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Saturday, April 7, 2012

अम्बरा पर शिव कुमार झा ’टिल्लू’



बक हॅसैत अछि‍ कुटि‍ल हॅसी,
कलपै छथि‍ लुब्‍ध मराल।
जे कॅपैत छल डरसँ थरथर,
आब ने तकरो लाज।
पड़ल छथि‍ बंधनमे मृगराज।।
प्रस्‍तुत पद्यांश कवि‍ सरोज भुवनेश्वर सि‍ंहक कवि‍तासँ लेल गेल अछि‍। ऐ कवि‍तामे समाज वि‍स्‍मयकारी अवस्‍थासँ कवि‍ क्षुब्‍ध छथि‍। ऐमे देखाएल युगक वि‍षमताक मार्मिक उद्वोधनसँ जौं अपन भाषा ओ साहि‍त्‍य दु:दशाक तुलना कएल जाए तँ कोनो अति‍शयोक्‍ति‍ नै। कि‍छु महान साहि‍त्‍यकार वि‍स्‍मृत रहि‍ कालक गालमे समा गेलाह। लोक कहै छथि‍ कवि‍ कहि‍यो नै मरैछ ओ तँ अपन रचनामे जीवंत रहै छथि‍ मुदा जखन रचने मरि‍ गेल तँ कवि‍ कोना जीबथि‍। जे भेल से भ्‍ोल मुदा हमर दृष्‍टि‍कोण जे आबहु चि‍न्‍तन कएल जाए। एखनो कि‍छु एहेन रचनाकार उदीयमान छथि‍ वा उगवाक प्रयास कऽ रहल छथि‍ जनि‍क लेखनीकेँ प्रोत्‍साहि‍त नहि‍यों तँ कमसँ कम कि‍छु चर्च कएल जाए तँ ओहि‍ रचनाकारक संग-संग भाषा-साहि‍त्‍यकेँ अमरत्‍व अवश्‍य भेटत।
एकटा परि‍पक्‍व मुदा साहि‍त्‍यक भाषामे नवतुि‍रया कवि‍ मैथि‍लीक पल्‍लवकेँ वसन्‍तक वातसँ हि‍लएवाक अपना भरि‍ प्रयास कऽ रहल छथि‍ श्री राजदेव मण्‍डल। हि‍नक पहि‍ल कवि‍ता संग्रह- अम्‍बरा, श्रुति‍ प्रकाशनक सौजन्‍यसँ पाठकलोकनि‍ लग परसल गेल अछि‍। राजदेवजी परि‍पक्‍व ऐ दुआरे कि‍एक तँ ओ नव रचनाकार नै छथि‍ मैथि‍लीकेँ के कहए राजभाषा हि‍न्‍दीमे हि‍नक तीन गोट उपन्‍यास- पि‍ंजरे के पंछी, दरका हुआ दरपन आ जि‍न्‍दगी और नाव छद्म नाओं राजदेव प्रि‍यंकर'क नामें प्रकाशि‍त अछि‍। बाहर सम्‍मान अपन घर अपमानसँ नै वॉि‍च सकलाह तँए कतेक बर्ख ठकाइते रहलाह। जखन आत्‍मीय लोक मैथि‍ली अकादमीक अध्‍यक्ष बनाओल गेलाह तँ राजदेव जीकेँ आश जगलनि‍, जे समाजक कात लागल वर्गक लोक अकादमीमे अएलनि‍, रचना प्रकाशि‍त होएत वा कि‍छु मदति‍ भेटत। अकादमीक अध्‍यक्षक संग-संग अकादमीक पत्रि‍काक संपादक मण्‍डलमे सेहो अपनलोक देख दोहरि‍ आश नेने येनकेन प्रकारेण संपर्क स्‍थापि‍त कएलनि‍। करीब तीसटासँ उपरे कवि‍ता देबो केलखि‍न कि‍न्‍तु मृग मरीचि‍का मात्र देखबैत रहलखि‍न। परि‍णाम नि‍राशावादी रहल।
वि‍देह' पत्रि‍काक पदार्पणक पश्‍चात श्री उमेश मण्‍डल जीक माध्‍यमसँ संपादक श्री गजेन्‍द्र ठाकुर जी संग जुड़ि‍ रचना पठाबए लगलाह। श्रुति‍ प्रकाशनक अंति‍म मुहर लगि‍तहि‍ं अम्‍बरा समान्‍य अर्थमे तँ छॉह मुदा नवल-धवल इजोत नेने पाठक धरि‍ पहुँच गेल अछि‍।
राजदेव जीकेँ नवतुरि‍या ऐ दुआरे कहल जाए कि‍एक तँ पूर्वमे लि‍खल गेल कवि‍ता एखन धरि‍ पाठकक लोचनसँ दूर छल। ऐ संग्रहमे 75 गोट कवि‍ता देल गेल अछि‍। आह'सँ श्री गणेश आ ऑखि‍क प्रतीक्षासँ इति‍श्री। एकर तात्‍पर्य जे रसहीन जीवनसँ आकुल मनुक्‍ख कुपि‍त अछि‍ मुदा अंति‍म स्‍वप्‍न वा कल्‍प आशक संग मूर्त्त रूपमे क्षणहि‍ंमे परि‍वर्तित भऽ जाइछ। बाह्य रूपमे शीतलता अर्थात शांति‍ देख'मे अबैत अछि‍ परंच भीतरमे धाह.....। कोन प्रकारक धाह? एकरा अश्रु उच्‍छ्वास, आकुलता, संत्राह वा प्राप्‍ति‍क आश नै पूर्ण होएबाक क्रममे उद्वि‍ग्‍नताक नाआंे देल जाए। जै व्‍यक्‍ति‍क जीवनक चौमुख आह वा क्षोभसँ घेरल हुअए ओ जौं आकाशकेँ छूवाक कल्‍पना करए तँ ओकरा वि‍क्षि‍प्‍त नै तँ कमसँ कम अति‍वि‍श्‍वासी अवश्‍य कहल जा सकैत छैक। कुरूक्षेत्रक युद्ध समाप्‍ति‍क पश्‍चात् गांधारीक मनोदश जकाँ अकाश स्‍पर्शक कल्‍पनामे अकाश तँ शून्‍य दृष्‍टि‍गोचर होइछ मुदा पाएरक नीचाँ असंख्‍य लहास आ बॉचल बन्‍धु बांधब केर कंठ दोहन कवि‍क मोनकेँ अशांत कऽ देलकनि‍।
भौति‍कवादी युगक हीराक चमकि‍मे अपन साहसक रजत नेने नव मार्गकेँ ताकि‍ रहल छथि‍-
बि‍नु लेने आह
कि‍ भेटि‍ सकत
वाह-वाह
परंच,
नहि‍ छी लापरवाह
खोजब नवका राह।
'खोजव' शब्‍दक स्‍थानपर ताकब वा हेरब लि‍ख रहि‍तए तँ आर नीक लगि‍तए। संग-संग छंद लेपनक क्रममे कतौ-कतौ अपन भावकेँ कवि‍ व्‍यक्‍त नहि‍ कऽ सकलाह।
ज्ञानक झंडा' कवि‍तामे ज्ञानक परि‍भाषा वि‍ज्ञानक अन्‍वेषणक रूपेँ कएल गेल। वि‍ज्ञानक वि‍कास-क्रममे अन्‍ध वि‍श्‍वास शनै: शनै समाप्‍त भऽ रहल अछि‍-
आब नहि‍ चलत
अंध वि‍श्वासक हथकंडा
फहरा रहल वि‍ज्ञानक झंडा....।
प्रयोग धर्मितामे ई गप्‍प तँ सत्‍य मुदा वास्‍तवि‍कताक अवलोकन कएलापर स्‍थि‍ति‍ भि‍न्न होइ छैक। ऐ युगमे सेहो पि‍तृ कर्म आ देवकर्ममे वि‍श्वास जागले अछि‍ जखन कि‍ वि‍ज्ञानक शब्‍दकोषमे स्‍वर्ग-नर्कक परि‍भाषा असंभव। लोक एखनो श्राद्ध करै छथि‍, जीवनकालमे भरि‍ पेट अन्न नै मुदा मुइलाक पश्चात सोहल अचार। मि‍ि‍थलामे जमीन बेच कऽ पि‍तृ श्राद्ध कएल जाइत अछि‍। साधनवि‍हि‍न मानव अपन जीवि‍त संतानक प्रति‍ अपन दायि‍त्‍वक पालन कोना करथि‍, समाजकेँ एकर कोनो परवाहि‍ नै ओ तँ मात्र पि‍तृधर्म पालनक उपदेश दै छथि‍। तँए 'ज्ञानक झंडा'मे कवि‍केँ अनुकरणीय बि‍म्‍बक चि‍त्रण करबाक चाही छल जे नै कएलनि‍।
राजदेवजी शि‍ल्‍पी नै छथि‍, कि‍एक तँ कोनो शि‍ल्‍पक कृत्रि‍म बि‍म्‍ब नै तैयार कएलनि‍, स्‍वाभावि‍क अछि‍ जै व्‍यक्‍ति‍केँ आरसी, यात्री, चन्‍द्रभानु, बहेड़ आ बूच जकाँ अपन गृहस्‍थ धर्मक पालन हेतु अभाव आ संत्रासक अनुभव नि‍त्‍य-प्रति‍ होइत हुअए ओइ व्‍यक्‍ति‍केँ कल्‍पनाशीलताक शि‍ल्‍प बि‍म्‍बि‍त करबाक लेल समए कखन भेटए? ओ तँ जौं अपन जीवन दशासँ समाजक तुलना कर' लागए तँ सदि‍खन बि‍म्‍बे-बि‍म्‍ब।
झाॅपल अस्‍ति‍त्‍व'क शीर्षक कवि‍ता हृदेकेँ स्‍पर्श करैत अछि‍-
भीतरमे ओ लगा रहल अछि‍ फानी,
सुनि‍ रहल छी बक्रवाणी
प्राप्‍त करबाक लेल उत्‍कर्ष
करऽ पड़त आब संघर्ष....।।
वि‍रोध कोनो जीव ताधरि‍ कऽ सकैत अछि‍ जाधरि‍ ओकरामे संघर्ष करबाक सार्मथ्‍य जीवि‍त हुअए। पराजयक बेर-बेर ि‍हलकोर लगलासँ आत्‍म समर्पणक संभावना प्रबल भऽ जाइछ। कखनो कखनो आसक्‍ति‍क कारणेँ लोक सेहो आत्‍मसमर्पण कऽ दै छथि‍। जेना कुरूक्षेत्रमे भीष्‍मपि‍तामह अर्जुनकेँ चाहि‍तथि‍ तँ धाराशायी कऽ सकैत छलथि‍ मुदा ओ तँ अर्जुनक वि‍जय हृदेसँ चाहै छलाह।
रहब अहींक सभक संग' कवि‍ता आसक्‍ति‍, मृगतृष्‍णा वा मजबूरी कोन रूपक समझौता थि‍क एकर वि‍वेचन संभव नै, ई तँ कवि‍क जीवनक अनुभवक सार अछि‍, ओ स्‍पष्‍ट रूपेँ बॉटए चाहै छथि‍-
नहि‍ करब आब नि‍यम भंग
नहि‍ करब अहाँ सभकेँ तंग
लि‍अ अपन राज,
नहि‍ चाही हमरा ताज....।।
एकटा अर्न्‍तमुखी सोझ वि‍चारक लोक जखन स्‍वयंसँ लड़ैत-लड़ैत थाकि‍ जाइत अछि‍ तखन एहने वेदना कृत्रि‍म हंसीक संग-संग नि‍कसैत। फेरो अपन परि‍वारि‍क धर्म मोन पड़ि‍ते नदीक माछ बनि‍ जाइछ। जीव जखन प्राणकेँ छोड़ि‍‍ दैछ वा प्राण जीवकेँ छोड़ि‍ दैछ तखन लहासक रूप.....ओहि‍ प्रकारें कवि‍ नदीक माछकेँ जलदुनि‍यासँ बाहर नि‍कलबाक प्रयास करै छथि‍। परि‍णाम हुनके मुखसँ सुनल जाए-
सुनने छल ओ अपनहि‍ कान
कहने रहथि‍न बूढ़-पुरान
कहि‍यो नहि‍ जाइहेँ ओहि‍ दुनि‍या
ओहि‍ठाम भरल अछि‍ खुनि‍याँ।''
सभ कि‍छु रहि‍तौं अर्थाभाव एखन समाजक सभसँ पैघ अभि‍शाप बनि‍ गेल छथि‍ समाजक मध्‍य जत' इमानदरी आन्‍हर जकाँ गांधारी बनि‍ ठाढ़ छथि‍, तँए उद्वि‍ग्‍न भऽ जलदुनि‍यासँ बाहर जएबाक प्रयास कएलनि‍ परंच क्षणहि‍ंमे अपन मातृभूमि‍क सि‍नेहक कड़ीमे फँसि‍ फेर पानि‍मे कूदि‍ गेलाह-
मुदा ओ अछि‍ अभागल
जलबून्‍द कड़ी अछि‍ लागल
वि‍फल भेल छल बलमे
पुन: खसल ओहि‍ नदीक जलमे
जखन लोक अपनाकेँ पूर्णत: एकसरि‍ मानि‍ लैत अछि‍ ओहि‍ कालक मनोदशाक अभि‍व्‍यक्‍ति‍केँ करए?
नहि‍ कि‍ओ दऽ रहल अछि‍ साथ,
पहाड़ीपर पटकब आब माथ
हूबा देबैक हम खूनसँ
अपना घामक बूनसँ.....।
ऐ प्रकारक परि‍स्‍थि‍ति‍जन्‍य पद्यक संग-संग सीमा परक झूला, कांध परक मुरदा, दीप, हि‍त-अहि‍त, प्रयास, ऑफि‍सक भूत, कठुआएल रूप, सुनगैत चि‍नगी, अहाँक अगवानीमे, लाल ज्‍योति‍, बीखक घैल, पत्रोतर, अन्‍हारक खेल, नाचक वि‍खाह आदि‍-आदि‍ वि‍चारमूलक मर्मस्‍पर्शी पद्य ऐ संग्रहमे संकलि‍त अछि‍। मुदा अंत धरि‍ नव जीवनक आशमे कवि‍क आँखि‍ मात्र प्रतीक्षा कऽ रहल छन्‍हि‍-
मन्‍द-मन्‍द सि‍हकैत बसात
केना रहब अहाँसँ भऽ कात
एको बेर तँ बोलू
आबो आॅखि‍ खोलू
नि‍कलए नेह वा धि‍क्कार
हमरा दुनू अछि‍ स्‍वीकार...।।
सम्‍पूर्ण संग्रहमे अश्रुरोदनक बि‍म्‍बि‍त चि‍त्रमे नूतन आयामक संग-संग जीवनक नवल आश धएने कवि‍ 'अम्‍बरा'सँ मुक्‍ति‍पर रहब चाहे चलैत, सूतल, ठार वा बैसल....। अम्‍बरा अर्थात् छायाकेँ लोक एकाकार तँ नै कऽ सकैत अछि‍ परंच भगाएब सेहो असंभव। तँए दुनू रूपेँ कवि‍ अपन जीवनक अम्‍बराकेँ स्‍वीकार कऽ लि‍अ चाहै छथि‍। रचनाक ि‍नर्बल पक्ष जे कतौ आकर्षण नै, कतौ शि‍ल्‍प नै, कतौ बि‍म्‍ब नै मुदा सभ छंद आयामक अभावक बादो राजदेवजी अनचोकेमे एहेन 'कवि‍ता संग्रह' लि‍ख देलनि‍ जकर तुलना दोसर कवि‍सँ करब प्रासंगि‍क नै कि‍एक तँ मैथि‍ली भाषाक लेल एकटा नव प्रकारक प्रयोग ऐमे भेटल।

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