाइत अछि अघोषवान्।
श्वास प्रकृतिक वर्ण भेल “अघोष” , आ नाद प्रकृतिक भेल “घोषवान्”। जाहि वर्णक उत्पत्तिमे प्राणवायुक अल्पता होइत अछि से अछि “अल्पप्राण” आ जकर उत्पत्तिमे प्राणवायुक बहुलता होइत अछि, से भेल “महाप्राण”।
कचटतप क पहिल, तेसर आ पाँचम वर्ण भेल अल्पप्राण आ दोसर आ चारिम वर्ण भेल महाप्राण। संगहि कचटतप क पहिल आ दोसर भेल अघोष आ तेसर, चारिम आ पाँचम भेल घोषवान्। य र ल व भेल अल्पप्राण घोष। श ष स भेल महाप्राण अघोष आ ह भेल महाप्राण घोष।स्वर होइछ अल्पप्राण, उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित।
छन्दोबद्ध रचना
पद्य कहबैत अछि-अन्यथा ओ गद्य थीक। छन्द माने भेल एहन रचना जे आनन्द प्रदान करए । मुदा
एहिसँ ई नहि बुझबाक चाही जे आजुक नव कविता गद्य कोटिक अछि कारण वेदक
सावित्री-गायत्री मंत्र सेहो शिथिल/ उदार नियमक कारण, सावित्री मंत्र
गायत्री छंद, मे परिगणित होइत
अछि तकर चरचा नीचाँ जा कए होएत - जेना यदि अक्षर पूरा नहि भेल तँ एक आकि दू अक्षर
प्रत्येक पादकेँ बढ़ा लेल जाइत अछि। य आ व केर संयुक्ताक्षरकेँ क्रमशः इ आ उ लगा
कए अलग कएल जाइत अछि। जेना- वरेण्यम्=वरेणियम्
स्वः= सुवः।
आजुक नव कविताक
संग हाइकू/ क्षणिका/ हैकूक लेल मैथिली भाषा आ भारतीय, संस्कृत आश्रित
लिपि व्यवस्था सर्वाधिक उपयुक्त्त अछि। तमिल छोड़ि शेष सभटा दक्षिण आ समस्त
उत्तर-पश्चिमी आ पूर्वी भारतीय लिपि आ देवनागरी लिपि मे वैह स्वर आ कचटतप व्यञ्जन
विधान अछि, जाहिमे जे लिखल
जाइत अछि सैह बाजल जाइत अछि। मुदा देवनागरीमे ह्रस्व “इ” एकर अपवाद अछि, ई लिखल जाइत अछि
पहिने, मुदा बाजल जाइत
अछि बादमे। मुदा मैथिलीमे ई अपवाद सेहो नहि अछि- यथा 'अछि' ई बाजल जाइत अछि
अ ह्र्स्व 'इ' छ वा अ इ छ।
दोसर उदाहरण लिअ- राति- रा इ त। तँ सिद्ध भेल जे हैकूक लेल मैथिली सर्वोत्तम भाषा
अछि। एकटा आर उदाहरण लिअ। सन्धि संस्कृतक विशेषता अछि, मुदा की
इंग्लिशमे संधि नहि अछि ? तँ ई की अछि - आइम गोइङ टूवार्ड्सदएन्ड। एकरा लिखल जाइत
अछि- आइ एम गोइङ टूवार्ड्स द एन्ड। मुदा पाणिनि ध्वनि विज्ञानक आधार पर संधिक निअम
बनओलन्हि, मुदा इंग्लिशमे
लिखबा कालमे तँ संधिक पालन नहि होइत छै, आइ एम केँ ओना आइम फोनेटिकली लिखल जाइत अछि, मुदा बजबा काल
एकर प्रयोग होइत अछि। मैथिलीमे सेहो यथासंभव विभक्त्ति शब्दसँ सटा कए लिखल आ बाजल
जाइत अछि।
छन्द दू प्रकारक
अछि।मात्रा छन्द आ वर्ण छन्द ।
वेदमे
वर्णवृत्तक प्रयोग अछि मात्रिक छन्दक नहि ।
वार्णिक छन्दमे
वर्ण/ अक्षरक गणना मात्र होइत अछि। हलंतयुक्त अक्षरकेँ नहि गानल जाइत अछि। एकार
उकार इत्यादि युक्त अक्षरकेँ ओहिना एक गानल जाइत अछि जेना संयुक्ताक्षरकेँ। संगहि
अ सँ ह केँ सेहो एक गानल जाइत अछि। एकसँ बेशी मान कोनो वर्ण/ अक्षरक नहि होइछ।
मोटा-मोटी तीनटा बिन्दु मोन राखू-
१. हलंतयुक्त
अक्षर-०
२. संयुक्त
अक्षर-१
३. अक्षर अ सँ ह
-१ प्रत्येक।
आब पहिल उदाहरण
देखू-
ई अरदराक मेघ
नहि मानत रहत बरसि के=१+५+२+२+३+३+३+१=२०
आब दोसर उदाहरण
देखू
पश्चात्=२
आब तेसर उदाहरण
देखू
आब=२
आब चारिम उदाहरण
देखू
स्क्रिप्ट=२
मुख्य वैदिक
छन्द सात अछि-
गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पङ्क्ति, त्रिष्टुप् आ जगती।
शेष ओकर भेद अछि, अतिछन्द आ विच्छन्द। एतए छन्दकेँ अक्षरसँ चिन्हल जाइत अछि।
जे अक्षर पूरा नहि भेल तँ एक आकि दू अक्षर प्रत्येक पादमे बढ़ा लेल जाइत अछि। य आ
व केर संयुक्ताक्षरकेँ क्रमशः इ आ उ लगा कए अलग कएल जाइत अछि। जेना-
वरेण्यम्=वरेणियम्
स्वः= सुवः
गुण आ वृद्धिकेँ
अलग कए सेहो अक्षर पूर कए सकैत छी।
ए = अ + इ
ओ = अ + उ
ऐ = अ/आ + ए
औ = अ/आ + ओ
१.
छन्दः शास्त्रमे
प्रयुक्त ‘गुरु’ आ ‘लघु’ छंदक परिचय
प्राप्त करू।
तेरह टा स्वर
वर्णमे अ,इ,उ,ऋ,लृ ई पाँच
ह्र्स्व आर आ,ई,ऊ,ऋ,ए.ऐ,ओ,औ, ई आठ दीर्घ स्वर
अछि।
ई स्वर वर्ण जखन
व्यंजन वर्णक संग जुड़ि जाइत अछि तँ ओकरासँ ‘गुणिताक्षर’ बनैत अछि।
क्+अ= क,
क्+आ=का ।
एक स्वर मात्रा
आकि एक गुणिताक्षरकेँ एक ‘अक्षर’ कहल जाइत अछि। कोनो व्यंजन मात्रकेँ अक्षर नहि मानल जाइत
अछि- जेना ‘अवाक्’ शब्दमे दू टा
अक्षर अछि, अ, वा ।
१. सभटा ह्रस्व स्वर
आ ह्रस्व युक्त गुणिताक्षर ‘लघु’ मानल जाइत अछि। एकरा ऊपर U लिखि एकर संकेत
देल जाइत अछि।
२. सभटा दीर्घ
स्वर आर दीर्घ स्वर युक्त गुणिताक्षर ‘गुरु’ मानल जाइत अछि, आ एकर संकेत अछि, ऊपरमे एकटा छोट -।
३. अनुस्वार
किंवा विसर्गयुक्त सभ अक्षर गुरू मानल जाइत अछि।
४. कोनो अक्षरक
बाद संयुक्ताक्षर किंवा व्यंजन मात्र रहलासँ ओहि अक्षरकेँ गुरु मानल जाइत अछि।
जेना- अच्, सत्य। एहिमे अ आ
स दुनू गुरु अछि।
५. जेना वार्णिक
छन्द/ वृत्त वेदमे व्यवहार कएल गेल अछि तहिना
स्वरक पूर्ण
रूपसँ विचार सेहो ओहि युग सँ भेटैत अछि। स्थूल रीतिसँ ई विभक्त अछि:- १. उदात्त २.
उदात्ततर ३. अनुदात्त ४. अनुदात्ततर ५. स्वरित ६. अनुदात्तानुरक्तस्वरित, ७. प्रचय (एकटा
श्रुति-अनहत नाद जे बिना कोनो चीजक उत्पन्न होइत अछि, शेष सभटा अछि
आहत नाद जे कोनो वस्तुसँ टकरओला पर उत्पन्न होइत अछि)।
१. उदात्त- जे
अकारादि स्वर कण्ठादि स्थानमे ऊर्ध्व भागमे बाजल जाइत अछि। एकरा लेल कोनो चेन्ह
नहि अछि। २. उदातात्तर- कण्ठादि अति ऊर्ध्व स्थानसँ बाजल जाइत अछि। ३. अनुदात्त-
जे कण्ठादि स्थानमे अधोभागमे उच्चारित होइछ।नीचाँमे तीर्यक चेन्ह खचित कएल जाइछ।
४. अनुदातात्ततर- कण्ठादिसँ अत्यंत नीचाँ बाजल जाइत अछि। ५. स्वरित- जाहिमे
अनुदात्त रहैत अछि किछु भाग, आ किछु रहैत अछि उदात्त। ऊपरमे ठाढ़ रेखा खेंचल जाइत अछि, एहिमे। ६.
अनुदाक्तानुरक्तस्वरित- जाहिमे उदात्त, स्वरित किंवा दुनू बादमे होइछ, ई तीन प्रकारक
होइछ। ७. प्रचय-स्वरितक बादक अनुदात्त रहलासँ अनाहत नाद प्रचयक,तानक उत्पत्ति
होइत अछि।
२.
१.
पूर्वार्चिकमे क्रमसँ अग्नि, इन्द्र आ सोम पयमानकेँ संबोधित गीत अछि।तदुपरान्त आरण्यक
काण्ड आ महानाम्नी आर्चिक अछि।आग्नेय, ऐन्द्र आ पायमान पर्वकेँ ग्रामगेयण आ पूर्वार्चिकक शेष
भागकेँ आरण्यकगण सेहो कहल जाइछ। सम्मिलित रूपेँ एक प्रकृतिगण कहैत छी।
२.उत्तरार्चिक: विकृति आ उत्तरगण सेहो कहैत छी। ग्रामगेयगण आ आरण्यकगणसँ मंत्र
चुनि कय क्रमशः उहगण आ ऊह्यगण कहबैछ- तदन्तर प्रत्येक गण दशरात्र, संवत्सर, एकह, अहिन, प्रायश्चित आ
क्षुद्र पर्वमे बाँटल जाइछ। पूर्वार्चिक मंत्रक लयकेँ स्मरण क’ उत्तरार्चिक केर
द्विक, त्रिक, आ चतुष्टक आदि
(२,३, आ ४ मंत्रक
समूह) मे एहि लय सभक प्रयोग होइछ। अधिकांश त्रिक आदि प्रथम मंत्र पूर्वार्चिक होइत
अछि, जकर लय पर पूरा
सूक्त (त्रिक आदि) गाओल जाइछ।
उत्तरार्चिक
उहागण आ उह्यगण प्रत्येक लयकेँ तीन बेर तीन प्रकारेँ पढ़ैछ। वैदिक कर्मकाण्डमे
प्रस्ताव, प्रस्तोतर
द्वारा, उद्गीत उदगातर
द्वारा, प्रतिघार
प्रतिहातर द्वारा, उपद्रव पुनः उदगातृ द्वारा आ निधान तीनू द्वारा मिलि कय
गाओल जाइछ। प्रस्तावक पहिने हिंकार (हिं,हुं,हं) तीनू द्वारा आ ॐ उदगातृ द्वारा उदगीतक पहिने गाओल जाइछ।
ई पाँच भक्त्ति भेल।
हाथक मुद्रा-
हाथक मुद्रा १.१.औँठा(प्रथम आँगुर)-एक यव दूरी पर २.२. औँठा प्रथम आँगुरकेँ छुबैत
३.३. औँठा बीच आँगुरकेँ छुबैत ४.४. औँठा चारिम आँगुरकेँ छुबैत ५.५. औँठा पाँचम
आँगुरकेँ छुबैत ६.११. छठम क्रुष्ट औँठा प्रथम आँगुरसँ दू यव दूरी पर ७.६. सातम
अतिश्वर सामवेद ८.७. अभिगीत ऋग्वेद
३.
ग्रामगेयगान-
ग्राम आ सार्वजनिक स्थल पर गाओल जाइत छल। आरण्यक गेयगान- वन आ पवित्र स्थानमे गाओल
जाइत छल।
ऊहगान- सोमयाग
एवं विशेष धार्मिक अवसर पर। पूर्वार्चिकसँ संबंधित ग्रामगेयगान एहि विधिसँ।
ऊह्यगान आकि रहस्यगान- वन आ पवित्र स्थान पर गाओल जाइत अछि। पूर्वार्चिकक आरण्यक
गानसँ संबंध। नारदीय शिक्षामे सामगानक संबंधमे निर्देश:- १.स्वर-७ ग्राम-३
मूर्छना-२१ तान-४९
सात टा स्वर सा,रे,ग,म,प,ध,नि, आ तीन टा
ग्राम-मध्य,मन्द,तीव्र। ७*३=२१
मूर्छना। सात स्वरक परस्पर मिश्रण ७*७=४९ तान।
ऋगवेदक प्रत्येक
मंत्र गौतमक २ सामगान (पर्कक) आ काश्यपक १ सामगान (पर्कक) कारण तीन मंत्रक बराबर
भऽ जाइत अछि। मैकडॉवेल इन्द्राग्नि, मित्रावरुणौ, इन्द्राविष्णु, अग्निषोमौ एहि सभकेँ युगलदेवता मानलन्हि अछि। मुदा युगलदेव
अछि –विशेषण-विपर्यय।
वेदपाठ-
१. संहिता पाठ
अछि शुद्ध रूपमे पाठ।
अ॒ग्निमी॑ळे
पुरोहि॑त य॒घ्यस्य॑दे॒वम्त्विज॑म।होतार॑रत्न॒ धातमम्।
२. पद पाठ-
एहिमे प्रत्येक पदकें पृथक कए पढ़ल जाइत अछि।
३. क्रमपाठ- एतय
एकक बाद दोसर, फेर दोसर तखन
तेसर, फेर तेसर तखन
चतुर्थ। एना कए पाठ कएल जाइत अछि।
४. जटापाठ-
एहिमे ज्योँ तीन टा पद क, ख, आ ग अछि तखन पढ़बाक क्रम एहि रूपमे होएत। कख, खक, कख, खग, गख, खग। ५.
घनपाठ-एहि मे ऊपरका उदाहरणक अनुसार निम्न रूप होयत- कख,खक,कखग,गखक,कखग। ६. माला, ७. शिखा, ८. रेखा, ९. ध्वज, १०. दण्ड, ११. रथ। अंतिम
आठकेँ अष्टविकृति कहल जाइत अछि।
साम विकार सेहो
६ टा अछि, जे गानकेँ
ध्यानमे रखैत घटाओल, बढ़ाओल जा सकैत अछि। १. विकार-अग्नेकेँ ओग्नाय। २.
विश्लेषण- शब्द/पदकेँ तोड़नाइ ३. विकर्षण-स्वरकेँ खिंचनाई/अधिक मात्राक बड़ाबर
बजेनाइ। ४. अभ्यास- बेर-बेर बजनाइ।५. विराम- शब्दकेँ तोड़ि कय पदक मध्यमे ‘यति’। ६. स्तोभ-आलाप
योग्य पदकेँ जोड़ि लेब। कौथुमीय शाखा ‘हाउ’ ‘राइ’ जोड़ैत छथि। राणानीय शाखा ‘हावु’, ‘रायि’ जोड़ैत छथि।
मात्रिक छन्दक
प्रयोग वेदमे नहि अछि वरन् वर्णवृत्तक प्रयोग अछि आ गणना पाद वा चरणक अनुसार होइत
रहए। मुख्य छन्द गायत्री, एकर प्रयोग वेदमे सभसँ बेशी अछि। तकर बाद त्रिष्टुप आ जगतीक
प्रयोग अछि।
१. गायत्री- ८-८
केर तीन पाद। दोसर पादक बाद विराम। वा एक पदमे छह टा अक्षर।
२. त्रिष्टुप-
११-११ केर ४ पाद।
३. जगती- १२-१२
केर ४ पाद।
४. उष्णिक- ८-८
केर दू तकर बाद १२ वर्ण-संख्याक पाद।
५. अनुष्टुप-
८-८ केर चारि पाद। एकर प्रयोग वेदक अपेक्षा संस्कृत साहित्यमे बेशी अछि।
६. बृहती- ८-८
केर दू आ तकरा बाद १२ आ ८ मात्राक दू पाद।
७. पंक्त्ति-
८-८ केर पाँच। प्रथम दू पदक बाद विराम अबैछ।
यदि अक्षर पूरा
नहि होइत अछि, तँ एक वा दू
अक्षर निम्न प्रकारेँ घटा-बढ़ा लेल जाइत अछि।
(अ) वरेण्यम्
केँ वरेणियम् स्वः केँ सुवः।
(आ) गुण आ
वृद्धि सन्धिकेँ अलग कए लेल जाइत अछि।
ए= अ + इ
ओ= अ + उ
ऐ= अ/आ + ए
औ= अ/आ + ओ
अहू प्रकारेँ
नहि पुरलापर अन्य विराडादि नामसँ एकर नामकरण होइत अछि।
यथा- गायत्री
(२४)- विराट् (२२), निचृत् (२३), शुद्धा (२४), भुरिक् (२५), स्वराट्(२६)।
ॐ भूर्भुवस्वः ।
तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।
वैदिक ऋषि
स्वयंकेँ आ देवताकेँ सेहो कवि कहैत छथि। सम्पूर्ण वैदिक साहित्य एहि कवि चेतनाक
वाङ्मय मूर्त्ति अछि। ओतए आध्यात्म चेतना, अधिदैवत्वमे उत्तीर्ण भेल अछि, एवम् ओकरा
आधिभौतिक भाषामे रूप देल गेल अछि।
४.
वैदिक (छन्दस् )
आ लौकिक संस्कृत (भाषा) क व्याकरण :
वैदिक आ लौकिक
दुनू संस्कृतमे संज्ञा, सर्वनाम आ विशेषणक पुल्लिंग, स्त्रीलिंग आ नपुंसक लिंग,
तीन वचन- एक, दू आ बहुवचन रहल, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग आ नपुंसक लिंग लिंगक द्योतक
नहि अछि, दारा- पुल्लिंग, कलत्र- नपुंसक लिंग आ भार्या- स्त्रीलिंग; मुदा तीनू
पत्नीक पर्यायवाची अछि। तहिना ईश्वरः (पुल्लिंग), ब्रह्म (नपुंसक लिंग) आ चितिः
(स्त्री लिंग) होइत अछि। संज्ञा, सर्वनाम आ विशेषणक आठटा कारक (विभक्ति) सेहो होइत
अछि। दस गणक धातुक रूप परस्मैपदी (फल
दोसराकेँ), आत्मनेपदी (फल अपनाकेँ) आ उभयपदी ई तीन तरहक होइत अछि। कर्तृ, कर्म आ
भव ई तीन वाच्य आ बारह लकार (लट्, लिट्, लङ्, लुङ्, लुट्, लृट्, लोट्, विधिलिंङ्, आर्शीलिंङ्, लृङ्, लेट् आ लेङ् ) होइत अछि। लेट् आ लेङ् लकार लौकिक संस्कृत (भाषा) मे नहि होइत
अछि।
संस्कृतमे तीनटा
पुरुष- प्रथम (आन भाषाक अन्य पुरुष) , मध्यम आ उत्तम होइत अछि।उद्देश्य आ विधेय;
कर्ता आ क्रिया; विशेष्य आ विशेषण आ संज्ञा आ सर्वनामक परस्पर गुण-समानता रहैत छै।
वैदिक संस्कृतमे
गीतात्मक आ बलात्मक स्वराघात रहए मुदा लौकिक संस्कृतमे खाली बलात्मक स्वराघात रहि
गेल। वैदिक उच्चारण उदात्त, अनुदात्त आ स्वरित (संगीतशास्त्रक आरोह, अवरोह आ सम सँ
तुलना द्रष्टव्य) लौकिक उच्चारणमे खतम भऽ गेल।
वैदिक छन्दमे एक
चरण, जकरा पाद कहैत छिऐ ओहि पादमे वर्णक गनती होइत अछि। छन्दमे गति (लय) आ यति
(विराम) सेहो होइत अछि। ह्रस्व स्वर लघु होइत अछि, ह्रस्वक बाद संयुक्त वर्ण
अएलासँ लघु स्वर गुरु स्वर भऽ जाइत अछि।
उपसर्ग: लौकिक
संस्कृतमे उपसर्ग क्रियासँ पहिने अबैत अछि मुदा वैदिक संस्कृतमे पहिने, बादमे,
अलगसँ आ कतहु अन्तरालक बाद सेहो अबैत अछि। संगहि वैदिक संस्कृतमे जे एक बेर उपसर्ग
क्रियाक संग आबि गेल तँ तकरा बाद ओहि मंत्रमे मात्र उपसर्गक प्रयोग होएत आ वैह
उपसर्गयुक्त क्रियाक द्योतक होएत।
समास: वैदिक
संस्कृतमे समासमे सेहो कखनो काल भिन्नता छै, जेना अष्टक बाद कोनो शब्द होइ तँ ओ
अष्टा भऽ जाइ छै- अष्टापदी। पितृ आ मातृक द्वन्द्व समास भेलापर दुनूमे आ लगै छै आ
गुण होइ छै- पितरामातरा।
लेट लकार: लौकिक
संस्कृतमे लेट लकारक प्रयोग नहि होइत अछि मुदा वैदिक संस्कृतमे होइत अछि जेना
भवाति, पताति लौकिकमे मात्र भवति, पततिसँ निदृष्ट होइत अछि।
वैदिक आ लौकिक
संस्कृत कोनो दू भाषा नहि अछि वरन् लौकिक संस्कृत, वैदिक संस्कृतिक सरल रूप अछि।
वैदिक संस्कृतमे लौकिक संस्कृतसँ सभ किछु बेशी अछि (अपवाद- लुट् आ लृट् लकारक
वैदिक संस्कृतमे कम उपयोग।)
संहिता,
ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक आ उपनिषदक भाषा वैदिक संस्कृत कहल जाइत अछि आ तकर बादक
संस्कृत लौकिक संस्कृत कहल जाइत अछि।
दुनू संस्कृतमे
धातु, शब्द आ अर्थ प्रायः एक्के अछि।
दुनूमे तीन
लिंग, तीन वचन आ तीन पुरुष होइत अछि।
दुनूमे सभ शब्द
प्रायः धातु अछि; रूढ़ शब्द बड्ड कम अछि।
समास दुनूमे
अछि, हँ लौकिक संस्कृतमे एकर बेशी प्रयोग देखबामे अबैत अछि।
छन्द सेहो
दुनूमे मोटा-मोटी एक्के रङक भेटत।
धातुक गण मध्य
विभाजन सेहो दुनूमे एक्के रङ भेटत।
णिच्, सन्
प्रत्यय दुनूमे एक्के रङ भेटत।
पदक निर्माण
दुनूमे एक्के तरीकासँ होइत अछि।
सुप्-तिङ-कृत्-तद्धित
दुनूमे एक्के रङ भेटत।
दुनूमे शब्दक
क्रम आगाँ पाछाँ भेने अर्थक परिवर्तन नहि होइत अछि। दुनूमे सन्धि, कारक आ विभक्ति
होइत अछि।
मुदा:-
लौकिक संस्कृतमे
उपध्मानीय आ जिह्वामूलीय ध्वनिक प्रयोग नहि होइत अछि आ तकर स्थानमे विसर्गसँ काज
चलैत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
ळ, ळह होइत अछि मुदा लौकिक संस्कृतमे नहि होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
दू स्वर मध्य “ड” ळ भऽ जाइत अछि आ “ढ” ळह भऽ जाइत अछि। लौकिक संस्कृतमे से नहि
अछि।
ग्वाङ (ह्रस्व आ
दीर्घ) लौकिक संस्कृतमे नहि अछि। यजुर्वेदमे ह, श, ष, स, र एहि सभसँ पूर्व
अनुस्वार ग्वाङ भऽ जाइत अछि।
उदात्त,
अनुदात्त आ स्वरितक उच्चारण लौकिक संस्कृतमे स्पष्ट रूपसँ नहि होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
लेट् लकारक प्रयोग होइत अछि, लौकिक संस्कृतमे नहि।
वैदिक संस्कृतमे
उपसर्ग धातुसँ पृथक् मुदा लौकिक संस्कृतमे संगमे प्रयोग होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
कृत् प्रत्ययक तुमुन् से, सेन्, असे, अध्यै इत्यादि १५ टा प्रत्ययक प्रयोग होइत
अछि मुदा लौकिक संस्कृतमे खाली “तुम्” प्रत्ययक प्रयोग होइत अछि।
वैदिक संस्कृतक
सन्धि निअम शिथिल होइत अछि मुदा लौकिक संस्कृतक दृढ़ होइत अछि।
वैदिक कतेको
शब्दक अर्थ लौकिक संस्कृतमे बदलि गेल अछि। जेना असुर वैदिक संस्कृतमे शक्तिवानकेँ
कहल जाइत छल मुदा लौकिक संस्कृतमे राक्षसकेँ कहल जाइत अछि।
धातुरूप सेहो
वैदिक संस्कृतमे भिन्न अछि, अन्तिम स्वर दीर्घ सेहो होइत अछि। जेना चक्र- चक्रा:
द्वित्वक अभाव होइत अछि जेना “ददाति”क स्थानमे “दाति”; कखनो काल परस्मैपदिक
स्थानमे आत्म्नेपद आ आत्मनेपदिक स्थानमे परस्मैपद धातुक प्रयोग होइत अछि; शप्
स्थानपर कखनो काल दोसर गणक विकरणक प्रयोग होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
शब्द रूप, धातु रूप, प्रत्ययक विविधता बेशी अछि।
वैदिक संस्कृतक
काल-पुरुष-वचन-लिंगक ऐच्छिक परिवर्तन लौकिक संस्कृतमे मोटामोटी खतम भऽ गेल अछि।
वैदिक संस्कृतक
अच्, अम्, जिन्व्, पिन्व् आदि धातु लौकिक संस्कृतमेप्रयोग नहि होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
तर-तम प्रत्यय संज्ञा शब्द सन आ लौकिक संस्कृतमे विशेषण सन प्रयुक्त होइत अछि।
छन्दक हिसाबसँ
वैदिक संस्कृतमे स्वर्-सुवर् आ दर्शत, दरशत लिखि लेल जाइत अछि। मुदा लौकिक
संस्कृतमे से नहि होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
“आन्” पदक अन्तमे रहलापर आ तकर बाद अ, इ, उ स्वर अएलापर न् लुप्त भऽ जाइत अछि आ
आकारक बाद अनुस्वार भऽ जाइत अछि। जेना महान् इन्द्रः= महा इन्द्रः। लौकिक
संस्कृतमे से नहि होइत अछि।
५.
वैदिक
संस्कृत:-धातुरूप:-
लट् लकार
मध्यमपुरुष बहुवचन परस्मैपदि धातु थ, त, थन, तन ई चारू प्रत्यय लगैत अछि। जेना
वद्- वदथ, वदथन, वदत, वदतन।
लट् लकार
उत्तमपुरुष-बहुवचन परस्मैपदि धातु मस् (मः), मसि ई दूटा प्रत्यय प्रयोग होइत अछि।
जेना नाशयामः- नाशयामसि। इमः –इमसि। स्मः- स्मसि।
लोट् लकारक
मध्यमपुरुष एकवचन परस्मैपदि धातुमे हि, धि ई दूटा प्रत्यय होइत अछि। जेना
श्रुणुहि, श्रुणुधि।
लोट् लकार
मध्यमपुरुष बहुवचन आत्मनेपद धातुमे ध्वम् आ ध्वात् ई दूटा प्रत्यय होइत अछि। जेना
वारयध्वम्, वारयध्वात्।
(छन्दसि लुङ्
लङ् लिटः):- वैदिक संस्कृतमे लुङ्, लङ् आ लिट् लकारक प्रयोग लोट्, लट्
लकारक अर्थमे प्रयोग होइत अछि। जेना आगमत् (वैदिक लुङ्)= आगच्छतु (लोट)। अवृणीत
(वैदिक लङ्)= वृणीते (लट्)। ममार (वैदिक लिट्)= म्रियते (लट्)।
वैदिक
संस्कृत:-शब्दरूप:-
[संस्कृत (सं=
स्+म- ई ठीक अछि; एकर उच्चारण सं= स्+न गलत अछि।)]
वैदिक संस्कृतमे
शब्दरूपक भिन्नता लौकिकसँ बेशी होइत अछि। जेना अकारान्त पुल्लिंग देवः
प्रथमा-स्वितीया-सम्बोधन-द्विवचन वैदिकमे देवा, देवौ दुनू होइत अछि मुदा लौकिकमे
मात्र देवौ होइत अछि। प्रथमा-सम्बोधन-बहुवचन वैदिकमे देवासः, देवाः मुदा लौकिकमे
मात्र देवाः होइत अछि। तृतीया-एकवचन वैदिकमे देवा, देवेन दुनू होइत अछि मुदा
लौकिकमे मात्र देवेन होइत अछि। तृतीया-बहुवचन वैदिकमे देवेभिः, देवैः मुदा लौकिकमे
देवैः होइत अछि।
तहिना वैदिक
संस्कृतमे ऋकारान्त शब्दक रूप पुल्लिंग-स्त्रीलिंगमे लौकिक संस्कृत जेकाँ होइत
अछि, खाली प्रथमा-द्वितीया-सम्बोधन-द्विवचनमे दू रूप होइत अछि। जेना दातृ- दातारा,
दातारौ। पितृ- पितरा, पितरौ। मातृ- मातरा, मातरौ।
अस्मद्:-
प्रथमा-द्विवचन वैदिक- वाम्, आवम्; लौकिक आवाम्। चतुर्थी-एकवच वैदिक- मह्य,
मह्यम्; लौकिक- मह्यम्। पञ्चमी-द्विवचन वैदिक आवत्, आवाभ्याम्; लौकिक- आवाभ्याम्।
सप्तमी-बहुवचन वैदिक-अस्मे, अस्मासु; लौकिक- अस्मासु।
छन्द:-
पिङ्गल मुनिक
छन्द शास्त्रक आठमे सँ पहिल चारिम अध्यायक सातम सूत्र धरि वैदिक छन्दक आ तकरा बाद
लौकिक छन्दक वर्णन अछि।
वैदिक छन्दमे
अक्षरक गणना होइत अछि। ओतए लघु आ गुरुक विचार नहि होइत अछि। ऋगवेदमे सभसँ बेशी
त्रिष्टुप्, फेर गायत्री आ तखन जगती छन्दक प्रयोग भेल अछि।
त्रिष्टुप्- ४४
अक्षर- ११ अक्षरक ४ पाद;
गायत्री- २४
अक्षरक (ई २,३,४,५ पदक होइत अछि), सभसँ बेशी लोकप्रिय ८ अक्षरक तीन पादक गायत्री
जाहिमे दोसर पादक बाद विराम होइत अछि। २३ अक्षरक गायत्री निचृद् गायत्री, २२
अक्षरक गायत्री विराड् गायत्री, २५ अक्षरक गायत्री भुरिग् गायत्री, २६ अक्षरक
गायत्री स्वराड् गायत्री कहल जाइत अछि। सभ पादमे एक अक्षर कम भेलासँ “पादनिचृद्
गायत्री” कहल जाइत अछि।
जगती- ४८ अक्षर-
१२ अक्षरक चारि पाद।
पाठ:-
वैदिक
संस्कृतकेँ स्मरण रखबाक कएकटा विधि अछि।
संहिता पाठ-
मूलमंत्र सन्धि सहित सस्वर पढ़ल जाइत अछि।
पदपाठ- मन्त्रक
पदक पृथक पाठ होइत अछि।
क्रमपाठ- क्रमसँ
दू पदक पाठ होइत अछि।
जटापाठ- अनुलोम
१-२, विलोम २-१, अनुलोम १-२
शिखापाठ-
जटापाठमे परिवर्तित उत्तरपदक योगसँ शिखापाठ होइत अछि।
घनपाठ-
शिखामुक्त विपर्यक पदक पुनः पाठ होइत अछि।
वैदिक संस्कृतमे
यज्ञ आ अध्यात्मिक विषयक चर्च होइत अछि। लौकिक संस्कृतमे इहलौकिक विषयवस्तु सेहो
अबैत अछि।
२.प्राकृत
संस्कृतसँ पहिने
प्राकृत रहए वा बादमे ई विवादक विषय भऽ सकैत अछि कारण ऋगवेदक शिथिर, दूलभ, इन्दर
आदि शब्द जनभाषाक साहित्यीकरणक प्रमाण अछि। ओना एकर प्रारम्भिक प्रयोग अशोकक
अभिलेखसँ तेरहम शताब्दी ई. धरि भेटि जाएत मुदा पारिभाषिक रूपमे जाहि प्राकृतक एतए
चर्चा भऽ रहल अछि ओ पहिल ई.सँ छठम ई. धरि साहित्यक भाषा दू अर्थे रहल। पहिल
संस्कृत साहित्यक नाटकमे जन सामान्य आ स्त्री पात्र लेल शौरसेनी, महाराष्ट्री आ
मागधीक (वररुचि चारिम प्राकृतमे पैशाचीक नाम जोड़ै छथि) प्रयोग सेहो भेल (कालिदासक
अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम्, शूद्रकक मृच्छकटिकम्, श्रीहर्षक
रत्नावली, भवभूतिक उत्तररामचरित, विशाखादत्तक मुद्राराक्षस) आ दोसर जे फेर एहि
प्राकृत सभमे साहित्यक निर्माण स्वतंत्र रूपेँ होमए लागल। फेर एहि प्राकृत भाषाकेँ
सेहो व्याकरणमे बान्हल गेल आ तखन ई भाषा अलंकृत होमए लागल आ अपभ्रंश आ अवहट्ठक
प्रयोग लोक करए लगलाह, ओना अपभ्रंश प्राकृतक संग प्रयोग होइत रहए तकर प्रमाण सेहो
उपलब्ध अछि।
अशोकक अभिलेखमे
शाहबाजगढ़ी आ मानसेराक अभिलेख उत्तर-पच्छिम, कलसी, मध्य, धौली, जौगड़ पूर्व आ गिरनार
दक्षिण पच्छिमक जनभाषाक क्षेत्रीय प्रकारक दर्शन करबैत अछि। राजशेखर प्राकृतकेँ
मिट्ठ आ संस्कृतकेँ कठोर कहै छथि (विद्यापति पछाति कहै छथि देसिल बयना सभ जन
मिट्ठा)।
प्राचीन प्राकृत
पालीकेँ कहल जाइत अछि जाहिमे अशोकक अभिलेख, महवंश आ जातक लिखल गेल। मध्य प्राकृतमे
साहित्यिक प्राकृत अबैत अछि। बादक प्राकृतमे अपभ्रंश आ अवहट्ठ अबैत अछि।
मोटा-मोटी गद्य
लेल शौरसेनी, पद्य लेल महाराष्ट्री आ धार्मिक साहित्य लेल मागधी-अर्धमागधीक प्रयोग
भेल। नाटकमे स्त्री-विदूषक बजैत रहथि शौरसेनीमे मुदा पद्य कहथि महाराष्ट्रीमे,
नाटकक तथाकथित निम्न श्रेणीक लोक मागधी बजैत छलाह।
प्राकृतमे सुप्
तिङ् धातुक संग मिज्झर भऽ जाइत अछि।
प्राकृतमे
धातुरूप १-२ प्रकारक (भ्वादिगण जेकाँ) आ शब्दरूप ३-४ (अकारान्त जेकाँ) प्रकारक रहि
गेल, माने दुनू रूप कम भऽ गेल। मुदा एहिसँ अर्थमे अस्पष्टता आएल जकर निवारण कारकक
चेन्ह कएलक।
चतुर्थी,
द्विवचन, लङ् लिट् लुङ् आत्म्नेपद आदिक अभाव भऽ गेल प्रथमा आ द्वितीयाक बहुवचन एक
भऽ गेल। ध्वनि परिवर्तन भेल। ऋ, ऐ, औ, य, श, ष आ विसर्गक अभाव भेल (अपवाद मागधीमे
य आ श अछि मुदा स नहि)।
अन्तमे आएल
व्यंजन लुप्त भेल (ह्रस्व स्वरक बाद दू आ दीर्घ स्वरक बाद एकसँ बेशी व्यंजन नहि
रहि सकैत अछि।)
२.प्राकृत
संस्कृतसँ पहिने
प्राकृत रहए वा बादमे ई विवादक विषय भऽ सकैत अछि कारण ऋगवेदक शिथिर, दूलभ, इन्दर
आदि शब्द जनभाषाक साहित्यीकरणक प्रमाण अछि। ओना एकर प्रारम्भिक प्रयोग अशोकक
अभिलेखसँ तेरहम शताब्दी ई. धरि भेटि जाएत मुदा पारिभाषिक रूपमे जाहि प्राकृतक एतए
चर्चा भऽ रहल अछि ओ पहिल ई.सँ छठम ई. धरि साहित्यक भाषा दू अर्थे रहल। पहिल
संस्कृत साहित्यक नाटकमे जन सामान्य आ स्त्री पात्र लेल शौरसेनी, महाराष्ट्री आ
मागधीक (वररुचि चारिम प्राकृतमे पैशाचीक नाम जोड़ै छथि) प्रयोग सेहो भेल (कालिदासक
अभिज्ञान शाकुन्तलम्, मालविकाग्निमित्रम्, शूद्रकक मृच्छकटिकम्, श्रीहर्षक
रत्नावली, भवभूतिक उत्तररामचरित, विशाखादत्तक मुद्राराक्षस) आ दोसर जे फेर एहि
प्राकृत सभमे साहित्यक निर्माण स्वतंत्र रूपेँ होमए लागल। फेर एहि प्राकृत भाषाकेँ
सेहो व्याकरणमे बान्हल गेल आ तखन ई भाषा अलंकृत होमए लागल आ अपभ्रंश आ अवहट्ठक
प्रयोग लोक करए लगलाह, ओना अपभ्रंश प्राकृतक संग प्रयोग होइत रहए तकर प्रमाण सेहो
उपलब्ध अछि।
अशोकक अभिलेखमे
शाहबाजगढ़ी आ मानसेराक अभिलेख उत्तर-पच्छिम, कलसी, मध्य, धौली, जौगड़ पूर्व आ गिरनार
दक्षिण पच्छिमक जनभाषाक क्षेत्रीय प्रकारक दर्शन करबैत अछि। राजशेखर प्राकृतकेँ
मिट्ठ आ संस्कृतकेँ कठोर कहै छथि (विद्यापति पछाति कहै छथि देसिल बयना सभ जन
मिट्ठा)।
प्राचीन प्राकृत
पालीकेँ कहल जाइत अछि जाहिमे अशोकक अभिलेख, महवंश आ जातक लिखल गेल। मध्य प्राकृतमे
साहित्यिक प्राकृत अबैत अछि। बादक प्राकृतमे अपभ्रंश आ अवहट्ठ अबैत अछि।
मोटा-मोटी गद्य
लेल शौरसेनी, पद्य लेल महाराष्ट्री आ धार्मिक साहित्य लेल मागधी-अर्धमागधीक प्रयोग
भेल। नाटकमे स्त्री-विदूषक बजैत रहथि शौरसेनीमे मुदा पद्य कहथि महाराष्ट्रीमे,
नाटकक तथाकथित निम्न श्रेणीक लोक मागधी बजैत छलाह।
प्राकृतमे सुप्
तिङ् धातुक संग मिज्झर भऽ जाइत अछि।
प्राकृतमे
धातुरूप १-२ प्रकारक (भ्वादिगण जेकाँ) आ शब्दरूप ३-४ (अकारान्त जेकाँ) प्रकारक रहि
गेल, माने दुनू रूप कम भऽ गेल। मुदा एहिसँ अर्थमे अस्पष्टता आएल जकर निवारण कारकक
चेन्ह कएलक।
चतुर्थी,
द्विवचन, लङ् लिट् लुङ् आत्म्नेपद आदिक अभाव भऽ गेल प्रथमा आ द्वितीयाक बहुवचन एक
भऽ गेल। ध्वनि परिवर्तन भेल। ऋ, ऐ, औ, य, श, ष आ विसर्गक अभाव भेल (अपवाद मागधीमे
य आ श अछि मुदा स नहि)।
अन्तमे आएल
व्यंजन लुप्त भेल (ह्रस्व स्वरक बाद दू आ दीर्घ स्वरक बाद एकसँ बेशी व्यंजन नहि
रहि सकैत अछि।)
न ण मे, य ज मे
आ श, ष स मे परिवर्तित भऽ जाइत अछि।
पदमे उत्तरपदक
पहिल अक्षरक लोप भऽ जाइत अछि, मुदा से धातुरूप अछि तखन लोप नहि होइत अछि। जेना आर्यपुत्र= अज्जउत्त मुदा आगतम्= आगदं
अनुदात्त अव्ययक
पहिल अक्षरक लोप होइत अछि। जेना च= अ
भू धातुक भ
परिवर्तित भऽ ह भऽ जाइत अछि। जेना भवति= होइ
क ख मे आ प फ मे
बदलि जाइत अछि। पनस= फणस, क्रीड्= केल
उच्चारण स्थानक
परिवर्तनक क्रममे दन्त्य उच्चारण स्थान तालव्यमे बदलि जाइत अछि। जेना त् = च्
मध्यक य लोपित
भऽ जाइत अछि। क, ग, च, ज, त, द क सेहो किछु अपवादकेँ छोड़ि लोप होइत अछि। प, ब, व क
लोप सेहो कखनो आल होइत अछि। जेना- प्रिय= पिअ, लोक= लोअ, अनुराग= अणुराअ, प्रचुर=
पउर, भोजन= भोअण, रसातल= रसाअल, हृदय= हिअअ, रूप= रूअ, विबुध= विउह, वियोग= विओअ
मध्यक क, त, प
क्रमसँ ग, द, ब भऽ जाइत अछि। ख, घ, थ, घ, फ, भ ई सभ ह भऽ जाइत अछि। जेना नायकः=
णाअगु, आगतः= आगदो, दीप=दीब=दीव। मुख= मुह, सखी= सही, मेघ= मेह, लघुक= लहुअ, यूथ=
जूह, रुधिर= रुहिर, वधू= वहू, शाफर= साहर, अभिनव= अहिणव।
कखनो काल मध्यक
व्यंजन दोबर भऽ जाइत अछि। जेना एक= एक्क
मध्यक ट, ठ
क्रमसँ ड, ढ भऽ जाइत अछि। जेना कुटुम्ब= कुडुम्ब, पठन= पढण
मध्यक प, ब
परिवर्तित भऽ व बनि जाइत अछि। जेना दीप= दीव। शबर= सवर।
ड, त, द
परिवर्तित भऽ ल बनि जाइत अछि। जेना क्रीडा= कीला, सातवाहन= सालवाहण, दोहद= दोहल।
म परिवर्तित भऽ
व बनि जाइत अछि। जेना ग्राम= गाँव।
अन्तिम स्प्रश
वर्णक लोप होइत अछि, अन्तिम अनुनासिकमे अनुस्वार नहि होइत अछि, अः बदलि कऽ ओ भऽ
जाइत अछि वा ओकर लोप भऽ जाइत अछि।
मोटा-मोटी शब्दक
प्रारम्भमे एकेटा व्यंजन आ मध्यमे बेशीसँ बेशी दूटा व्यंजन सेहो द्वित्वमे जेना
क्क वा क्ख रूपमे रहैत अछि।
व्यंजनक बलक
अनुरूपेँ निम्न प्रकारक क्रम होइत अछि।(अ) कवर्ग, चवर्ग,, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग मे
क (सभसँ बेशी बलगर) सँ भ (क्रमसँ कम बलगर) धरि, सभ वर्गक पाँचम वर्ण छोड़ि कऽ। जेना कवर्गक ङ, चवर्गक ञ,
टवर्गक ण, तवर्गक न आ पवर्गक म छोड़ि कऽ। फेर (आ) कचटतप वर्गक पाँचम वर्ण। फेर (इ)
ल, स, व, य, र। एहिमे समानबलक वर्णमे बादबला वर्ण प्रबल होइत अछि, अन्यथा अधिक
बलबला बेशी बलगर होइत आछि। जेना- उत्पल= उप्पल, खड्ग= खग्ग, अग्नि= अग्गि। फेर जे
कचटतप वर्गक पाँचम वर्णक ओही वर्गक कोनो दोसर वर्ण होएत तँ पाँचम वर्ण ओहिना रहत,
नहि तँ ओकर परिवर्तन अनुस्वारमे भऽ जाएत। जेना क्रौञ्च= कोञ्च, दिङ्मुख= दिंमुह।
दोसर पदक
प्रारम्भमे ज्ञ रहलासँ ओ ज्ज बनि जाइत अछि। मनोज्ञ= मणोज्ज।
कचटतप वर्गक बाद
श, ष, स रहलासँ च्छ होइत अछि। जेना अप्सरा= अच्छरा, मत्सर= मच्छर।
क्ष बदलि कऽ क्ख
भऽ जाइत अछि।जेना दक्षिण= दक्खिण।
शौरसेनीमे क्ष
बदलि कऽ क्ख आ मागधीमे च्छ भऽ जाइत अछि। जेना कुक्षि= कुक्खि (शौरसेनी), कुच्छि
(मागधी)।
प्राकृतमे ऋ आ
लृ स्वर नहि होइत अछि। ऋ बदलि कऽ (अ) रि भऽ जाइत अछि। जेना ऋषि= रिषि, (आ) अ भऽ
जाइत अछि। जेना कृत= कद। (इ) इ भऽ जाइत अछि। जेना दृष्टि= दिट्ठि। (ई) उ भऽ जाइत
अछि। जेना पृच्छति= पुच्छदि।
ऐ, औ बदलि कऽ ए
भऽ जाइत अछि। जेना कौमुदी= कोमुदी।
संयुक्ताक्षरसँ
पूर्व ह्रस्व स्वर रहैत अछि।
उ बदलि कऽ अ वा
ओ भऽ जाइत अछि। जेना मुकुल= मउल। पुस्तक= पोत्थअ।
ऊ बदलि कऽ ओ भऽ
जाइत अछि। जेना मूल्य= मोल्ल।
ए बदलि कऽ इ भऽ
जाइत अछि। जेना एतेन= एदिणा।
ओ बदलि कऽ उ भऽ
जाइत अछि। जेना अन्योन्य= अण्णुण्ण।
अनुस्वार+ अपि=
पि आ अनुस्वार+इति= ति भऽ जाइत अछि। खलु= ख भऽ जाइत अछि।
य् बदलि कऽ इ भऽ
जाइत अछि। जेना कथयतु= कधेतु।
प्राकृतमे
अन्तिम व्यंजनक लोप भऽ जाइत अछि। व्यंजन सन्धिक मोटा-मोटी अभाव रहैत अछि।
स्वर सन्धिमे
सेहो मध्य वर्णक लोप भेलोपर सन्धि नहि होइत अछि।
शब्दरूपमे
द्विवचन खतम भऽ गेल। चतुर्थीक रूप षष्ठीमे मिलि गेल। व्यंजन अन्तबला शब्द खतम भऽ
गेल।
धातुरूपमे
शब्दरूपसँ बेशी अन्तर आएल। व्यंजन अन्तबला धातु खतम भऽ गेल। धातुरूप एक्के रीतिसँ
चलए लागल, द्विवचन खतम भऽ गेल, रूपक भिन्नता कम भऽ गेल। आत्मनेपद रूप मोटा-मोटी
खतम भऽ गेल। लिट्, लिङ्, लुङ् रूप सेहो मोटा-मोटी खतम भऽ गेल। भूतकाल लेल कृदन्त
प्रत्ययक प्रयोग होमए लागल। भ्वादिगण आ चुरादिगणक अलाबे सभ गण खतम भऽ गेल।
शौरसेनीमे द्य,
र्ज्, र्य् बदलि कऽ ज्ज् भऽ जाइत अछि।
शौरसेनी आ
माहाराष्ट्री- संस्कृतक मध्यक त शौरसेनीमे द भऽ जाइत अछि मुदा माहाराष्ट्रीमे ओ
लोपित भऽ जाइत अछि। जेना- संस्कृत- जानाति= शौरसेनी जाणादि= माहाराष्ट्री जाणाइ
संस्कृतक मध्यक
थ शौरसेनीमे घ मुदा माहाराष्ट्रीमे ह भऽ जाइत अछि। जेना संस्कृत अथ= शौरसेनी अघ=
माहाराष्ट्री अह।
दोसर पदक
प्रारम्भमे ज्ञ रहलासँ मागधीमे ञ्ञ बनि जाइत अछि।
मागधीमे श, ष, स
ई तीनू परिवर्तित भऽ श; र परिवर्तित भऽ ल; ज परिवर्तित भऽ य बनि जाइत अछि।
अकारान्त प्रथमा एकवचनमे ए लगैत अछि। जेना दरिद्र= दलिद्द।
मागधीमे ज बदलि
कऽ य भऽ जाइत अछि।
मागधीमे द्य,
र्ज्, र्य् बदलि कऽ य्य भऽ जाइत अछि।
मागधीमे ण्य,
न्य,ज्ञ,ञ्ज बदलि कऽ ञ्ञ भऽ जाइत अछि।
मागधीमे मध्यक
च्छ बदलि कऽ श्च भऽ जाइत अछि।
मागधीमे ष्क=
स्क वा श्क, ष्ट= स्ट वा श्ट, ष्प= स्प, ष्फ= स्फ भऽ जाइत अछि।
मागधीमे र्थ
बदलि कऽ स्त भऽ जाइत अछि।
विधिलिङ् क
प्रयोग जैन प्राकृत- अर्धमागधी आ जैन महाराष्ट्रीमे प्रचलित रहल, आन प्राकृतमे ई
मोटा-मोटी खतम भऽ गेल।
संस्कृतक तुम्
शौरसेनीमे दुं, मागधीमे सेहो दुं रहैत अछि मुदा महाराष्ट्रीमे उं भऽ जाइत अछि।
प्राकृतक
शौरसेनी, मागधी, महाराष्ट्रीक अतिरिक्त पैशाची प्राकृतक सेहो उल्लेख भेटैत अछि।
गुणाढ्यक वृहत्कथा एहि प्राकृतमे लिखल गेल जे आब स्वतंत्र रूपसँ उपलब्ध नहि अछि।
एकर उल्लेख उद्धरण रूपमे कखनो काल भेटैत अछि। ई पश्चिमोत्तर भारतक प्राकृत छल,
उद्धरण रूपमे उपलब्ध साहित्यक अनुसार एहिमे निम्न विशेषता छल। ण बदलि कऽ न भऽ गेल।
र बदलि कऽ ल भऽ गेल। ल बदलि कऽ र भऽ गेल। सघोष अघोष बनि गेल। दू स्वरक बीचक ल बदलि
कऽ ळ भऽ गेल। स्वरक बीचमे ष बदलि कऽ श वा स, ज्ञ बदलि कऽ न्य आ ण्य बदलि कऽ ञ्ञ भऽ
गेल। एहिमे आत्मनेपद आ परस्मैपद दुनू अछि।
पश्चिमोत्तरक
खोतानसँ प्राकृत धम्मपद खरोष्ठी लिपिमे दहिनसँ वाम लिखल लेख प्राप्त होइत अछि
जाहिमे श, ष, स तीनूक प्रयोग अछि।
मोटा-मोटी
प्राकृतमे शब्द-धातुरूपक सरलीकरणक प्रक्रिया दृष्टिगोचर होइत अछि, द्वित्व,
मूर्धन्यीकरण, अघोषीकरण आ सघोषीकरण, लकारक बदला कृदन्तक प्रयोग सेहो बढ़ि गेल।
३. अवहट्ट
अपभ्रंश जखन
समापनपर छल तखन मोटामोटी एगारहमसँ चौदहम शताब्दी धरि “अवहट्ठ” साहित्यिक भाषाक
रूपमे उपस्थित रहल। मैथिलीसँ एकर निकटताक कारण एकरा “मैथिल अपभ्रंश” सेहो कहल गेल
आ ई अपभ्रंशक प्रकारक रूपमे सेहो मर्यादित रहल।
विद्यापतिक
स्वयं कीर्तिलता आ कीर्तिपताकाक भाषाकेँ अवहट्ठ कहै छथि मुदा ताहूसँ पूर्व एहि
शब्दक प्रयोग भाषाक सन्दर्भमे पहराज केने छथि “पाउअकोस”मे। अद्दहमाण अपन कृति
संदेशरासकमे आ वंशीधर प्राकृत पंगलम् क टीकामे अवहट्ठक भाषाक रूपमे उलीख कएने छथि।
ज्योतिरीश्वर वर्णरत्नाकरमे लिखै छथि- “पुनु कइसन भाट- संस्कृत, पराकृत, अबहठ,
पैशाची, सौरसेनी, मागधी छहु भाषाक तत्वज्ञ”। अपभ्रंश परवर्ती कालमे पूर्वी
भारतमे अवहट्ठक रूप लेलक। मैथिलीक विशेषता जाहिमे एकर सभ शब्दक स्वरांत होएब,
क्रियारोपाक जटिल होएब (मुदा ताहिमे लैंगिक भेद नहि होएब), सर्वनामक सम्बन्ध कारक
रूप आदिक रूपरेखा अवहट्ठमे दृष्टिगोचर होएब शुरू भऽ गेल छल। खास कऽ विद्यापतिक
अवहट्ठमे मैथिली वर्तनीक इकार, ओकार, आ अनुनासिकक बदलामे “कचटतप”वर्गक पाँचम
अनुनासिक वर्णक प्रयोग देखबामे अबैत अछि मुदा हुनकर अवहट्ठ भाषामे कखनो काल बुझाइत अछि जे ई भाषा खाँटी मैथिली अछि तँ कखनो
एहिमे प्राकृत, फारसी, गुजराती-सौराष्ट्री अवधी आ कोशली भाषाक शब्दावलीक बेशी
प्रयोग भेटैत अछि। आ सैह कारण रहल होएत जे हुनकर अवहट्ठ सर्वदेशीय (राजशेखर कहै
छथि “विश्व-कुतुहली”) बनि सकल। एकर दूटा देवनागरी पाण्डुलिपि दू ठामसँ- गुजरातक
स्तम्भतीर्थमे आ उत्तर प्रदेशक फतेहपुर जिलाक असनी गाममे भेटल आ एकटा मिथिलाक्षरक
पाण्डुलिपि नेपालसँ भेटल। ऐतिहासिक आधारपर
भाषाक पारिवारिक वर्गीकरणमे अवहट्ठ (अवहट्ठ) केँ “मैथिल अपभ्रंश” ताहि कारणसँ कहल
जाइत अछि आ मागधी प्राकृतसँ सेहो एकर विकास दृष्टिगोचर होइत अछि। मैथिलीक स्थान
मोटा-मोटी संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आ अवहट्ठक ऐतिहासिक क्रममे अबैत अछि।
अवहट्ठ मैथिलीसँ लग रहितो शौरसेनी प्राकृत-अपभ्रंशसँ सेहो लग अछि, मुदा देशी शब्दक
प्रयोगसँ एहिमे अपभ्रंशसँ बहुत रास व्याकरणिक परिवर्तन देखा पड़ैत अछि। विद्यापतिक
“कीर्तिलता” अवहट्ठमे अछि, मुदा “चर्या गीत” आ “वर्ण रत्नाकर” कीर्तिलतासँ
पूर्ववर्ती होएबाक बादो पुरान मैथिली अछि आ अवहट्ठसँ सेहो लग अछि। दामोदर पंडितक “उक्ति व्यक्ति प्रकरण” सेहो कीर्तिलतासँ पूर्ववर्ती अछि मुदा पुरान अवधी आ पुरान
कोशलीक प्रतिमान प्रस्तुत करैत अछि आ अवहट्ठसँ लग अछि। संगे ईहो सत्य जे कीर्तिलता
आ कीर्तिपताकामे विद्यापति अवहट्ठक कतेको प्रकारसँ प्रयोग करै छथि। पहिने तँ ई
अपभ्रंशक पर्यायक रूपमे प्रयुक्त होइत छल मुदा जेना जेना अपभ्रंशक विशेषताकेँ ई
छोड़ैत गेल आ आधुनिक भारतीय भाषाक व्याकरणिक विशेषताक, खास कऽ मैथिलीक व्याकरणिक
विशेषताक आधार बनऽ लागल तखन ई अपभ्रंशसँ पृथक् अवहट्ठक रूप लेलक। एकर प्रमुख
व्याकरणिक विशेषता अछि- स्वर संयोग, क्षतिपूर्तिक लेल दीर्घीकरण, व्यंजनक अपन खास
विशेषता, रूपक विचार ( लिंग-वचन), निर्विभक्तिक प्रयोग, कारक-परसर्ग, कारक
विभक्ति, सर्वनाम, विशेषण, सार्वनामिक विशेषण, क्रिया, कृदन्त, आज्ञार्थक,
पूर्वकालिक, संयुक्त क्रिया, क्रिया विशेषण, शब्दावलीक विशेषता, पूर्व स्वरपर
स्वराघात, स्वर सानुनासिकतामे परिवर्तन, अकारण सानुनासिकताक प्रवृत्ति, एक संग
अनेक स्वरक प्रयोग, अक्षर लोप, परसर्गक स्थानपर मूल शब्द, सर्वनामक प्रचुरता,
क्रियापदक विकास आ वाक्य रचना।
अवहट्ठ भाषामे
जैन धर्मसँ सम्बन्धित रचना ढेर रास अछि आ ओहिमे शौरसेनीक प्रभाव अछि।अवहट्ठक मुख्य
क्षेत्र छल मान्यखेत, गुजरात, बंगाल आ मिथिला। जैन धर्मसँ सम्बन्धित लोक मुख्य
रूपसँ मान्यखेतमे रहथि। “वज्जालग्ग” श्वेताम्बर मुनि जयवल्लभ द्वारा संकलित
सुभाषितक संग्रह छथिजाहिमे अवहट्ठक प्रभाव दृष्टिगोचर होइत अछि।शालिभद्र सूरीक
“भरतेश्वर बाहुवली रास”, एकटा दोसर शालिभद्र सूरीक “पंच पाण्डव चरित”, स्थूलिभद्र
रास, जयशेखर सूरीक “नेमिनाथ फागु”, सकलकीर्तिक “सोलह कारण रास”क अतिरिक्त मौखिक
काव्य जेना बैद्ध सिद्ध साहित्य, डाक, धर्ममंगल काव्य, शून्यपुराण, माणिकचन्द्र
राजार गान, लोरिकाइन जनक मध्य आएल। अवहट्ठक बाद ब्रजबुली द्वारा राय रमानन्द,
शंकरदेव आ चैतन्यदव लोकभाषाक माध्यमसँ जन धरि पहुँचलाह। अवहट्ठक प्रभाव ब्रजबुली आ
मैथिलीपर पड़ल। द्वारा बारहम शताब्दीक
डाकार्णव नेपालमे रचित अछि जकर लिपि मिथिलाक्षर आ भाषा अवहट्ठ अछि। मिथिलामे
कर्णाट आ ओइनवार राजवंशक कालमे अवहट्ठमे रचना कएल गेल।सिद्ध साहित्य, बौद्धक
दोहाकोश-चर्यागीत आ ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकरमे अवहट्ठक प्रयोग प्रारम्भ भऽ गेल
छल। मुनिराम सिंहक पाहुड दोहा आ बौद्ध धर्मक वज्रयानक ग्रन्थमे सेहो अवहट्ठक रूप
देखबामे अबैत अछि। दामोदर पंडितक उक्तिव्यक्तिप्रकरण अवहट्ठमे रचित अछि, ई संस्कृत
सिखेबाक ग्रन्थ अछि। बारहम शताब्दीक पूर्वार्धमे उद्दहभाण “संदेश रासय”क रचना
कएलन्हि, रचयिता स्वयं एहि ग्रन्थक भाषाकेँ अवहट्ठ कहै छथि। प्राकृत् पैंगलम् -जे
छन्दशास्त्रक संकलन अछि आ जकर संकलनकर्ताक नाम अज्ञात अछि- क टीकाकार सेहो एहि
ग्रन्थक भाषाकेँ अवहट्ठ कहि सम्बोधित कएने छथि। विद्यापतिक कीर्तिलता आ
कीर्तिपताका सेहो अवहट्ठमे रचित भेल।
अवहट्ठक
अपभ्रंशसँ व्याकरणिक भिन्नता आ मैथिलीसँ सन्निकटता: दीर्घ मिश्र स्वर अछि- ए ऐ ओ
औ; पाणिनिसँ पूर्वक आचार्य एकरा सन्ध्यक्षर कहैत छलाह। संस्कृतक ऐ, औ क्रमसँ अइ,
अउ ध्वनि बनि गेल आ ओहिसँ किछु आर स्वर बहार भेल। संस्कृतक बादबला भाषा खास कऽ
मध्यकालिक भाषामे लगातार दू वा तीन स्वरक प्रयोगसँ ध्वनि आ लेखन दुनूमे विचित्रता
आएल। आधुनिक भाषाक लेल आवश्यक छल जे पुनः व्यंजनक बेशी प्रयोग कऽ, तत्समक बेशी
प्रयोग कऽ पूर्वस्थिति आनल जाए, जाहिसँ उच्चारण आ लेखन सरल भऽ सकए। क्रियाक अन्तमे
आ आन पदक सभ स्थानमे स्वरकेँ संयुक्त करब प्रारम्भ भेल। एहिमे “ऐ” आ “औ” अवहट्ठक
विशेषाता रूपमे परिगणित भेल। जेना टुट्टै=टूटै, गुण्णइ=गुणै, पइ=पै, रहइ=रहै,
करउ=करौ, चअउर=चौरा, दुण्णउ=दूणौ, तउ=तौ, आअउ=आऔ।
ऋ एहि तीन रूपमे ध्वनित होमए लागल। र्+अ, र्+इ , र्+उ आ
मध्य रूप माने रि (र्+इ) एहि रूपमे स्थिर होमए लागल। जेना अमृत= अमिअ एहिमे मृ=मि
भऽ गेल अछि।
स्वरमे किछु आर
परिवर्तन भेल। शब्द प्रारम्भक स्वरक दीर्घ होएब स्वाभाविक लगैत अछि, जेना
आँचल=आँचर। स्त्रीलिंगमे अन्तिम आ लुप्त होमए लागल जेना भिक्षा=भीख। स्वरक
बहुलताबला शब्दमे सन्धि आ लुप्तीकरण बढ़ल, जेना धरित्री=धरती, उपआस=उपास।
अपभ्रंशक
अंधआर=अंधार (संधि) बनि गेल।
कज्ज=काज बनि
गेल (दीर्घ)
अंचल=आँचर (अनुनासिक)
अंचल=आँचर (अनुनासिक)
व्यंजन ओहिना
रहल मुदा ण कम आ ञ बेशी प्रयोगमे आबए लागल आ ड़, ढ़ ई दुनू नव व्यंजन आएल। क्ष=क्+ष
बदलि कऽ ष्ख होमए लागल। न आ ल मे सेहो पर्याय बनल जेना नहिअ=लहिअ आइ काल्हि सेहो
मैथिलीमे लोर आ नोर दुनू बाजल जाइत अछि।
उ सँ अन्त
होमएबला संज्ञा रहल मुदा अ, आ, इ, ई, ऊ, ऐ ,ओ सेहो संज्ञाक अन्तमे आबए लागल। न्हि
अन्तिममे लगा कऽ बहुवचन बनेबाक प्रवृत्ति बढ़ल, जेना युवराजन्हि। द्विवचन खतम भऽ
गेल आ तकर बदला बहुवचनक प्रयोग भेल आ ताहि लेल सव्वउं (सभ)क प्रयोग प्रारम्भ भेल।
लिंगसँ विशेषणक
रूप परिवर्तन आ लुप्तविभक्ति-निर्विभक्तिक प्रयोग बेशी होमए लागल। विशेषणक रूप
परिवर्तित भेल। जेना अइस, एत्ते, कतहु, पहिल, चारु।
कारकक विभक्तिक
संग सन, सउं, क, माझ, केर, लागि आदिक प्रयोग होमए लागल।
पश्चिमी
अवहट्ठमे विभक्तिक प्रयोग घटल मुदा पूर्वी अवहट्ठमे ए, हि विभक्तिसँ ढेर रास काज
लेल गेल।
सर्वनाम कर्ता
लेल हौ, तोञ, सो आ संबंध लेल मोञ, तुम्ह, तिसु प्रयुक्त होमए लागल।
क्रियामे करउँ,
करसि, करथि प्रयुक्त होमए लागल। कृदन्त रूपमे पढ़न्ता, चलु, उपजु, गेल, भेल, कहल,
मारल, चलल, करहुं, कहसि, जाहि, पावथि प्रयुक्त होमए
लागल।
संयुक्त काल
जेना आवत्त हुअ प्रयुक्त होमए लागल।
भविष्यत् कालक
पूर्वी रूपमे व लगैत छल आ पछबरिया रूपमे ह लगैत छल।
क्रियाविशेषणमे
जनु, नहु,बिनु अबस प्रयुक्त होमए लागल।
पूर्व स्वरपर
स्वराघात, जेना: अक्खर= आखर।
सर्वनामक
संख्यामे वृद्धि भेल।
क्रियापदमे
विकासक फलस्वरूप कृदन्तक प्रयोग वर्तमानकालमे बेशी होमए लागल।
आब वाक्यमे
शब्दक स्थानक निर्धारण आवश्यक भऽ गेल। मोटामोटी कर्ता, कर्म आ आखिरीमे क्रिया राखल
जाए लागल।
संयुक्त कालक
प्रयोग सेहो आरम्भ भेल।
शब्दक पहिल
अक्षरक स्वरक दीर्घ होएबाक प्रवृत्ति अवहट्ठमे बेशी अछि, स्त्रीलिंग शब्दमे शब्दक
अन्तिम अक्षरक आ लुप्त होमए लागल। अनुनासिक शब्दक संख्यामे वृद्धि भेल। संज्ञाक
लंग आ वचन तँ दुइयेटा रहल मुदा एकवचनक प्रयोग बहुवचनमे होमए लागल।प्रातिपदिक
अधिकांशतः स्वरान्त अछि आ अकारान्त सेहो।विभक्तिक बदलामे परसर्गक प्रयोग होमए
लागल। अपादान लेल हुंते, सउँ प्रयोगमे आबए लागल आ अधिकरण लेल माँझ, उप्परि आ एहि
दुनू (अपादान आ अधिकरण) लेल कखनो काल चन्द्रबिन्दु टासँ काज चलि गेल, “हिं”
विभक्ति सेहो कतेको कारकक लेल प्रयुक्त भेल आ “ए” विभक्ति सँ कर्म, करण, अधिकरण
सभटाक भान होमए लागल। संज्ञाक एहि तरहक सरलीकरण सर्वनाममे सेहो देखबामे अबैत अछि।
क्रियाक निर्माणमे सरलता आएल आ से भेल कृदन्तक बेशी प्रयोगसँ आ संयुक्त क्रियाक
बढ़ोत्तरीसँ। भूतकाल “ल” लगा कऽ सेहो बनए लागल, आ भविष्यत् काल “व” लगा कऽ सेहो,
जेना थाकल, पढ़ब जे बादमे मैथिलीमे सेहो आएल।
पूर्व स्वरपर
स्वराघात आ स्वरक क्षतिपूरक दीर्घीकरण अवहट्ठक मुख्य
विशेषता अछि। अपभ्रंशक अक्खर, ठक्कुर आ नच्चइ क्रमसँ आखर, ठाकुर आ नाचइ भऽ गेल।
स्वरक सानुनासिकतामे परिवर्तन भेल जाहिसँ पुरान निअममे परिवर्तन भेल। पहिने स्पर्श
व्यंजनमे अनुस्वारक अभाव छल आ कचटतप क पाँचम वर्ण तकर बदलामे संयुक्त भऽ प्रयुक्त
होइत छल। अपवादमे य सँ ह धरिक वर्णक उपस्थितिअहिमे अनुस्वार लगैत छल। पूर्व स्वरपर
स्वराघात आ क्षतिपूरक दीर्घीकरणक अतिरिक्त युक्ताक्षरक पूर्वस्वरपर स्वराघातक संग
अनुस्वार आबए लागल, जेना- ऊसास/ आंग/ आँकुस/ आँचर/ काँट/ लाँघि/ पाँच/ चाँद/ आँगन/
क्रमसँ
उस्सास/ अंग/
अंकुस/ अंचल/ कण्टक/ लघ्/ पंच/ चन्द्र/ अंगण/ क बदलामे आबि गेल। स्वरक
क्षतिपूरक दीर्घीकरणक अतिरिक्त अनुस्वारकेँ ह्रस्व कएल जाए लागल आ आधुनिक मैथिलीक
अकारण आनुनासिकताक प्रवृत्तिक आरम्भ भेल, जेना- कज्ज=काँज, कच्चुः=काँच,
भग्ग=भाँग, ओष्ठ=ओंदिम।
अक्षर लोप: संकोच वा अक्षर
लोपक कारणसँ अन्धकार=अन्हार, देवकुल= देउर, देवगृह=देवहा, कोट्टशीर्ष=कोसीस,
उपवास=उपास, उत्तिष्ठ=उँट, सहकार=सहार, स्वर्णकार=सोनार, सुन्नाअर=सुन्नार,
सहयार=साहार भऽ गेल।
परसर्गक
प्रयोगमे वृद्धि: अपभ्रंशक परसर्गक प्रयोगमे अवहट्ठ कालमे आर वृद्धि भेल।
जेना-
कर्ता- एन्ने
करण-सन, सउं
सम्प्रदान-लागि,
लग्गि, लागे, प्रति, कारण
अपादान-सओ, हुत,
हुते, हुंति, सिउ
संबंध- केर, कर,
के, करेउ, कइ, क
अधिकरण- माझ,
ऊपर, माँझ, भीतर, माहि
सर्वनामक
आधिक्य: कीर्तिलतामे जेन्ने, आ आन ठाम मोर, मेरहु, तोरा, तोहार,
तोहर, तोरा आदि सर्वनामक प्रयोग प्रारम्भ भेल। संबधवाचक सर्वनाम- जञोन, जेन्ने,
जस, जसु, जे; प्रश्न वाचक- केहु, कोए; अनिश्चयवाचक- कोइ, केहु; निजवाचक- अपन,
अपनेहु, निअ आदिक प्रयोग होमए लागल।
कृदन्तक प्रयोग
क्रियापदक विकसित रूप: आब कृदन्तक प्रयोगमे वृद्धि भेल जेना भूतकालक कृदन्तक
प्रयोग वर्तमान जेकाँ होएब आ कखनो काल अपन पूर्ण रूपमे सेहो होएब।
वर्तमान लेल
कृन्तक प्रयोग पढ़न्ता, कहन्ता, आवन्ता; भविष्यत् काल लेल करहुं, करिहि आ भूतकाल
लेल कृदन्तक प्रयोग जेना चलु, लागु क प्रयोग भेल।
“अन्त” सँ
आधुनिक “ता” निकलल अछि आ “अन्त” क प्रयोग बढ़ि गेल। संयुक्त क्रियाक प्रयोग
प्रारम्भ भऽ गेल- जेना “ले” जोड़ि कऽ क्रिया बनाएब “खाइले”; सामर्थ्यसूचक पार आ
आरम्भसूचक चाह/ लागु क प्रयोग आरम्भ भेल।
४.मैथिली
ऐतिहासिक आधारपर
भाषाक पारिवारिक वर्गीकरणमे अवहट्ठकेँ “मैथिल अपभ्रंश” ताहि कारणसँ कहल जाइत अछि आ
मागधी प्राकृतसँ सेहो एकर विकास दृष्टिगोचर होइत अछि। अवहट्ठ मैथिलीसँ लग रहितो
शौरसेनी प्राकृत-अपभ्रंशसँ सेहो लग अछि, मुदा देशी शब्दक प्रयोगसँ एहिमे अपभ्रंशसँ
बहुत रास व्याकरणिक परिवर्तन देखा पड़ैत अछि। विद्यापतिक “कीर्तिलता” अवहट्ठमे अछि,
मुदा “चर्या गीत” आ “वर्ण रत्नाकर” कीर्तिलतासँ पूर्ववर्ती होएबाक बादो पुरान
मैथिली अछि आ अवहट्ठसँ सेहो लग अछि। भारोपीय भाषा परिवारमे मैथिलीक स्थान
मोटा-मोटी संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आ अवहट्ठक ऐतिहासिक क्रममे अबैत अछि।
ध्वनि: दन्त न क
उच्चारणमे दाँतमे जीह सटत- जेना बाजू नाम , मुदा ण क उच्चारणमे जीह मूर्धामे सटत (नहि सटैए तँ उच्चारण
दोष अछि)- जेना बाजू गणेश। तालव्य शमे जीह तालुसँ , षमे
मूर्धासँ आ दन्त समे दाँतसँ सटत। निशाँ, सभ आ शोषण बाजि कऽ देखू। मैथिलीमे ष केँ वैदिक
संस्कृत जेकाँ ख सेहो उच्चरित कएल जाइत अछि, जेना वर्षा, दोष। य अनेको
स्थानपर ज जेकाँ उच्चरित होइत अछि आ ण ड़ जेकाँ (यथा संयोग आ गणेश संजोग आ गड़ेस
उच्चरित होइत अछि)। मैथिलीमे व क उच्चारण ब, श क उच्चारण स आ
य क उच्चारण ज सेहो होइत अछि।
ओहिना ह्रस्व इ
बेशीकाल मैथिलीमे पहिने बाजल जाइत अछि कारण देवनागरीमे आ मिथिलाक्षरमे ह्रस्व इ
अक्षरक पहिने लिखलो जाइत आ बाजलो जएबाक चाही। कारण जे हिन्दीमे एकर दोषपूर्ण
उच्चारण होइत अछि (लिखल तँ पहिने जाइत अछि मुदा बाजल बादमे जाइत अछि), से शिक्षा
पद्धतिक दोषक कारण हम सभ ओकर उच्चारण दोषपूर्ण ढंगसँ कऽ रहल छी।
पानि-पाइन-पैन
अछि- अ इ छ ऐछ
छथि- छ इ थ – छैथ
पहुँचि- प हुँ इ
च
तखन प्रश्न उठैत
अछि जे “छथि” केँ छैथ लिखबामे की हर्ज? हर्ज अछि, कारण मिथिलाक बहुतो क्षेत्रमे
छथि, छथी, पानि, पानी, पहुँचि, पहुँची सेहो बाजल जाइत अछि। से पानि, रहथि, पहुँचि
लिखलासँ सभ क्षेत्रक प्रतिनिधित्व होइत अछि।
आब अ आ इ ई ए ऐ
ओ औ अं अः ऋ एहि सभ लेल मात्रा सेहो अछि, मुदा एहिमे ई ऐ ओ औ अं अः ऋ केँ संयुक्ताक्षर रूपमे गलत
रूपमे प्रयुक्त आ उच्चरित कएल जाइत अछि। जेना ऋ केँ री रूपमे उच्चरित करब। आ देखियौ- एहि लेल देखिऔ क प्रयोग
अनुचित। मुदा देखिऐ लेल देखियै अनुचित। क् सँ ह् धरि अ सम्मिलित भेलासँ क सँ ह
बनैत अछि, मुदा उच्चारण
काल हलन्त युक्त शब्दक अन्तक उच्चारणक प्रवृत्ति बढ़ल अछि, मुदा हम जखन
मनोजमे ज् अन्तमे बजैत छी, तखनो पुरनका लोककेँ बजैत सुनबन्हि- मनोजऽ, वास्तवमे ओ अ
युक्त ज् = ज बजै छथि।
फेर ज्ञ अछि ज्
आ ञ क संयुक्त मुदा गलत उच्चारण होइत अछि- ग्य। ओहिना क्ष अछि क् आ ष क संयुक्त
मुदा उच्चारण होइत अछि छ। फेर श् आ र क संयुक्त अछि श्र ( जेना श्रमिक) आ
स् आ र क संयुक्त अछि स्र (जेना मिस्र)। त्र भेल त+र ।
फेर केँ
/ सँ / पर पूर्व अक्षरसँ सटा कऽ लिखू मुदा तँ/ के/ कऽ
हटा कऽ। एहिमे सँ मे पहिल सटा कऽ लिखू आ बादबला हटा कऽ। अंकक बाद टा लिखू
सटा कऽ मुदा अन्य ठाम टा लिखू हटा कऽ– जेना छहटा मुदा सभ टा। फेर ६अ म सातम लिखू-
छठम सातम नहि। घरबलामे बला मुदा घरवालीमे वाली प्रयुक्त करू।
रहए- रहै मुदा
सकैए (उच्चारण सकै-ए)।
मुदा कखनो काल
रहए आ रहै मे अर्थ भिन्नता सेहो, जेना से कम्मो जगहमे पार्किंग करबाक अभ्यास रहै
ओकरा। पुछलापर पता लागल जे ढुनढुन नाम्ना ई ड्राइवर कनाट प्लेसक पार्किंगमे काज
करैत रहए।
छलै, छलए मे सेहो एहि
तरहक भेल। छलए क उच्चारण छल-ए सेहो।
संयोगने-
(उच्चारण संजोगने)
केँ/ के / कऽ
केर- क (केर
क प्रयोग नहि करू )
क (जेना रामक) –रामक आ संगे
(उच्चारण राम के / राम कऽ सेहो)
सँ- सऽ
चन्द्रबिन्दु आ
अनुस्वार- अनुस्वारमे कंठ धरिक प्रयोग होइत अछि मुदा चन्द्रबिन्दुमे नहि।
चन्द्रबिन्दुमे कनेक एकारक सेहो उच्चारण होइत अछि- जेना रामसँ- (उच्चारण राम सऽ) रामकेँ-
(उच्चारण राम कऽ/ राम के सेहो)।
केँ जेना रामकेँ
भेल हिन्दीक को (राम को)- राम को= रामकेँ
क जेना रामक भेल
हिन्दीक का ( राम का) राम का= रामक
कऽ जेना जा कऽ
भेल हिन्दीक कर ( जा कर) जा कर= जा कऽ
सँ भेल हिन्दीक
से (राम से) राम से= रामसँ
सऽ तऽ त केर एहि
सभक प्रयोग अवांछित।
के दोसर अर्थेँ
प्रयुक्त भऽ सकैए- जेना के कहलक?
नञि, नहि, नै, नइ, नँइ, नइँ एहि सभक
उच्चारण- नै
अ कखनो काल ओ भऽ
जाइत अछि जेना मन=मोन, वन=बोन (वर्तुल)
अ कखनो काल आ भऽ
जाइत अछि, जेना- फंदा=फान, चन्द्र=चान (स्वराघात)
घर=घऽर
(उच्चारण) (स्वराघात)
बुद्ध=बुद्धऽ
(उच्चारण) (स्वराघात)
घमसान=घमऽसान
(दीर्घक पहिनेक ह्रस्व स्पश्ट उच्चरित- स्वराघात)
“इ” क पहिने “आ”
रहलापर “ऐ” उच्चरित होइत अछि- जेना पानि=पैन, मुदा विभिन्न क्षेत्रमे पानी, पानि
बाजल जाइत अछि तेँ वर्तनीमे पानि, आगि लिखब उचिते अछि।
आ कखनो काल अ भऽ
जाइत अछि, जेना काका=कक्का।
इ कखनो काल ओ भऽ
जाइत अछि जेना रिवाज=रेबाज।
ऋ कखनो काल इ/
ई/ ऊ भऽ जाइत अछि जेना कृष्ण=किसुन, पृष्ठ=पीठ, वृद्ध=बूढ़।
अन्तमे “ई” क
बदलामे इ लिखल जाइत अछि।
ऋ कखनो काल अ भऽ
जाइत अछि जेना- वृषभ=बसहा, अहृदी=अहदी।
उ कखनो काल ओ भऽ
जाइत अछि जेना दुकान=दोकान
ऊ कखनो काल ओ भऽ
जाइत अछि जेना मूल्य=मोल।
अए कखनो काल ए
भऽ जाइत अछि जेना कएलनि=केलनि।
ऐ कखनो काल अइ/
अए भऽ जाइत अछि जेना भैया=भइया, पैर=पएर।
आ+ओ कखनो काल औ
भऽ जाइत अछि जेना गमाओल=गमौल।
क कखनो काल ख/ ग
भऽ जाइत अछि जेना पुष्करि=पोखरि, भक्त=भगत।
ष कखनो काल
शब्दक प्रारम्भ वा अन्तमे रहलापर ख भऽ जाइत अछि जेना षष्ठी=खष्ठी, भेष-भूषा=भेख-भूखा।
क्ष कखनो काल ख
भऽ जाइत अछि जेना क्षीर=खीर।
ज्ञ कखनो काल ग
भऽ जाइत अछि जेना यज्ञ=जाग।
ग कखनो काल घ भऽ
जाइत अछि जेना गर्ग=घाघ।
त्य कखनो काल च
भऽ जाइत अछि जेना सत्य=साँच।
त्स्य कखनो काल
छ भऽ जाइत अछि जेना मत्स्य=माँछ।
य कखनो काल
शब्दक प्रारम्भमे रहलापर ज भऽ जाइत अछि जेना यम=जम।
द्य कखनो काल ज
भऽ जाइत अछि जेना विद्युत=बिजुली।
ध्य कखनो काल झ
भऽ जाइत अछि जेना वंध्या=बाँझ।
त कखनो काल ट भऽ
जाइत अछि जेना कर्तन=काटब।
न्थ कखनो काल ठ
भऽ जाइत अछि जेना ग्रन्थि=गेंठ।
द कखनो काल ड भऽ
जाइत अछि जेना दण्ड=डाँट।
त कखनो काल
लुप्त भऽ जाइत अछि जेना जाइत=जाइ।
स्त कखनो काल थ
भऽ जाइत अछि जेनाप्रस्तर=पाथर।
द कखनो काल ड भऽ
जाइत अछि जेना दाह=डाह।
ध कखनो काल
शब्दक अन्तमे रहलापर दह भऽ जाइत अछि जेना गधा=गदहा।
ल कखनो काल न भऽ
जाइत अछि आ न कखनो काल ल भऽ जाइत अछि जेना नोर=लोर।
प कखनो काल फ भऽ
जाइत अछि जेना पाश=फाँस।
फ कखनो काल “प”
आ “ह” भऽ जाइत अछि जेना बेवकूफ=बेकूफ।
ब कखनो काल म भऽ
जाइत अछि जेना शैबाल=सेमार।
म्भ कखनो काल म
भऽ जाइत अछि जेना खम्भा=खमहा।
म्ब कखनो काल म
भऽ जाइत अछि जेना कम्बल=कम्मल।
ल कखनो काल र भऽ
जाइत अछि जेना हल=हर।
व कखनो काल भ भऽ
जाइत अछि जेना वाष्प=भाप।
ह कखनो काल
शब्दक अन्तमे रहलापर लुप्त भऽ जाइत अछि जेना गेलाह=गेला।
त्त्व क बदलामे
त्व जेना महत्वपूर्ण (महत्त्वपूर्ण नहि) जतए अर्थ बदलि जाए ओतहि मात्र तीन अक्षरक
संयुक्ताक्षरक प्रयोग उचित। सम्पति- उच्चारण स म्प इ त (सम्पत्ति नहि- कारण सही
उच्चारण आसानीसँ सम्भव नहि)। मुदा सर्वोत्तम (सर्वोतम नहि)।
मे केँ सँ पर
(शब्दसँ सटा कऽ) तँ कऽ धऽ दऽ (शब्दसँ हटा कऽ) मुदा दूटा वा बेशी विभक्ति संग
रहलापर पहिल विभक्ति टाकेँ सटाऊ।
एकटा दूटा (मुदा
कैक टा)
बिकारीक प्रयोग
शब्दक अन्तमे, बीचमे अनावश्यक
रूपेँ नहि। आकारान्त आ अन्तमे अ क बाद बिकारीक प्रयोग नहि (जेना दिअ, आ )
अपोस्ट्रोफीक
प्रयोग बिकारी (ऽ -संस्कृतमे एकरा अवग्रह आ बांग्लामे जफला कहल जाइत अछि) क बदलामे
करब अनुचित आ मात्र फॉन्टक तकनीकी न्यूनताक परिचायक)- ओना बिकारीक संस्कृत रूप ऽ
अवग्रह कहल जाइत अछि आ वर्तनी आ उच्चारण दुनू ठाम एकर लोप रहैत अछि/ रहि सकैत अछि
(उच्चारणमे लोप रहिते अछि)। मुदा अपोस्ट्रोफी सेहो अंग्रेजीमे पसेसिव केसमे होइत
अछि आ फ्रेंचमे शब्दमे जतए एकर प्रयोग होइत अछि जेना raison
d’etre एतए सेहो एकर उच्चारण रैजौन डेटर होइत अछि, माने
अपोस्ट्रॉफी अवकाश नहि दैत अछि वरन जोड़ैत अछि, से एकर प्रयोग बिकारीक बदला देनाइ तकनीकी रूपेँ सेहो
अनुचित)।
मैथिलीक
मात्रात्मक आघातमे ह्रस्व स्वरपर आघात पड़लापर ओ दीर्घ भऽ जाइत अछि।शब्दमे जौँ
दीर्घ स्वर रहत तँ आघात ओहिपर, दीर्घ नहि रहत तँ उपान्त्य स्वरपर आ जतए दूटा दीर्घ लगातार
अछि ओतए सेहो उपान्त्य दीर्घपर आघात पड़ैत अछि।पा’नि, ओसा’रा। बलात्मक
आघात सेहो गपपर जोर देबा काल प्रयुक्त होइत अछि जेना- अपन=अप्पन। जाहि
स्वरपर आघात पड़त तकर पूर्वक सभ स्वर ह्रस्व भऽ जाइत अछि।
मैथिलीक उच्चारण
आ लेखनक विशेषता:
१.पञ्चमाक्षर
आ अनुस्वार: पञ्चमाक्षरान्तर्गत ङ, ञ, ण, न एवं म अबैत अछि। संस्कृत भाषाक अनुसार शब्दक अन्तमे जाहि
वर्गक अक्षर रहैत अछि ओही वर्गक पञ्चमाक्षर अबैत अछि। जेना-
अङ्क (क वर्गक
रहबाक कारणे अन्तमे ङ् आएल अछि।)
पञ्च (च वर्गक
रहबाक कारणे अन्तमे ञ् आएल अछि।)
खण्ड (ट वर्गक
रहबाक कारणे अन्तमे ण् आएल अछि।)
सन्धि (त वर्गक
रहबाक कारणे अन्तमे न् आएल अछि।)
खम्भ (प वर्गक
रहबाक कारणे अन्तमे म् आएल अछि।)
उपर्युक्त बात
मैथिलीमे कम देखल जाइत अछि। पञ्चमाक्षरक बदलामे अधिकांश जगहपर अनुस्वारक प्रयोग
देखल जाइछ। जेना- अंक, पंच, खंड, संधि, खंभ आदि। व्याकरणविद पण्डित गोविन्द झाक कहब छनि जे कवर्ग, चवर्ग आ
टवर्गसँ पूर्व अनुस्वार लिखल जाए तथा तवर्ग आ पवर्गसँ पूर्व पञ्चमाक्षरे लिखल जाए।
जेना- अंक, चंचल, अंडा, अन्त तथा
कम्पन। मुदा हिन्दीक निकट रहल आधुनिक लेखक एहि बातकेँ नहि मानैत छथि। ओ लोकनि अन्त
आ कम्पनक जगहपर सेहो अंत आ कंपन लिखैत देखल जाइत छथि।
नवीन पद्धति
किछु सुविधाजनक अवश्य छैक। किएक तँ एहिमे समय आ स्थानक बचत होइत छैक। मुदा कतोक
बेर हस्तलेखन वा मुद्रणमे अनुस्वारक छोट सन बिन्दु स्पष्ट नहि भेलासँ अर्थक अनर्थ
होइत सेहो देखल जाइत अछि। अनुस्वारक प्रयोगमे उच्चारण-दोषक सम्भावना सेहो ततबए
देखल जाइत अछि। एतदर्थ कसँ लऽ कऽ पवर्ग धरि पञ्चमाक्षरेक प्रयोग करब उचित अछि। यसँ
लऽ कऽ ज्ञ धरिक अक्षरक सङ्ग अनुस्वारक प्रयोग करबामे कतहु कोनो विवाद नहि देखल
जाइछ।
२.ढ आ ढ़
: ढ़क उच्चारण “र् ह”जकाँ होइत अछि। अतः जतऽ “र् ह”क उच्चारण हो ओतऽ मात्र ढ़ लिखल
जाए। आन ठाम खाली ढ लिखल जएबाक चाही। जेना-
ढ = ढाकी, ढेकी, ढीठ, ढेउआ, ढङ्ग, ढेरी, ढाकनि, ढाठ आदि।
ढ़ = पढ़ाइ, बढ़ब, गढ़ब, मढ़ब, बुढ़बा, साँढ़, गाढ़, रीढ़, चाँढ़, सीढ़ी, पीढ़ी आदि।
उपर्युक्त शब्द
सभकेँ देखलासँ ई स्पष्ट होइत अछि जे साधारणतया शब्दक शुरूमे ढ आ मध्य तथा अन्तमे ढ़
अबैत अछि। इएह नियम ड आ ड़क सन्दर्भ सेहो लागू होइत अछि।
३.व आ ब
: मैथिलीमे “व”क उच्चारण ब कएल जाइत अछि, मुदा ओकरा ब रूपमे नहि लिखल जएबाक चाही। जेना- उच्चारण :
बैद्यनाथ, बिद्या, नब, देबता, बिष्णु, बंश, बन्दना आदि।
एहि सभक स्थानपर क्रमशः वैद्यनाथ, विद्या, नव, देवता, विष्णु, वंश, वन्दना लिखबाक चाही। सामान्यतया व उच्चारणक लेल ओ प्रयोग
कएल जाइत अछि। जेना- ओकील, ओजह आदि।
४.य आ ज
: कतहु-कतहु “य”क उच्चारण “ज”जकाँ करैत देखल जाइत अछि, मुदा ओकरा ज
नहि लिखबाक चाही। उच्चारणमे यज्ञ, जदि, जमुना, जुग, जाबत, जोगी, जदु, जम आदि कहल जाएबला शब्द सभकेँ क्रमशः यज्ञ, यदि, यमुना, युग, यावत, योगी, यदु, यम लिखबाक
चाही।
५.ए आ य
: मैथिलीक वर्तनीमे ए आ य दुनू लिखल जाइत अछि।
प्राचीन वर्तनी-
कएल, जाए, होएत, माए, भाए, गाए आदि।
नवीन वर्तनी-
कयल, जाय, होयत, माय, भाय, गाय आदि।
सामान्यतया
शब्दक शुरूमे ए मात्र अबैत अछि। जेना एहि, एना, एकर, एहन आदि। एहि शब्द सभक स्थानपर यहि, यना, यकर, यहन आदिक
प्रयोग नहि करबाक चाही। यद्यपि मैथिलीभाषी थारू सहित किछु जातिमे शब्दक आरम्भोमे
“ए”केँ य कहि उच्चारण कएल जाइत अछि।
ए आ “य”क
प्रयोगक सन्दर्भमे प्राचीने पद्धतिक अनुसरण करब उपयुक्त मानि एहि पुस्तकमे ओकरे
प्रयोग कएल गेल अछि। किएक तँ दुनूक लेखनमे कोनो सहजता आ दुरूहताक बात नहि अछि। आ
मैथिलीक सर्वसाधारणक उच्चारण-शैली यक अपेक्षा एसँ बेसी निकट छैक। खास कऽ कएल, हएब आदि कतिपय
शब्दकेँ कैल, हैब आदि रूपमे
कतहु-कतहु लिखल जाएब सेहो “ए”क प्रयोगकेँ बेसी समीचीन प्रमाणित करैत अछि।
६.हि, हु तथा एकार, ओकार : मैथिलीक
प्राचीन लेखन-परम्परामे कोनो बातपर बल दैत काल शब्दक पाछाँ हि, हु लगाओल जाइत
छैक। जेना- हुनकहि, अपनहु, ओकरहु, तत्कालहि, चोट्टहि, आनहु आदि। मुदा आधुनिक लेखनमे हिक स्थानपर एकार एवं हुक
स्थानपर ओकारक प्रयोग करैत देखल जाइत अछि। जेना- हुनके, अपनो, तत्काले, चोट्टे, आनो आदि।
७.ष तथा ख
: मैथिली भाषामे अधिकांशतः षक उच्चारण ख होइत अछि। जेना- षड्यन्त्र (खड़यन्त्र), षोडशी (खोड़शी), षट्कोण (खटकोण), वृषेश (वृखेश), सन्तोष
(सन्तोख) आदि।
८.ध्वनि-लोप
: निम्नलिखित अवस्थामे शब्दसँ ध्वनि-लोप भऽ जाइत अछि:
(क) क्रियान्वयी
प्रत्यय अयमे य वा ए लुप्त भऽ जाइत अछि। ओहिमे सँ पहिने अक उच्चारण दीर्घ भऽ जाइत
अछि। ओकर आगाँ लोप-सूचक चिह्न वा विकारी (’ / ऽ) लगाओल जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : पढ़ए
(पढ़य) गेलाह, कए (कय) लेल, उठए (उठय)
पड़तौक।
अपूर्ण रूप :
पढ़’ गेलाह, कऽ लेल, उठ’ पड़तौक।
पढ़ऽ गेलाह, कऽ लेल, उठऽ पड़तौक।
(ख) पूर्वकालिक
कृत आय (आए) प्रत्ययमे य (ए) लुप्त भऽ जाइछ, मुदा लोप-सूचक विकारी नहि लगाओल जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप : खाए
(य) गेल, पठाय (ए) देब, नहाए (य)
अएलाह।
अपूर्ण रूप : खा
गेल, पठा देब, नहा अएलाह।
(ग) स्त्री
प्रत्यय इक उच्चारण क्रियापद, संज्ञा, ओ विशेषण तीनूमे लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप :
दोसरि मालिनि चलि गेलि।
अपूर्ण रूप :
दोसर मालिन चलि गेल।
(घ) वर्तमान
कृदन्तक अन्तिम त लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप :
पढ़ैत अछि, बजैत अछि, गबैत अछि।
अपूर्ण रूप :
पढ़ै अछि, बजै अछि, गबै अछि।
(ङ) क्रियापदक
अवसान इक, उक, ऐक तथा हीकमे
लुप्त भऽ जाइत अछि। जेना-
पूर्ण रूप:
छियौक, छियैक, छहीक, छौक, छैक, अबितैक, होइक।
अपूर्ण रूप :
छियौ, छियै, छही, छौ, छै, अबितै, होइ।
(च) क्रियापदीय
प्रत्यय न्ह, हु तथा हकारक
लोप भऽ जाइछ। जेना-
पूर्ण रूप :
छन्हि, कहलन्हि, कहलहुँ, गेलह, नहि।
अपूर्ण रूप :
छनि, कहलनि, कहलौँ, गेलऽ, नइ, नञि, नै।
९.ध्वनि
स्थानान्तरण : कोनो-कोनो स्वर-ध्वनि अपना जगहसँ हटि कऽ दोसर ठाम चलि जाइत अछि।
खास कऽ ह्रस्व इ आ उक सम्बन्धमे ई बात लागू होइत अछि। मैथिलीकरण भऽ गेल शब्दक मध्य
वा अन्तमे जँ ह्रस्व इ वा उ आबए तँ ओकर ध्वनि स्थानान्तरित भऽ एक अक्षर आगाँ आबि
जाइत अछि। जेना- शनि (शइन), पानि (पाइन), दालि ( दाइल), माटि (माइट), काछु (काउछ), मासु (माउस) आदि। मुदा तत्सम शब्द सभमे ई निअम लागू नहि
होइत अछि। जेना- रश्मिकेँ रइश्म आ सुधांशुकेँ सुधाउंस नहि कहल जा सकैत अछि।
१०.हलन्त(्)क
प्रयोग : मैथिली भाषामे सामान्यतया हलन्त (्)क आवश्यकता नहि होइत अछि। कारण जे
शब्दक अन्तमे अ उच्चारण नहि होइत अछि। मुदा संस्कृत भाषासँ जहिनाक तहिना मैथिलीमे
आएल (तत्सम) शब्द सभमे हलन्त प्रयोग कएल जाइत अछि।
११. जे शब्द मैथिली-साहित्यक प्राचीन कालसँ आइ धरि जाहि
वर्त्तनीमे प्रचलित अछि, से सामान्यतः ताहि वर्त्तनीमे लिखल जाइत अछि- उदाहरणार्थ-
ग्राह्य
एखन
ठाम
जकर, तकर
तनिकर
अछि
अग्राह्य
अखन, अखनि, एखेन, अखनी
ठिमा, ठिना, ठमा
जेकर, तेकर
तिनकर। (वैकल्पिक रूपेँ ग्राह्य)
ऐछ, अहि, ए।
१२. निम्नलिखित तीन प्रकारक रूप वैकल्पिकतया अपनाओल जाइत अछि: भऽ गेल, भय गेल वा भए गेल। जा रहल अछि, जाय रहल अछि, जाए रहल अछि। कर’ गेलाह, वा करय गेलाह वा करए गेलाह।
१३. प्राचीन मैथिलीक ‘न्ह’ ध्वनिक स्थानमे ‘न’ लिखल जाइत अछि यथा कहलनि वा कहलन्हि।
१४. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ ततय लिखल जाइत अछि जत’ स्पष्टतः ‘अइ’ तथा ‘अउ’ सदृश उच्चारण इष्ट हो। यथा- देखैत, छलैक, बौआ, छौक इत्यादि।
१५. मैथिलीक निम्नलिखित शब्द एहि रूपे प्रयुक्त होयत: जैह, सैह, इएह, ओऐह, लैह तथा दैह।
१६. ह्र्स्व इकारांत शब्दमे ‘इ’ के लुप्त करब सामान्यतः अग्राह्य थिक। यथा- ग्राह्य देखि आबह, मालिनि गेलि (मनुष्य मात्रमे)।
१७. स्वतंत्र ह्रस्व ‘ए’ वा ‘य’ प्राचीन मैथिलीक उद्धरण आदिमे तँ यथावत राखल जाइत अछि, किंतु आधुनिक प्रयोगमे वैकल्पिक रूपेँ ‘ए’ वा ‘य’ लिखल जाइत अछि। यथा:- कयल वा कएल, अयलाह वा अएलाह, जाय वा जाए इत्यादि।
१८. उच्चारणमे दू स्वरक बीच जे ‘य’ ध्वनि स्वतः आबि जाइत अछि तकरा लेखमे स्थान वैकल्पिक रूपेँ देल जाइत अछि। यथा- धीआ, अढ़ैआ, विआह, वा धीया, अढ़ैया, बियाह।
१९. सानुनासिक स्वतंत्र स्वरक स्थान यथासंभव ‘ञ’ लिखल जाइत अछि वा सानुनासिक स्वर। यथा:- मैञा, कनिञा, किरतनिञा वा मैआँ, कनिआँ, किरतनिआँ।
२०. कारकक विभक्त्तिक निम्नलिखित रूप ग्राह्य:- हाथकेँ, हाथसँ, हाथेँ, हाथक, हाथमे। ’मे’ मे अनुस्वार सर्वथा त्याज्य थिक। ‘कऽ क वैकल्पिक रूप ‘केर’ राखल जा सकैत अछि।
२१. पूर्वकालिक क्रियापदक बाद ‘कय’ वा ‘कए’ अव्यय वैकल्पिक रूपेँ लगाओल जा सकैत अछि। यथा:- देखि कय वा देखि कए।
२२. माँग, भाँग आदिक स्थानमे माङ, भाङ इत्यादि लिखल जाइत अछि।
२३. अर्द्ध ‘न’ ओ अर्द्ध ‘म’ क बदला अनुसार नहि लिखल जाइत अछि, किंतु छापाक सुविधार्थ अर्द्ध ‘ङ’ , ‘ञ’, तथा ‘ण’ क बदला अनुस्वारो लिखल जा सकैत अछि। यथा:- अङ्क, वा अंक, अञ्चल वा अंचल, कण्ठ वा कंठ।
२४. हलंत चिह्न निअमतः लगाओल जाइत अछि, किंतु विभक्तिक संग अकारांत प्रयोग कएल जाइत अछि। यथा:- श्रीमान्, किंतु श्रीमानक।
२५. सभ एकल कारक चिह्न शब्दमे सटा कऽ लिखल जाइत अछि, हटा कऽ नहि, संयुक्त विभक्तिक हेतु फराक लिखल जाइत अछि, यथा घर परक।
२६. अनुनासिककेँ चन्द्रबिन्दु द्वारा व्यक्त कयल जाइत अछि। परंतु मुद्रणक सुविधार्थ हि समान जटिल मात्रापर अनुस्वारक प्रयोग चन्द्रबिन्दुक बदला कयल जा सकैत अछि। यथा- हिँ केर बदला हिं।
२७. पूर्ण विराम पासीसँ ( । ) सूचित कयल जाइत अछि।
२८. समस्त पद सटा कऽ लिखल जाइत अछि, वा हाइफेनसँ जोड़ि कऽ , हटा कऽ नहि।
२९. लिअ तथा दिअ शब्दमे बिकारी -संस्कृतमे एकरा अवग्रह आ बांग्लामे जफला कहल जाइत अछि- (ऽ) नहि लगाओल जाइत अछि।
३०. अंक देवनागरी रूपमे राखल जाइत अछि।
३१.किछु ध्वनिक लेल नवीन चिन्ह बनबाओल जएबाक चाही। जा ई नहि बनल अछि ताबत एहि दुनू ध्वनिक बदला पूर्ववत् अय/ आय/ अए/ आए/ आओ/ अओ लिखल जाइत अछि। आकि ऎ वा ऒ सँ व्यक्त कएल जाइत अछि।
ग्राह्य
एखन
ठाम
जकर, तकर
तनिकर
अछि
अग्राह्य
अखन, अखनि, एखेन, अखनी
ठिमा, ठिना, ठमा
जेकर, तेकर
तिनकर। (वैकल्पिक रूपेँ ग्राह्य)
ऐछ, अहि, ए।
१२. निम्नलिखित तीन प्रकारक रूप वैकल्पिकतया अपनाओल जाइत अछि: भऽ गेल, भय गेल वा भए गेल। जा रहल अछि, जाय रहल अछि, जाए रहल अछि। कर’ गेलाह, वा करय गेलाह वा करए गेलाह।
१३. प्राचीन मैथिलीक ‘न्ह’ ध्वनिक स्थानमे ‘न’ लिखल जाइत अछि यथा कहलनि वा कहलन्हि।
१४. ‘ऐ’ तथा ‘औ’ ततय लिखल जाइत अछि जत’ स्पष्टतः ‘अइ’ तथा ‘अउ’ सदृश उच्चारण इष्ट हो। यथा- देखैत, छलैक, बौआ, छौक इत्यादि।
१५. मैथिलीक निम्नलिखित शब्द एहि रूपे प्रयुक्त होयत: जैह, सैह, इएह, ओऐह, लैह तथा दैह।
१६. ह्र्स्व इकारांत शब्दमे ‘इ’ के लुप्त करब सामान्यतः अग्राह्य थिक। यथा- ग्राह्य देखि आबह, मालिनि गेलि (मनुष्य मात्रमे)।
१७. स्वतंत्र ह्रस्व ‘ए’ वा ‘य’ प्राचीन मैथिलीक उद्धरण आदिमे तँ यथावत राखल जाइत अछि, किंतु आधुनिक प्रयोगमे वैकल्पिक रूपेँ ‘ए’ वा ‘य’ लिखल जाइत अछि। यथा:- कयल वा कएल, अयलाह वा अएलाह, जाय वा जाए इत्यादि।
१८. उच्चारणमे दू स्वरक बीच जे ‘य’ ध्वनि स्वतः आबि जाइत अछि तकरा लेखमे स्थान वैकल्पिक रूपेँ देल जाइत अछि। यथा- धीआ, अढ़ैआ, विआह, वा धीया, अढ़ैया, बियाह।
१९. सानुनासिक स्वतंत्र स्वरक स्थान यथासंभव ‘ञ’ लिखल जाइत अछि वा सानुनासिक स्वर। यथा:- मैञा, कनिञा, किरतनिञा वा मैआँ, कनिआँ, किरतनिआँ।
२०. कारकक विभक्त्तिक निम्नलिखित रूप ग्राह्य:- हाथकेँ, हाथसँ, हाथेँ, हाथक, हाथमे। ’मे’ मे अनुस्वार सर्वथा त्याज्य थिक। ‘कऽ क वैकल्पिक रूप ‘केर’ राखल जा सकैत अछि।
२१. पूर्वकालिक क्रियापदक बाद ‘कय’ वा ‘कए’ अव्यय वैकल्पिक रूपेँ लगाओल जा सकैत अछि। यथा:- देखि कय वा देखि कए।
२२. माँग, भाँग आदिक स्थानमे माङ, भाङ इत्यादि लिखल जाइत अछि।
२३. अर्द्ध ‘न’ ओ अर्द्ध ‘म’ क बदला अनुसार नहि लिखल जाइत अछि, किंतु छापाक सुविधार्थ अर्द्ध ‘ङ’ , ‘ञ’, तथा ‘ण’ क बदला अनुस्वारो लिखल जा सकैत अछि। यथा:- अङ्क, वा अंक, अञ्चल वा अंचल, कण्ठ वा कंठ।
२४. हलंत चिह्न निअमतः लगाओल जाइत अछि, किंतु विभक्तिक संग अकारांत प्रयोग कएल जाइत अछि। यथा:- श्रीमान्, किंतु श्रीमानक।
२५. सभ एकल कारक चिह्न शब्दमे सटा कऽ लिखल जाइत अछि, हटा कऽ नहि, संयुक्त विभक्तिक हेतु फराक लिखल जाइत अछि, यथा घर परक।
२६. अनुनासिककेँ चन्द्रबिन्दु द्वारा व्यक्त कयल जाइत अछि। परंतु मुद्रणक सुविधार्थ हि समान जटिल मात्रापर अनुस्वारक प्रयोग चन्द्रबिन्दुक बदला कयल जा सकैत अछि। यथा- हिँ केर बदला हिं।
२७. पूर्ण विराम पासीसँ ( । ) सूचित कयल जाइत अछि।
२८. समस्त पद सटा कऽ लिखल जाइत अछि, वा हाइफेनसँ जोड़ि कऽ , हटा कऽ नहि।
२९. लिअ तथा दिअ शब्दमे बिकारी -संस्कृतमे एकरा अवग्रह आ बांग्लामे जफला कहल जाइत अछि- (ऽ) नहि लगाओल जाइत अछि।
३०. अंक देवनागरी रूपमे राखल जाइत अछि।
३१.किछु ध्वनिक लेल नवीन चिन्ह बनबाओल जएबाक चाही। जा ई नहि बनल अछि ताबत एहि दुनू ध्वनिक बदला पूर्ववत् अय/ आय/ अए/ आए/ आओ/ अओ लिखल जाइत अछि। आकि ऎ वा ऒ सँ व्यक्त कएल जाइत अछि।
मैथिली व्याकरणक
विशेषता: मैथिलीक विकास बौद्ध सिद्ध आचार्य, फेर कर्णाट आ
ओइनवार राजवंश, मल्ल राजवंश आ
मध्यकालक मैथिली आ आधुनिक मैथिलीक तथाकथित मानक आ पूब, पच्छिम, उत्तर, दक्षिण
भिन्नताक अनुसार परिवर्तित होइत रहल अछि आ मैथिली व्याकरण एहि सभ विशेषताकेँ संग
लऽ कऽ चलैत अछि।
मैथिलीमे सभ
शब्द स्वरांत, अ वृत्ताकार, ए, य, ऐ, यै, ओ, औ ई सभ स्पष्ट उच्चरित होइत अछि।
सम्बन्ध कारक लेल सँ, क, केर (बेशी पद्यमे प्रयुक्त) प्रयुक्त होइत अछि। संज्ञा
रूप कम-सरल (एकवचनसँ बहुवचन करबा लेल सभ आदि जोड़ि दियौ) मुदा क्रिया-धातुरूप बेशी
होइत अछि। आदर आ अनादरपूर्ण प्रयोगमे क्रियापदमे परिवर्तन होइत अछि। मैथिलीमे
क्रियाक रूप कर्ता आ वाक्यक दोसर संज्ञा, सर्वनाम (कर्तासँ सम्बद्ध) द्वारा
निर्धारित होइत अछि। मैथिलीमे क्रिया पुरुष-भेदक अनुरूप बदलैत अछि। मैथिलीमे ब
द्वारा भविष्यत् कालक अलाबे क्रियार्थी संज्ञा सेहो बनाओल जाइत अछि। ल प्रयुक्त कए
कृदन्त कहल, गेल मे परिवर्तन मैथिलीक विशिष्टता अछि।
मैथिलीमे शब्दक
भिन्न-भिन्न वर्णपर बलाघात होइत अछि। मैथिलीमे कारक विभक्तिसँ ओना तँ तिर्यक रूप
नहि देखबामे अबैत अछि, जेना गामक, मुदा सम्बन्ध कारकमे ई अपवाद अछि, जेना
साँझ-साँझुक। क्रियार्थ संज्ञा रूपमे सेहो तिर्यक रूप होइत अछि।
संज्ञा:कोनो वस्तुक
नाममे लघु, गुरु आ गुरुतर ई तीन रूप होइत अछि- मनोज्, मनोज, मनोजबा।
लिंग:लिंगरूप सरल
अछि। निर्जीवक लिंग पुल्लिंग भऽ गेल अछि। संज्ञामे लिंगसँ शब्दक रूप परिवर्तन नहि
होइत अछि मुदा विशेषण आ क्रियामे होइत अछि।
वचन:संज्ञामे वचनक
भिन्नतासँ परिवर्तन नहि होइत अछि। लोकनि, रास आदि शब्द जोड़ि कऽ तकर बोध कराओल जाइत
अछि। “हम” एकवचन अछि आ “हमसभ” बहुवचन।
विभक्ति:करण -ए- जेना काजे।
अधिकरण- आँ-हि- जेना परुकाँ, चोट्टहि ।
कारक: कर्ता- रिक्त,
कर्म- केँ, करण- सँ, संप्रदान- लए, अपादान- सँ, संबंध-क, केर(पद्यमे), अधिकरण—मे।
सर्वनाम:उत्तम पुरुष-
हम, हमे
मध्यम पुरुष-
तूँ, तोँ, अहाँ, अपने, ई
अन्य
पुरुष-ताहि, तकरा, तकर, हुनका, हुनि, ओकरा, हुनकर, ओकर, हिनका, एकर, हिनकर, जाहि,
जकरा, जकर, के, की, ककरा, अपन, कोन, किछु, केदन, केहनदन, कोनादन, एतबा, कतबा,
ततबा, ततेक।
क्रियाविशेषण: एतए, कहाँ,
कखन, जखन, जाबे, ताबे, आबे, आब, जहिआ, तहिआ, कहिआ, जेना, तेना, एम्हर, ओम्हर,
जेम्हर, तेम्हर, भर(दक्षिणभर)। कालबोधक-आइ, काल्हि, परसू, लगले, परुकाँ; स्थानबोधक-
जेना आगाँ, पाछाँ; प्रकारबोधक- जेना भने, कने-मने; संयोजक जेना मुदा, आर; सम्बोधन
जेना रौ, हौ; समुच्चयबोधक जेना ईह, छी; बलद्योतक जेना –ए ; नहि, भरिसक आदि विविध
क्रियाविशेषण होइत अछि।
उपसर्ग: अ, अन, अध,
अब, दु, नि, भरि, कम, ब, बद, बे, सर।
प्रत्यय: अक्कड़, अंत,
इल, आइन, आइ,आउ, आकू, आन, आना, आप, आयत, आर, इन, बाह, आरि, आरी, आहु, औन, इअल, इआ,
ई, गर, ऐत, ओड़, ओला, औटी, औती, ओना, औबिल, क, त, औत, आइ, बान, म, बला, हार, हा, ई,
कार, बाह, आनी, खाना, खोर, गरी, ची, बाज।
विशेषण:एहिमे आदर आ
लिंगक अनुसार परिवर्तन होइत अछि।सिलेबी, गोल, चर्की ई गाए-बड़द लेल प्रयुक्त होइत
अछि आ विशेषणसँ प्राणिक बोध भऽ जाइत अछि। पढ़ल (पुल्लिंग) आ पढ़लि (स्त्रीलिंग),
मझिला छौड़ा-माँझिल भाइ(आदर)।
क्रिया: वचन भेद मैथिली
क्रियामे नहि होइत अछि।पुरुषक अनुसार क्रियामे भेद अबैत अछि। आदर प्रदर्शनमे सेहो
क्रियारूप बदलैत अछि।तिङन्त मे लिंगभेद नहि होइत अछि मुदा कृदन्तमे लिंगक अनुसार
क्रियापद बदलि जाइत अछि। क्रिया कारकक अनुसार बदलैत अछि। एहि प्रकारसँ क्रिया देखि
कऽ मात्र ई पता लागत जे कर्ता आदरणीय अछि वा नहि, क्रियाक कर्म कोन पुरुषमे अछि आ
आदरणीय अछि वा नहि। क्रियाग चारि रूप जेना स्वयं मरब (मरैत अछि), मारब (मारैत
अछि), दोसरासँ मरबाएब (मरबैत अछि) आ कर्मवाचानुसार ककरो कहि कऽ मरबाएब (मरबबैत
अछि)- होइत अछि।
धातुरूप- मैथिलीमे लगभग
१२२५ धातुरूप दीनबन्धु झा संकलित कएने छथि जे पाणिनीक २००० धातुसँ कनिये कम अछि। आ
यैह १२२५ टा धातु मैथिली भाषाक स्वतंत्र अस्तित्वकेँ असगरे बनओने रखबा लेल
पर्याप्त अछि। किछु उदाहरण:
छक-
अविरोधपूर्वक अन्यक्रियासँ दबब अर्थमे- रूपलाल फुल तोड़बामे सोनेलालसँ छकलाह-जीतल
गेलाह।
ठक- परतारब, वञ्चना- ठक
बुड़िबककेँ ठकैत अछि- ओकर वस्तु लए लेबाक हेतु भ्रम उत्पन्न करबैत अछि।
डक- अपन उत्कट
गन्धक प्रसारण- हीँगु डकैत अछि-अपन तीव्र गन्धक प्रसार करैत अछि।
ढक- मिथ्या अपन
अतिप्रशंसा करब- जयलाल ढकैत छथि-अपन मिथ्या अति प्रशंसा बजैत छथि।
बक- अश्रव्य
बहुत बाजब- जयलाल बकैत छथि- नहि सुनबाक योग्य कथा बहुत बजैत छथि।
मक- हर्षसँ मालक
धावनक्रीड़ा- बाछा मकैत अछि, लीलसँ एम्हर ओम्हर दौगि रहल अछि।
बाल्मीकि
द्वारा सुन्दरकाण्डमे मानुषिमिह संस्कृताम्- संस्कृत आ मानुषी दुनू भाषाक ज्ञान
हनुमानजीसँ कहबाओल गेल अछि। ज्योतिरीश्वर वर्णरत्नाकरमे लिखै छथि- “पुनु कइसन
भाट- संस्कृत, पराकृत, अबहठ, पैशाची, सौरसेनी, मागधी छहु भाषाक तत्वज्ञ” संगहि
ज्योतिरीश्वर द्वारा सात “उपभाषक” चर्च भेल अछि। प्राकृतक कैकटा प्रकार छल।
ओहिमे मागधी प्राकृत मैथिली आ अन्य पूर्वी भारतक भाषाक विकासमे योगदान देलक।
अर्धमागधीमे जैन धर्मग्रन्थ आ पालीमे बौद्ध धर्मग्रन्थ लिखल गेल। कालिदासक संस्कृत
नाटकमे संस्कृतक अतिरिक्त अपभ्रंशक प्रयोग गएर अभिजात्य वर्गक लेल प्रयुक्त भेल तँ
चर्यापदक भाषा सेहो मागधी मिश्रित अपभ्रंश छल। मैथिली सहित आन आधुनिक भारतीय
आर्यभाषा दोसर प्राकृतसँ विकसित भेल सेहो देखि पड़ैत अछि। अपभ्रंश परवर्ती कालमे पूर्वी
भारतमे अवहट्ठक रूप लेलक। मैथिलीक विशेषता जाहिमे एकर सभ शब्दक स्वरांत होएब,
क्रियारूपक जटिल होएब (मुदा ताहिमे लैंगिक भेद नहि होएब), सर्वनामक सम्बन्ध कारक
रूप आदिक रूपरेखा अवहट्ठमे दृष्टिगोचर होएब शुरू भऽ गेल छ
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