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Sunday, April 8, 2012

राजदेव मण्डलक अम्बरा- गजेन्द्र ठाकुर



कविता: कविता लोक कम पढ़ैत अछि। संस्कृतसन भाषाक प्रचार-प्रसार लेल कएल जा रहल प्रयासक अंतर्गत सम्भाषण-शिविरमे सरल संस्कृतक प्रयोग होइत अछि। कथा-उपन्यासक आधुनिक भाषा सभसँ संस्कृतमे अनुवाद होइत अछि मुदा कविता ओहि प्रक्रियामे बारल रहैत अछि। कारण कविता कियो नै पढ़ैत अछि आ जै भाषा लेल शिविर लगेबाक आवश्यकता भऽ गेल अछि, तै भाषामे कविताक अनुवाद ऊर्जाक अनर्गल प्रयोग मानल जाइत अछि। मैथिलीमे स्थिति एहन सन भऽ गेल अछि, जे गाम आइ खतम भऽ जाए तँ ऐ भाषाक बाजएबलाक संख्या बड्ड न्यून भऽ जाएत। लोक सेमीनार आ बैसकीमे मात्र मैथिलीमे बजताह। मैथिली-उच्चारण लेल शिविर लगेबाक आवश्यकता तँ अनुभूत भइए रहल अछि। तँ एहि स्थितिमे मैथिलीमे कविता लिखबाक की आवश्यकता आ औचित्य ? समयाभावमे कविता लिखै छी, एहि गपपर जोर देलासँ ई स्थिति आर भयावह भऽ सोझाँ अबैत अछि। एहना स्थितिमे आस-पड़ोसक घटनाक्रम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, आक्षेप आ यात्रा-विवरणी यएह मैथिली कविताक विषय-वस्तु बनि गेल अछि। मुदा ऐ सभ लेल गद्यक प्रयोग किए नै ? कथाक नाट्य-रूपान्तरण रंगमंच लेल कएल जाइत अछि मुदा गद्यक रूपान्तरण कवितामे कोन उद्देश्यसँ। समयाभावमे लिखल जा रहल ऐ तरहक कविता सभक पाठक छथि गोलौसी केनिहार समीक्षक लोकनि आ स्वयं आमुखक माध्यमसँ अपन कविताक नीक समीक्षा केनिहार गद्यसँ पद्यमे रूपान्तरकार महाकवि लोकनि ! पद्य सर्जनाक मोल के बूझत ! व्यक्तिगत लौकिक अनुभव जे गहींर धरि नै उतरत तँ से तुकान्त रहला उपरान्तो उत्कृष्ट कविता नै बनि सकत। पारलौकिक चिन्तन कतबो अमूर्त रहत आ जे ओ लौकिकसँ नै मिलत तँ ओ सेहो अतुकान्त वा गोलौसी आ वादक सोंगरक अछैतहुँ सिहरा नै सकत। मनुक्खक आवश्यक अछि भोजन, वस्त्र आ आवास। आ तकर बाद पारलौकिक चिन्तन। जखन बुद्ध ई पुछै छथि जे ई सभ उत्सवमे भाग लेनिहार सभ सेहो मृत्युक अवश्यंभाविताकेँ जनै छथि? आ से जे जनै छथि तखन कोना उत्सवमे भाग लऽ रहल छथि। से आधुनिक मैथिली कवि जखन अपन भाषा-संस्कृतिक आ आर्थिक आधारक आधार अपना पएरक नीचाँसँ विलुप्त होइत देखै छथि आ तखनहु आँखि मूनि कऽ ओहि सत्यताकेँ नै मानैत छथि, तखन जे देश-विदेशक घटनाक्रमक वाद कवितामे घोसियाबए चाहै छथि, देशज आ दलित समाज लेल जे ओ उपकरि कऽ लिखऽ चाहै छथि, उपकार करऽ चाहै छथि, तँ ताहिमे धार नै आबि पबै अछि। मुदा जखन राजदेव मंडल कविता लिखै छथि-
....
टप-टप चुबैत खूनक बून सँ
धरती भऽ रहल स्नात
पूछि रहल अछि चिड़ै
अपना मन सँ ई बात
आबऽ बाला ई कारी आ भारी राति
कि नहि बाँचत हमर जाति...?
तँ से हमरा सभकेँ सिहरा दैत अछि। कविक कवित्वक जाति, ओइ चिड़ैक जाति आकि..। कोन गोलौसी आ आत्ममुग्ध आमुखक दरकार छै ऐ कविताकेँ। कोन गोलौसीक आ पंथक सोंगर चाही ऐ सम्वेदनाकेँ। तँ कविताकेँ उत्कृष्टता चाही। भाषा-संस्कृतिक आधार चाही। ओकरा खाली आयातित विषय-वस्तु नै चाही, जे ओकरापर उपकार करबाक दृष्टिएँ आनल गेल छै। ओकरा आयातित सम्वेदना सेहो नै चाही जे ओकर पएरक नीचासँ विलुप्त भाषा-संस्कृति आ आर्थिक आधारकेँ तकबाक उपरझपकी उपकृत प्रयास मात्र होअए। नीक कविता कोनो विषएपर लिखल जा सकैत अछि। बुद्धक मानवक भविष्यक चिन्ताकेँ लऽ कऽ असञ्जाति मनकेँ सम्बल देबा लेल सेहो, नै तँ लोक प्रवचनमे ढ़ोंगी बाबा लेल जाइते रहताह। समाजक भाषा-संस्कृति आ आर्थिक आधारक लेल सेहो, नै तँ मैथिली लेल शिविर लगाबए पड़त। बिम्बक संप्रेषणीयता सेहो आवश्यक, नै तँ कवि लेल पहिनेसँ वातावरण बनाबए पड़त आ हुनकर कविताक लेल मंचक ओरिआओन करए पड़त, हुनकर शब्दावली आ वादक लेल शिविर लगा कऽ प्रशिक्षण देल जएबाक आवश्यकता अनुभूत कएल जाएत आ से कवि लोकनि कइयो रहल छथि !
मिथिलाक भाषाक कोमल आरोह-अवरोह, एतुक्का सर्वहारा वर्गक सर्वगुणसंपन्नता, संगहि एतुक्का रहन-सहन आ सांस्कृतिक कट्टरता आ राजनीति, दिनचर्या, सामाजिक मान्यता, आर्थिक स्थिति, नैतिकता, धर्म आ दर्शन सेहो साहित्यमे अएबाक चाही। आ से नै भेने साहित्य एकभगाह भऽ जाएत, ओलड़ि जाएत, फ्रेम लगा कऽ टंगबा जोगड़ भऽ जाएत। कविता रचब विवशता अछि, साहित्यिक विवशता। जहिया मिथिलाक लोककेँ मैथिली भाषा सिखेबा लेल शिविर लगाओल जएबाक आवश्यकता अनुभूत होएत, तहिया कविताक अस्तित्वपर प्रश्न सेहो ठाढ़ कएल जा सकत। आ से दिन नै आबए तै लेल सेहो कविकेँ सतर्क रहए पड़तन्हि।
आ से राजदेव मंडल सतर्क छथि आ तैँ हिनकर कविता-संग्रह अम्बरा एक्कैसम शताब्दीक पहिल दशकक सर्वश्रेष्ठ मैथिली कविता संग्रह बनि आएल अछि।                                    

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