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Saturday, April 7, 2012

राजदेव मण्‍डलसँ साक्षात्‍कार :: मुन्‍नाजी


मैथि‍ली आ हि‍न्‍दीमे सझि‍या आ धुरझार लेखनसँ परिपक्‍व। मैथि‍लीमे एकटा ठोस वि‍चार आ दूर दृष्‍टि‍ लऽ स्‍थाि‍पत होइत कवि‍ श्री राजदेव मंडलजीसँ हुनक लेखनीपर गहींर रूपे मैथि‍लीक मुन्नाजीक बीच भेल गप-सप्‍पक अंश प्रस्‍तुत अछि-

मुन्नाजी- अहाँ खाँटी मि‍थि‍लाभूमि‍क पानि‍ माटि‍मे रचल बसल रहि‍ हि‍न्‍दीमे उन्‍मुख रहलौं। मैथि‍लीमे कि‍एक नै?

राजदेव मं.- देश-दुनि‍याँ/ चाहे जतेक बदलि‍ जाए/ अपन भाषा अपन माए/ कहुँ बि‍सरल जाए/। माएक द्वारा सि‍खाओल भाषा के बि‍सरत? रचनाक प्रारम्‍भ मैथि‍लीमे कएलौं। कि‍न्‍तु प्रकाशनक अभाव आ प्रकाशक, सम्‍पादक लग कोनो पहुँच नै। अर्थसँ की नै होइत छै। हम अर्थाभावमे रही। मैथि‍लीक कोनो रचना प्रकाशि‍त नै भेल। फुलाइत मन मुरझा गेल। ओइ‍‍ समैमे हि‍न्‍दीसँ एम.ए.क तैयारीमे जुटल छलौं। हि‍न्‍दीमे लि‍खनाइ सुवि‍धाजनक सन लगल। लि‍खब आ छपेबाक उत्‍कट इच्‍छाक कारणे हि‍न्‍दी दि‍स कनछी काटए पड़ल।

मुन्नाजी- मैथि‍ली लेखनीक प्रारम्‍भ कहि‍या कोना कएलौं? एखन धरि‍ मैथि‍लीमे हेराएल वा वेराएल सन रहबाक की कारण?

राजदेव मं.- मैथि‍लीसँ एम.ए. केलाक उपरान्‍त १९८६ई.क कोनो राति‍, नीक जकाँ स्‍मरण नै अछि- ओ तारीख। ओइ‍ राति‍ मानसि‍क स्‍तरसँ बड्ड दुखी रही। एतेक दुखी जे सुतैकालसँ पूर्व कतेको बेर मुँहसँ नि‍कलल रहए- हे भगवान हमरा धरसीसँ उठा लि‍अ। हमरा मृत्‍यु चाही। हम मरए चाहै छी।
ई वाक्‍य सभकेँ दोहराबैत निन्नमे डूबि‍ गेल रही। अधरति‍यामे जखन नि‍न्न टूटल तँ मन कि‍छु हल्‍लुक सन बुझाएल। ओसारपर मि‍झाइत दीयाकेँ बड़ी काल धरि‍ एक-टक देखैत रहलौं। कतेक काल धरि‍ से स्‍मरण नै अछि। कि‍न्‍तु ओ मि‍झाइत दीया प्रथम मैथि‍ली कवि‍ता बनि‍ गेल। जे ‘अम्‍बरा' संग्रहमे संकलि‍त अछि। भऽ सकैत अछि ऐ‍‍सँ पूर्व मैथि‍लीमे अपूर्ण रचना सभ हएत।
आब सवाल हेराएल आ बेराएल अछि। हेराएल ओ रहैत अछि जे अनचि‍न्‍हारक बीच रहैत अछि आ अनजान स्‍थानपर रहैत अछि। हम तँ अपनहि‍ जन्‍म स्‍थानपर छी आर चि‍न्‍हार लोकक बीच छी। ओकरा की कहबै जे चि‍न्‍हार लोकक बीच अनचि‍न्‍हार बनल हेराएल अछि।
ओ बेराएल जाइत अछि जेकरा द्वारा अधलाह काज भेल हुअए। हम अपना जनैत नीक काज करैत अहाँक लगमे ठाढ़ छी। तैयो बेराएल सन। तँ एकर कारण की कहब?

मुन्नाजी- अहाँक कवि‍ता गाम समाजक लोकक प्रति‍ अहाँक वि‍चार मि‍थि‍लाक पारम्‍परि‍कताकेँ संजोगने बुझाइत अछि। जखन कि‍ वर्त्तमानमे तकनीकी वि‍कासे लोकक जीवन आधुनि‍क सोचमे डुबि‍ रहल अछि । अहाँ अपनाकेँ सँ दूर कोना रखने छी?

राजदेव मं.- हम कोनो पारम्‍परि‍कताकेँ संजोगने नै छी आ नै आधुनि‍क जीवन सोचसँ अपनाकेँ दूर रखने छी। हँ कि‍छु सरस शब्‍दकेँ जोड़बाक प्रयास कएलौं जइ‍सँ रमणीय अर्थ नि‍कलि‍ सकए। की छुटल आ की जुड़ल अछि। नीक वा अधलाह भेल तेकर ि‍नर्णए तँ अहीं सभ करब।

मुन्नाजी- एखन धरि‍ अहाँक मैथि‍ली लेखनीमे कवि‍ते टा जगजि‍यार भेल अछि, की अहाँ कोनाे आनो वि‍धामे लि‍खैत छी?

राजदेव मं.- कि‍छु कथा लि‍खने छी। एकटा उपन्‍यास लि‍ख रहल छी।

मुन्नाजी- अहाँ हि‍न्‍दी भाषामे कतेको पोथीक सर्जक छी, जे छपि‍ कऽ सोझाँ आबि‍ चूकल अछि। मैथि‍लीमे एतेक पाछाँ कि‍एक छी कि‍एक छी एकर कोनो वि‍शेष कारण तँ नै अछि?

राजदेव मं.- हि‍न्‍दीमे तीनटा उपन्‍यास प्रकाशि‍त भऽ चूकल अछि। जि‍न्‍दगी और नाव, पि‍ंजरे के पंछी, दरका हुआ दरपन। मैथि‍लीमे लि‍खैत छलौं कि‍न्‍तु प्रकाशि‍त नै भेलाक कारणे पाछाँ छलौं। उमेश मंडल आ गजेन्‍द्र ठाकुर जीसँ सम्‍पर्क भेलाक उपरान्‍त ‘मैथि‍ली ई-पत्रि‍का वि‍देह’मे प्रकाशि‍त हुअए लगल। श्रुति‍ प्रकाशन द्वारा वि‍देह मैथि‍ली पद्य २००९-१०मे सेहो प्रकाशि‍त भेल।
वास्‍तवमे ओ सभ धन्‍यवादक पात्र छथि‍। एकर उपरान्‍त अंति‍का आ मि‍थि‍ला दर्शनमे सेहो कि‍छु कवि‍ता सभ अाएल।

मुन्नाजी- मैथि‍ली भाषाकेँ अप्‍पन कि‍छु मैथि‍ल सभ बाभन मात्रक भाषा कहि‍ गएर बाभन लोक सर्जक वि‍चार वा भाव रखि‍तो अपनाकेँ कति‍या लैत छथि‍। अहाँ एकरा कै परि‍पेक्ष्‍यमे देखै छी?

राजदेव मं.- भाषाकेँ कोनो बन्‍धनमे बान्‍हि‍ कऽ नै राखल जा सकैत अछि। जाति‍क बन्‍धन तँ आओर खराब। भाषा तँ सबहक होइत अछि। तँए सभ जाति‍ आ वर्गक लोककेँ अपना भाषा उत्‍थानक लेल प्रयास करबाक चाही। सहयोगक भावना सेहो हेबाक चाही। प्रारम्‍भमे कि‍छु बाधा होइते अछि। तइ कारणे कति‍या जाएब से नीक नै।

मुन्नाजी- बाभनसँ इतर अहाँक समकक्ष सर्जक श्री जगदीश प्रसाद मंडलजी जे अपन लेखनीए कतेको स्‍थापि‍त रचनाकारकेँ पाछाँ छोड़ि‍ अल्‍प समैमे शीर्षपर अबैत देखाइत छथि‍। ऐ माध्‍यमे छोटका-बड़का जाति‍क फाॅटकेँ अहाँ कोना परि‍भाषि‍त करब?

राजदेव मं.- ऐ‍‍मे छोटका आ बड़का जाति‍क फाँट की कएल जाए। कि‍छु रचनाकार द्रुतगति‍सँ लि‍खैत छथि‍। जेना श्री जगदीश प्रसाद मंडल। स्‍वभावि‍क अछि जे ओ अल्‍पकालहि‍मे बेसी लि‍खताह। कि‍यो मन्‍थर गति‍सँ रचना करै छथि‍। लि‍खबाक अपन-अपन शैली आ गति‍ होइत अछि। ओहि‍ना शीर्ष दि‍स बढ़बाक गति‍ होइत अछि।

मुन्नाजी- अपन मैथि‍ली लेखनयात्राक क्रममे कहि‍याे अपनाकेँ गएर बाभन हेबाक कारणेँ अनसोहाँत वा उपेक्षि‍तक अनुभव तँ नै पौलौं?

राजदेव मं.- सवेंदनशीलकेँ तँ उपेक्षाक अनुभव होएबे करतैक। समाज आ परि‍वारकेँ प्रत्‍यक्ष रूपेँ कि‍छु नै दैत छि‍एे। ओ सभ उपेक्षाक भाव राखबे करता। अपनासँ आगू कोनो जाति‍केँ देखि‍ इर्ष्‍या होएबे करत। ई तँ मनुक्‍खक गुण अछि। भऽ सकैत अछि जे हमरोसँ पाछाँबलाकेँ कि‍छु एहने अनुभव होइत हेतै। ऐ‍‍ गप्‍पपर अपने लि‍खल पॉति‍ यादि‍ अबैत अछि- उपेक्षाक दंश/ हमरहि‍ अंश/ नै अछि चि‍न्‍ता/ नै छी त्रस्‍त/ भेल छी अभ्‍यस्‍त.../‍

मुन्नाजी- मैथि‍ली समीक्षक लोकनि‍ रचनाकारक कोन मन:स्‍थि‍ति‍केँ समीक्षाक रूपेँ परि‍भाषि‍त करैत छथि‍? की ओइमे जाति‍वादि‍ताक नजरि‍या सेहो परि‍लक्षि‍त होइत अछि?

राजदेव मं.- समीक्षाक बहुत अधि‍क पुस्‍तक हम नै पढ़ने छी। ऐ‍ तरहक गप्‍प सोक्षा नै अाएल अछि। ओना समीक्षा कार्य बहुत दायि‍त्‍वपूर्ण होइते अछि। रचनाकार आ पाठकक मध्‍य मि‍लनबि‍न्‍दूपर समीक्षक रहैत छथि‍। ओ कोनो रचनाकेँ दोष-गुणक अन्‍वेषण करैत छथि‍। जँ हुनक नजरि‍या जाति‍वादी हेतैक। तँ ऐ‍‍सँ भाषाक क्षति‍ हेतैक।

मुन्नाजी- अहाँ समीक्षा सेहो करै छी अपन समीक्षाक माध्‍यमे अहाँ रचनाकारक व्‍यक्‍ति‍त्‍वकेँ परि‍लक्षि‍त करैत छी, वा रचनाकारक कृति‍त्‍वकेँ सोझाँ अनबाक प्रयास करै छी की जाति‍क फाँटकेँ भरि‍ रचनाकारक देखार करब उचि‍त बुझै छी?

राजदेव मं.- समीक्षा तँ होइत अछि रचनाकेँ। तँए व्‍यक्‍ति‍त्‍व आ कृति‍त्‍वकेँ अलग-अलग राखल जएबाक चाही। समीक्षाक कार्यमे तँ तटस्‍थ भऽ रचनाक दोष गुणक चर्चा न्‍याय-संगत ढंगसँ हेबाक चाही। हँ, कि‍छु साहि‍त्‍यकारक सर्वोत्‍कृष्‍ट कार्य देखि‍ धन्‍यवाद देबाक लेल बेवश होमए पड़ैत अछि। ऐ‍‍ कार्यमे जाति‍क फाँट केनाइ नि‍तान्‍त अनुचि‍त गप्‍प थि‍क।

मुन्नाजी- अन्‍तमे अहाँ गएर बाभनक मैथि‍लीमे अनुपस्‍थि‍ति‍केँ कोन तरहेँ अनुभव करै छी। ऐ‍‍मे गएर बाभन वर्गक सर्जककेँ बेसी-सँ-बेसी उपस्‍थि‍ति‍क लेल कोन संदेश वा वि‍चार देब।

राजदेव मं.- पूर्णरूपेण भाषाक वि‍कासक लेल सभ जाति‍ आ वर्गक रचनासँ भाषाकेँ परि‍पूर्ण होएबाक चाही। तँए जे पाछाँ छथि‍ हुनका सभकेँ अध्‍ययन, मनन आ अभ्‍यास करबाक चाही। बेसी-सँ-बेसी रचना करबाक चाही। सहयोगक भावना रहक चाही। अधि‍कार प्राप्‍त करबाक लेल तँ आगू बढ़ए पड़त।
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