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Saturday, April 7, 2012

नचिकेताक मध्यमपुरुष एकवचन -गजेन्द्र ठाकुर


नचिकेताक मध्यमपुरुष एकवचन
-गजेन्द्र ठाकुर

गद्यसँ पद्य एहि अर्थे फराक होइत अछि जे एहिमे बिम्बक माध्यमसँ कम शब्दमे बेशी गप कहल जएबाक गुंजाएश रहैत अछि। तेँ पद्यकेँ समयाभावमे शुरू कएल गद्यक विकल्पक रूपमे देखब सम्भव नहि, ओना तेहनो उदाहरण भेटत। पद्य छन्दबद्ध होअए वा छन्द-लय विहीन, जे ओहिमे गुणवत्ता अछि तँ प्रभावित करबे टा करत। सीलिंगसँ जमीन बचेबा लेल वामपंथ वा दक्षिणपंथक प्रयोग लोक द्वारा होइत अछि। मुदा सीलिंगमे पड़ल साहित्यक लेल वामपंथ वा दक्षिणपंथक प्रयोग, छंदबद्धता-लयबद्धताक आग्रह वा अनाग्रह गोलौसीक विस्तार मात्र अछि। आ एहि मध्य नचिकेताक तैंतीस टा कविताक संकलन अछि मध्यमपुरुष एकवचन। एहिमे कवि जखन विरोध समुद्रसँ मे तोहर आ हमर बीचमे जे समुद्र अछि, जकर तटपर, ओकर परिणामपर क्यो कानि रहल अछि, बीचमे माछ आ चीलक झुण्ड आ एहि मध्य ज्वार सभक टीककेँ धेने छथि वरुणदेव, सोचैत जे प्रेमकेँ जीतए देताह आकि समुद्रकेँ, कहै छथि आ फेर वरुणदेवक ज्वारक टीककेँ धरब, चित्र सोझाँ अबैत अछि। ऋतु-विशेष पृथ्वीपर- मे प्रेमक ऋतु विशेष, जकर प्रारम्भेमे बरखा मासक बुन्न सुखाए लगैत अछि। शब्द लेल जाल लेने आ शब्द करैत अछि आत्मसमर्पण कविताक संन्यासमे। आ फेर घुरैत नदी कछेर- भोरुका मंत्रक उच्चारण लेल जे जलकेँ बनबैत अछि अकास। बंजर देशक बरसातिक देव जे अकासोकेँ कना सकै छै बेहिसाब। भूतक नाचब लाठी बजारि-बजारि आ तरुण राजकुमारक देखब साम्यवादक स्वप्न-फुक्का उड़ाय अकासमे। शब्दसँ समझौता आ सभ आहक डूमब शब्दक चीत्कारमे। फेर आह्वान अकाससँ, कानू भोकारि पारि, जाहि वज्रपातक शब्दसँ विश्वास हएत जे साओन अएल अछि पृथ्वीपर। आ आकांक्षा, छूबि कपारक टपकैत बुन्नक सङे आ अपन लिखल पाँति पढ़बाक। पछिला बेरक हुनकर अपूर्ण कएल कार्य। आ यैह छी ऋतुविशेष- मोन पाड़ब हुनका। तों- मे वाक्यक हकमैत पैसब, धीपल हाथक धरब, धधकल आगि हमर, एहिमे हम तोँ, कल्पतरुक डारि, बाकी सभ छुच्छ आ बुढ़िया नानीक कोनो खिस्सा। आ दशोदिशा पकैत ताहिमे- भ्रान्ति-पथ(भ्रमित!)। नौ मासक गर्वक, गर्भक दीर्घप्रहर। पाँचम ऋतु (!) छठम रिपु(!)- राग सेहो विलम्बित, द्रुत ताल (त्रस्त) आ भानु अस्तमित। रातुक आ दिनक कथा- मे सूतल दुनियाँ केँ छोड़ि बुद्ध बहार होइत छथि घरसँ मुदा कविक प्रयाण कविताक भीतर- कानूनी अनुबन्धक अन्तर्गत बान्हल विवाह- विधि-प्रसव वेदनाक बाहर। कविताक भीतर छंदहीन, वर्णहीन भाँगल ग्रंथि, उघरल सिलाइ, सूचीकर्म, मर्ममे झरैत बिन्दु आ एकटा मैल मोटिया तौनी जकाँ करैत अछि झँपबाक प्रयत्न हमर शरीरकेँ (भीतरसँ उगैत अस्थिरता) अव्यवहृत आ जखन भूख, व्यथा-विच्छेदक कथा। ठाढ़ होइत देखबा लेल यौनता परसैत जएत जखन, बनि सघन छत्तीसो व्यंजन तोहर भानसमे। मुदा हमर सक- मात्र कवितेक भीतरक संधान, द्वयर्थबोध पूर्ण अछि जे, सूक्ष्म तर्क तकर, ताल-लयसँ गलल। प्राकृत-यकृतमे ठूसल, महायोनि-लिंगबोध लदने जाहि शरीरपर। यैह टा सीखल उपाय- तोहर सपना देखैत रहब अनुखन। आ दुनियाँक जगलापर सूतब तोहर संग- हमर हे कविता कालरात्रि करबेटा करत, दूर करह व्यथा-विच्छेद, भूख-भय। एखने झलकि उठल उखा-किरण तेँ, आकांक्षाक आशा सन। चक्रान्त- मे अकासमे हेलैत अक्षरक मिजाज-तिक्त लहराबैत आगिक प्रवाह, ओकरा बुझाओत कविक दोख नहि। दुनियाँक चक्रक अन्त। मात्राक हुनका लग अएबाक कोनो आस-! ने हुनक कविता सजि सकती शब्द बनि बरसबाक लेल पहिनहि जेकाँ। दमयंतीकेँ उपदेश- मे तीर लग लोकक पथरल (!) पड़ल रहब। - बिना अंगक- अशक्त लोक। घास पात तकरा सभकेँ धेने आ सेमारमे सन्हिआयल-ओझरायल तक्षक। बसातमे डोलब आ झोंझमे झोंकाह आगिक सुनगब। दमयन्ती, दमयन्ती -सुन्न बोन। फूल-पातक बीचमे टुअर सुरुज(!), टुघड़ैत आ सावधानीसँ चिरैत हिरण्यक पेट, तैंतीस टा मूह, कुरुप, गाछ सभक एम्हर जाऊक उपदेश। दमयन्ती, जंगलपार नहि होऊ। अन्हारमे ईशान दिशामे देहक दलाल प्रतीक्षारत। दमयन्ती, समय। नैऋत कोणमे नुकएल नलदेव। गाछ-बिरीछक जानब-कविताक आगमन कोना होइत अछि। जानलक इतिहास, मनुक्खक निष्ठुरता। कोना महावन निर्विचार, उजार, उच्छन्न भेल। पोसुआ (!) गाछ बिसरल भाषा। दमयन्तीकेँ चेतौनी-मनुष्यपर विश्वास नहि करू, कथा-कविता-अफवाहसँ बान्हत ओ। नहि पार करू बोन। आ से भेने सभ टा गाछ लिखत दमयन्तीकेँ लऽ कऽ पहिल कविता। प्रश्नावली- मे अचल अन्तिम राति यैह? गीतक अंतिम पाँति यैह? आ हमर कविता पढ़ि सकै छी? हमर अंतिम दिवस यैह? किछु करबाक आब विवशता (!) तन भ्रमित, कोन दरिद्र (तत्क्षण अनुभूति) की? सूति सहल रहल की? हमर आखरक भवितव्य? अशान्त भ्रमर मनक विहंगम, अजर प्रेमक धार सन। भीतर उगैत शब्द- मे शब्दक ध्वनि तेहन सन जेना गुफामे बैसि केओ कानि रहल। पहाड़क शिखरक ठहाका। दबले पएर अएबाक आहटि, लिफाफ खोलबाक अबाज। पत्रक सभटा पाँतिसँ खदबद करैत शब्द। आ बहिनक बहैत नोर देरीसँ बूझब। वाक्यक भसियायब, शेष आकि समास नहि बनब, मोशकिलसँ बूझब टूटल रीढ़क हड्डीक मर्मर मुदा कठुआएल कविकेँ घिसिअबैत कंठ पकड़ि। कवितामे मुदा सुनल-गमल-बुझल वस्तुक आभाष बनि अएब। अपनहि भीतरसँ बहरएल मुदा एहि शब्द सभकेँ परिवर्तन करबाक अधिकार कविकेँ सेहो नहि। मात्र चुम्बन प्रेमक मैथुनक अधिकार। मुदा मन्थन ग्रन्थनक आ नहि कोनो घृणा क्रोधक अधिकार। आ तकरा सजा सकैत छी फूल-पातसँ, वेणी गूहि सकै छी रातुक पहर। सेउंथ चमका सकै छी पहिल सुरुजक लालीसँ, गराक सिङरहार, उष्म वृक्षक वल्कल शब्द शरीरपर घटित भेल तथ्यक सन्मान।–ई कविता कवि इलारानी सिंहकेँ कवि द्वारा समर्पित छन्हि। जानल-पहिचानल- मे शरीरकेँ पन्नाक-पन्ना पढ़ब आ जीवनक लागब जानल पहिचानल। तह आ गह्वरक गीत आ कवि द्वारीए कहब - हुनकर विश्वास हमर शब्दपर सँ हटब। आ मात्र स्पर्शक भाषा- एकटा ग्रामीण अनुभूति व्युत्पत्ति नहि दऽ सकैत अछि केओ, तकरा जीबै छी। समार्थपद- सपनाक नहि बाजब, बजैत तँ अहाँक सभटा नाम सुनबैत, कविक अनुमान। शब्द-ने धातुमे दुर्बलता ने उपसर्ग-प्रत्ययक अभाव। नहि तँ उचरि सकैत प्रतिशब्द (चलि गेल छथि अश्वखुरक संगे अश्रव्य दर्शनक भाषा अछि तकर)। आ ताहि लेल नव अमरकोष, नव कविता लिखए पड़त। अंकुर- चारि टा कविताक बीआक मोनमे उगब आ ताहिमे प्रेमक शब्दक लिखब। आ ओकरा तेहन प्रश्नमे ने ओझरा दियौक जकर उत्तर हमरो बूझल नहि अछि। सुनैत गप्प अपनहि एक्के संग चारि-चारि टा कविकेँ बाँटि देने शब्द सम्पदा। आ तैयो एहि चारूकेँ मिलाकऽ गाएब आ प्रेमक आंकुरक उगब। कत्ते बरसक बाद- मे ठाढ़ अहाँ सबहक अंगनापर एकटा कविता पढ़ऽ देब, नेनपनेमे भगा देने छलहुँ, छंदभंगक जुर्माना (!) छल। आ ताहिमे आन चीजक संग रहथि दुखी दाइ, छठिक नहि कोनो जोगार, सालक मात्र चारिटा मासक अन्न-भुटकल अनोन अल्हुआ त्राता। हमरा एगो कविता पढ़ऽ देब। किऐ नहि लिखै छी?- पूर्ण विराम। नहि आब एको पाँति अहाँक नाम। कथी ले ई जिद्द जे लिखबे करी प्रेम पत्र, अनकर बनायल अक्षरमे। चढ़ा कऽ रंग, अर्थ, वस्त्र, व्याकुलता। सुखाइत ठोर, तरबापर खेलाइत आंगुरक भाषा, अद्भुत अन्तर्देशी शब्द सभ आ तकर विन्यास। तखन पत्र नहि लिखबाक नहि देब उपराग। राजहंस- कविताक राजहंस, शरीरसँ अहाँक दूर चलि लैक दू डेग। उल्कापात आदिक द्वारे अवकास नहि भेटल अछि ओकरा। आ शरीरो तोहर बेबहार नहि भेल छौक। ओकरा कहबै एक बेर उड़बा लेल तोरा संग। जाधरि सहि सकत तोहर ओजन। नोरक बुन्न कविक उपमा नुकायल जे आँचर तर तरबापर कहबै राजहंसकेँ राखि दै जिज्ञासा युवती जे बनि गेलै। अन्हेर- चिड़ै कहलकन्हि, नहि बाजू किछुओ गोपनीय, नहि तँ अन्हेर भऽ जएत। काल्हि रातुक पहर कविता आयल छली आ हेरा गेली गद्यक भीड़मे। आ गोपनीय इतिहास पाप प्रणयसँ परिणय धरिक दूरी आ एहने सन। किऐक घबड़ाइत छी। क्यो नहि पूछत अहाँक नाम। नहि पूछत, चिड़ै बता की जनै छलेँ कवि दऽ जकर कबर एखनहि खोधल गेल अछि। एक अहीं छी- कएक बेर अहाँकेँ बजा कऽ देखने छी कवितामे। मुदा घुरियो कऽ नहि देखै छी अहाँ। मामूली प्रेमक दस्तावेज नहि जाहिमे लाभ-हानिक हिसाब रहत लिखल। ने साधारण निमंत्रण ने मामूली लोकक भोज्य वस्तु। अहाँकेँ कवितामे एकटा नाम देने छी जे चिड़ै चुनमुन उचरि सकै छल। एहन नहि जकरापर सनसनाइत कथा बनि सकत। मुदा अहाँ किछु बजिते ने छी। पुरातन प्रेम- माँगि रहल गीतक दाम। करैत प्रश्न-उत्तर (मुदा प्रकृतिक पाठशालामे कत्तऽ तकर गुंजाइश?) सीमित पुरातन प्रेम, पाठ्यपुस्तकसँ इतिहासक पाठ धरि। पुछैए प्रश्न-पुरनका शब्दक वाक्यमे प्रयोग। सभटा वाक्य सत्य अछि वा फूसि। भावार्थ कहू...। मुदा आब हम भेलहुँ चलाक।..पढ़ि सकै छी मन्दाक्रान्ता छन्दक व्यथा। नापि सकै छी शुद्ध धैवत् क पातिव्रत्य। हमर शोणित चीन्हि गेल अछि जीवन-गणितक बर्बरताकेँ ठीके। कम बजै छी, बजबो करै छी तँ भूतकाल दऽ नहि अनाहत-अनागत प्रेतकाल दिस। अकथित-अनूदित अनुभूति दिस बढ़ैत दर्शन हमर। मलिछाह कऽ देलक, केतारी खेतक अढ़, भुतिआएल माल-जाल आ पुरनका प्रेम। चाह- जे हमरा किछु चाही, आ हमरा चाहबे की करी। अहाँ अनन्त, विशेषणसँ हटिकऽ, हमर मोनक गप पूर करब तत्क्षण। आ जे हम चाहब तावत् प्रत्यय एहि प्रपंचक, हमर जिनगी सुप्तिङन्तम्, आ बान्हल पदबन्ध , घटल निघण्टु। दऽ सकै छी ह्रस्व, अति ह्रस्व, ओंकार ऋचा आकार। हमर छोट मोट आकांक्षा, भाषा भावना वेदना अनियमित, इमन-कल्याणक गमक नियंत्रित। हमर पतिक लेल-१- अहाँक घरक चारमे भेल भूर, कठोर सर्द वायु सेरा देलक माड़ आ अकासी नोर हमर अल्हुआकेँ झोरा देलक। भीजल ओछैन, अहाँ निस्बद्ध, ई भूर करत खतम अहाँकेँ। आ ताहि विनाशक गीतो तँ लिखू अपन हाथेँ। हमर पतिक लेल-२- ओ कहै छथि हमर स्थान हुनकर माथपर, मुदा नहि रहब हतकेशी शिखा संग। हृदयमे, नहि रहबाक श्वासयंत्र संगे। आँखिमे, नहि रहबाक चश्माक तरक नोरक संग। ठोढ़पर, नहि बनबाक पूजाक जप मोती। जीहपर (भानसक स्वाद द्वारे!), हँ ठीके, मुदा एहिसँ बहार होएबाक गर। पएरक जुत्ता तर, पृथ्वीपर, राजनीति बुझै छी। कोना जुत्ता पएर तरसँ चढ़ि अबै छै माथपर। से जहिया बुझि जएब तँ भेटि जएत प्रतिवादक पहिल सबक। हमर पतिक लेल-३- नहि पुछू व्याकरणक, लिपिक मादेँ। एहि कविताक ! की करू आगिमे फेकि दी हम, नहि कहू ई सभ। निरक्षर छी तेँ की। जादू-छड़ी छी घुमा सकैत। हमरापर जे कियो लिखत कविता आ हमर चित्तपर व्याकरण तँ कोन आश्चर्य? नहि कहब एकरा छद्माडंबर! हिसाब- पाँच टा शब्द हिरिया दै छै झौलीकेँ भोरमे बाउग करऽ जाइत काल। अनोन अल्हुआ संग खाइत एकटा गेल, आध टा खर्च भेल जखन भुसहु बाबू बरखामे पीपरतर देह बचबैत ओकरा तीन लात दैत छथि। बचल डेढ़, आ डेढ़ टा बान्हल अछि राखल चमरटोलीमे चुहड़ाक ठेकापर उधारक माल पीबाक काल। आ शेष शब्द (सात गुना चौदह गो शब्द!) ओ राखैए हाटमे वस्तुजात किनबाक लेल। साँझ धरि बचलै नहि एकोटा शब्द हिरियाक करेजपर रखबा लेल आ तखन बिनु शब्दक हिरिया कोना खोलत करेज, रहि जाइत अछि ठाढ़ ओस तर, भरि राति, अङनेमे। आत्मकथन- अहाँकेँ अपन मोनक विषयमे किछु बताबी, कपालकुंडल। मुदा हड़ताली बोनिहार जन-नेताक लेल ठाढ़ कएल गेलि गितहारि..। मदारी पढ़ैत हमरे कविता आ हम फराक डाँड़मे रस्सी पहिरने। तखन कविताक अतिरिक्त किछु गप करी। मुदा ने कोनो रस, ने शब्द, ने प्रहार कोनो बचल। ने हमर कोनो एहन नामे, बड्ड गद्यमय जीवन! चलू गद्यक चहरदेबारीक बाहरक किछु प्रश्न- कोन पुरुषक वचनमे ओझराएल, काल-कारकमे ओझरल अरण्यमे। अव्ययक विनाश, विशेषणक उघारब परिधेय आ विशेष्यक सिंहासनसँ उतारब। उपसर्ग देखि मनक भाव बुझबाक सामर्थ्य बला अछि कियो ? बान्हल पौरुषक जटाजालमे पाणिनी अहाँक पाणि। आ करताह चित्कार महेश्वर सूत्रमे जे हम अहाँसँ किछु बाजी। आ पतंजलि आ हेमचन्द्र द्वारा कविकेँ दबारब बुझाएब मध्यमपुरुष एकवचन । त्वम्, त्वाम्, त्वया, तुभ्यम्, त्वत्, तव, त्वयि । कपालकुंडले, मनसिसँ जतएसँ सभ निअम/ वर्ग/ लक्ष्य विहीन आ अहाँ मध्यमे मात्र एकवचन। अहीं सँ प्रेम, घृणा अहीं सँ- अहीं सँ प्रेम, घृणा (अहीं) सँ- अन्तिम सत्यक दिन, दिअ फाँसी तखन नहि सुनि सकब हमरा। हमरा गीरि लेब ताहिसँ पहिने फेकि देब अहाँकेँ। दीप सभ अहाँ लगसँ हटा देने छी। प्रेम करै छी, मुदा घृणा आर बेशी। आँखि, हाथ, दुनु ठोरक अन्त कएल। मुद तैयो अहाँक हँसी अनृत शब्द बनेलक बरफ हमर दर्शनकेँ, आ फेरसँ नस-नस चलब हुनकर। कनी टा जगह छोड़ि दियह- एहि कोनमे छोड़ि दिअ, आखरक ढेरक नीचाँ हमर अभिलाषा। हमरे लिखने छलियै, अहींकेँ लऽ कऽ करऽ लेल कविता ! जगह चाही, कारण तीनटा पएर कविक, एककेँ पशुतासँ मढ़ने छी, दोसरकाक नोकमे अछि रोशनाइ सुखाएल आ तेसर नकली हृदय। जे चाही हमरे सन कवि तँ कनेक जगह छोड़ि दिअ। भय-१- अथर्व कवि। पोथी ने चोरि भऽ जाए। तखन भरिसक कविता तँ दोसराक नामे रहि जाए मुदा कवि छूटि जएत इतिहाससँ। हमरा पोसबा लेल सेहो खरचा, हमर चिता सजेबा लेल सेहो तरद्दुत (गहन मंत्रसँ सजौलहुँ), हमर कविता कुपितापर लिखए पड़ल हैत कत्ते टा इतिहास! भय-२- आबि गेल चलक ऐब, आब ककरहुँसँ डर नहि। कारण बुझल भऽ गेल हेलबाक आ अधमतम होएबाक कला ! अश्रव्य शब्दसँ शशक उलूकक जागब आ अस्पृश्य बालाक स्पर्शसँ भूखक जागब? आ बुझि गेल छी विनष्ट होएबाक कला! आब अदन्त नहि रहलहुँ- दाँतक जोड़ा आबि गेल अछि! कठिन शब्द, शीतल स्तन, बृहत् वाक्य, कोमल रचना, विभीषण भाष्य आ बिखरल पाठ, अर्थ अनर्थक भावेँ विह्वल। नामकरण- चानकेँ चन्द्रमा, तरेगणकेँ निहारिका नाम दए रातुक अर्थे बदलि गेल! इजोतकेँ प्रत्युष आ सुरुजकेँ मार्तण्ड्य कहबासँ आँखिक चोन्हिआयब। जंगलकेँ उपवन आ घास-फूसकेँ दूर्वाक्षत कहने आबि गेल मंत्रक उच्चारण अपनहि। अथक खटनीकेँ निरलस प्रयास आ बेजोड़ शब्दक जोड़ीकेँ समास कहने टूटल भाङल करेज सेराय गेल! जीवन मात्र जीवितक, आ मात्र हमर अहाँक जे केओ रूप बदलि कऽ जी रहल छी, प्रतिपदा-प्रतिपदाक बदलैत राशिफल आ गणितक भरोसे। नाम हमर दुष्यन्त आ अहाँक शकुन्तला भेने कण्व आ मृगशिशुक फिकिर लागल रहत। आजुक कवि, बड़ उच्छृंखल कवि- आन्हल बान्हल, छंद निश्छंदक डोरीमे, फंसल फँसल, घायल आ घसल, अलंकारक व्यंजनमे रहू दहू, पकैत ढकैत, जुनि टपू पहाड़ दहाड़। धैवत रहू गबैत। कवि। अपन पंक्ति भऽ, जाइक पार! कवियारक ड्योढ़ीमे। आबि रहल छथि कविः कवी कवयः- धुन आधुनिक। कविता केँ जे करता छंदित बंधित आ वंदित सोचक आलोचक। रहए देता कविताकेँ आधा कविता अर्द्ध-अकविता, अर्द्धनारीश्वर अर्ध-पुरुषपर। बड़ उच्छृंखल ई आजुक कविवर हतनारीश्वर! अहाँ नहि बजलहुँ किछु- नहि बजलहुँ आइ धरि, दबा कऽ रखने छी शब्द-संपदा जमीन तर। मुदा जमीनक तर तँ गाड़ल जाइछ मुर्दा। मुदा हम तँ धर्मोन्माद हिन्दू प्रेमी छी, मरियो कऽ जमीन तर नहि जएब, जरब झरकब आ आगिमे भणब अपन गीत। नह केश हैत विलीन, कोन अनुशासन शास्त्र सिखेने अछि अनुभूतिपर लगाम लगायब- देह रहू झँपने अहंकार अलंकार तर, लगा दियौ ताला गरापर जे कोनो ध्वनि नहि बजा जाइक। मुदा हम सूर्यवंशी राजपूत, हमर अस्त्र अछि शब्द अर्थ स्वर लिपि। तर्कमे हारि जँ जाइ तँ करब आत्मसमर्पण! मुदा हारी वा जीती, बाजब अवश्ये। आलोकक यंत्र बेकल पड़ल, लाल-हरियर-पीयरक संकेत मूक। मोनमे हुलकी दऽ देखि रहल छी अहाँक योजना, वस्त्र-अस्त्र हरबाक, अर्द्धसत्यसँ अनृत बजएबाक, पाँतिमे बैसि अमृत चोरएबाक; द्योतक दावमे चढ़ल जिनगी शव शब्द! मुदा एखनो भरोस जे अहाँ बाजब किछु नहि तँ गाबिये उठब हमरे कोनो गीत। अपन कविता सुनाउ !- अहाँ अपन पुरातन प्रेमी माने हमरा लऽ गेलहुँ ओहि नवका मकानमे पहाड़क शिखरपर! अहाँक बाट पूछब मेघसँ ओहि ठामक, आ ओकर वंकिम मुस्कान, अहाँ सङे हमरा देखि! मुदा ने मेघक, ने तरेगणक, ने राशि-लग्न-अकासी ज्यामिति आ ने भाग्यक गणितक संक्रमणक कोनो गलती, जे सभ मिलि कएने रहए विच्छेदक संक्रमण ! अंतिम मिलन जे भेल छल चानक गह्वरमे। ने पाथरक दोष आ ने अन्हारक भूगोलक। सूर्य आ पृथ्वीक संकेत, तरेगणक हस्ताक्षर विच्छेदक भएकेँ मिलि कऽ कएलक चक्रान्त। जाहिसँ हम सभ नहि बाजि सकी कोनो स्मरणीय पाँति-शब्द सभ !-दुनू गोटे। गरा दबबैत निःशब्दता। मुदा दोष ने निःशब्दताक आ ने देबारपर लिखल शिलालेखक, जकर विजातीय अक्षर सभ हम पढ़ऽ सिखनहि नहि छलहुँ। गह्वर भरि गेल अहाँक कवितासँ, ऊपर उठैत कविताक पाँती सभ जकर शिखरपर चढ़बाक असफल प्रयास। ओहि पाँती सभकेँ दोषै नहि छी। विश्वासघातपर अहीं टाक अधिकार नहि। आब सीखि गेल छी अहींक भाषा, कामनासँ धधकैत पहाड़पर चढ़बा लेल, पढ़ै लेल सभटा पाँति, कविता आ शिलालेख! हम सीखि गेल छी अहाँक हस्ताक्षर पढ़ब। मुदा एहि शिलालेखपर अहाँ देखा रहल छी पजेबा, काठ, बालु आ सीमेंटक राशि, दरबज्जा, कब्जा आ फर्श सभ! मुदा हम सुनऽ चाहै छी कैक टा कविता, अहाँसँ अहाँक भाषामे, जे एखन हमरहु भाषा अछि। जीवनी- छावनीक द्रोह, तांतिया टोपे, विक्टोरिया, सरकारी कवि रवीन्द्रनाथक जन्म आ विधवा विवाहक चर्च? रंगमंचक पहिल पृष्ठ, हेराशिम लेबेडफपर एकटा पूरा पन्ना कीड़ा चाटि लेलक? मुदा आजुक रंगमंचक पुरोधाक लेल जे ओ पृष्ठ नहियो भेटै तँ हर्ज नहि। ओकर दोसर दिसुका पृष्ठपर माइकल मधुसूदनपर एकटा लेख आ आधुनिक कविताक श्रीगणेशपर सेहो, मुदा १९९० ई.क बादक अनपढ़ कवि कोना जनबै गऽ! आ तेँ ने पटि जाइ छी हमरा सन बहुरुपियासँ। आ १९५१ ई.एहि शताब्दीक सरकारी कविक जन्म, नेनपनक दलिद्दर दशा, अवहेलना शिशुकालक, विवेकानन्दक फूसि-कथा आ स्तोकवाणी? हमर कथासँ पहिने गिरीश घोष, सर आशुतोष आ नेताजीक पलायन आ महात्माक कारावास अएबाक चाही ? फूसि। कारण इतिहास शुरू होइछ गोडसेक आविर्भाव आ हमर जन्मक बादे? आ तखन टूटल भाङल भूगोल, हड़पक गणित आ शास्त्रीय वर्णभेद, “वेदणाक” मूर्धा। ह्रिजय ठीक करू? –अहाँ हमर सरकारी जीवनीकार ! अहाँक लेल अध्यायक अध्याय प्रारम्भ होएबाक चाही १९५१ ई.सँ। हमर विमाता कुल पितामही। मनगढ़ंत कथा, दादी-माँ दऽ, जे भऽ जाइ छली सोनबरसाक राजकन्या। कोना कविता अएलीह आ हमर जीवनमे आयलि रमणीक मादेँ? त्यागि रहल छी, ताकू आने ककरहु। अजन्मा वा अज्ञात् अनामा क्यो कवि। तावत् कविते हमर ध्यान रखती, बतओतीह जीवन-कथा हमर! मध्यमपुरुष एकवचन- अहाँकेँ छोड़ि अनके दऽ सोची -एहन आदेश ! मुदा गाछ-बृच्छ, फूल पाथरक वंचकता, विश्वासघाती व्याकरण धरि जाल पसारने ! मध्यमपुरुष एकवचन अहाँ तँ छी! राजनीति, देशक ऋणक पहाड़, भ्रष्ट नियुक्ति.. मध्यमपुरुष एकवचन अहाँ तँ छी मुदा..लिखू नव्यन्याय-अन्याय, लिखू वैशेषिकक ढेरी, बिसरू धन-व्याकरण, मध्यमपुरुष एकवचन अहीं तँ छी मुदा..बेकार शृंगार रस तत्त्व ध्वनिक, मात्र क्षणिक। आयु लऽ जटायु धरि, बचबै लेल अनकर सीता, गीता । चलति चलतः चलंती कविता ऋता वाग्धारा सन व्याकरण मध्यमपुरुष एकवचन अहाँ तँ छी मुदा... कोना किछु सोचि सकै छी अहाँकेँ छोड़ि?



कविता: कविता लोक कम पढ़ैत अछि। संस्कृतसन भाषाक प्रचार-प्रसार लेल कएल जा रहल प्रयास, सम्भाषण-शिविरमे सरल संस्कृतक प्रयोग होइत अछि। कथा-उपन्यासक आधुनिक भाषा सभसँ संस्कृतमे अनुवाद होइत अछि मुदा कविता ओहि प्रक्रियामे बारल रहैत अछि। कारण कविता कियो नहि पढ़ैत अछि आ जाहि भाषा लेल शिविर लगेबाक आवश्यकता भऽ गेल अछि, ताहि भाषामे कविताक अनुवाद ऊर्जाक अनर्गल प्रयोग मानल जाइत अछि। मैथिलीमे स्थिति एहन सन भऽ गेल अछि, जे गाम आइ खतम भऽ जाए तँ एहि भाषाक बाजएबलाक संख्या बड्ड न्यून भऽ जएत। लोक सेमीनार आ बैसकीमे मात्र मैथिलीमे बजताह। मैथिली-उच्चारण लेल शिविर लगेबाक आवश्यकता तँ अनुभूत भइए रहल अछि। तँ एहि स्थितिमे मैथिलीमे कविता लिखबाक की आवश्यकता आ औचित्य ? समयाभावमे कविता लिखै छी, एहि गपपर जोर देलासँ ई स्थिति आर भयावह भऽ सोझाँ अबैत अछि। एहना स्थितिमे आस-पड़ोसक घटनाक्रम, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, आक्षेप आ यात्रा-विवरणी यैह मैथिली कविताक विषय-वस्तु बनि गेल अछि। मुदा एहि सभ लेल गद्यक प्रयोग किएक नहि ? कथाक नाट्य-रूपान्तरण रंगमंच लेल कएल जाइत अछि मुदा गद्यक कवितामे रूपान्तरण कोन उद्देश्यसँ। समयाभावमे लिखल जा रहल एहि तरहक कविता सभक पाठक छथि गोलौसी केनिहार समीक्षक लोकनि आ स्वयं आमुखक माध्यमसँ अपन कविताक नीक समीक्षा केनिहार गद्यसँ पद्यमे रूपान्तरकार महाकवि लोकनि ! पद्य सर्जनाक मोल के बूझत ! व्यक्तिगत लौकिक अनुभव जे गहींर धरि नहि उतरत तँ से तुकान्त रहला उपरान्तो उत्कृष्ट कविता नहि बनि सकत। पारलौकिक चिन्तन कतबो अमूर्त रहत आ जे ओ लौकिकसँ नहि मिलत तँ ओ सेहो अतुकान्त वा गोलौसी आ वादक सोंगरक अछैतहुँ सिहरा नहि सकत। मनुक्खक आवश्यक अछि भोजन, वस्त्र आ आवास। आ तकर बाद पारलौकिक चिन्तन। जखन बुद्ध ई पुछै छथि जे ई सभ उत्सवमे भाग लेनिहार सभ सेहो मृत्युक अवश्यंभाविताकेँ जनै छथि? आ से जे जनै छथि तखन कोना उत्सवमे भाग लऽ रहल छथि। से आधुनिक मैथिली कवि जखन अपन भाषा-संस्कृतिक आ आर्थिक आधारक आधार अपना पएरसँ नीचाँसँ विलुप्त देखै छथि आ तखनहु आँखि मूनि कऽ ओहि सत्यताकेँ नहि मानैत छथि, तखन जे देश-विदेशक घटनाक्रमक वाद कवितामे घोसियाबए चाहै छथि, देशज दलित समाज लेल जे ओ उपकरि कऽ लिखऽ चाहै छथि, उपकार करऽ चाहै छथि, तँ ताहिमे धार नहि आबि पबै अछि। मुदा जखन राजदेव मंडल कविता लिखै छथि-
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टप-टप चुबैत खूनक बून सँ
धरती भऽ रहल स्नात
पूछि रहल अछि चिड़ै
अपना मन सँ ई बात
आबऽ बाला ई कारी आ भारी राति
कि नहि बाँचत हमर जाति...?
तँ से हमरा सभकेँ सिहरा दैत अछि। कविक कवित्वक जाति, ओहि चिड़ैक जाति आकि..। कोन गोलौसी आ आत्ममुग्ध आमुखक दरकार छै एहि कविताकेँ। कोन गोलौसीक आ पंथक सोंगर चाही एहि सम्वेदनाकेँ। तँ कविताकेँ उत्कृष्टता चाही। भाषा-संस्कृतिक आधार चाही। ओकरा खाली आयातित विषय-वस्तु नहि चाही, जे ओकरापर उपकार करबाक दृष्टिएँ आनल गेल छै। ओकरा आयातित सम्वेदना सेहो नहि चाही जे ओकर पएरक नीचासँ विलुप्त भाषा-संस्कृति आ आर्थिक आधारकेँ तकबाक उपरझपकी उपकृत प्रयास मात्र होअए। नीक कविता कोनो विषयपर लिखल जा सकैत अछि। बुद्धक मानवक भविष्यक चिन्ताकेँ लऽ कए, असञ्जाति मनकेँ सम्बल देबा लेल सेहो, नहि तँ लोक प्रवचनमे ढ़ोंगी बाबा लेल जाइते रहताह। समाजक भाषा-संस्कृति आ आर्थिक आधारक लेल सेहो, नहि तँ मैथिली लेल शिविर लगाबए पड़त। बिम्बक संप्रेषणीयता सेहो आवश्यक, नहि तँ कवि लेल पहिनेसँ वातावरण बनाबए पड़त आ हुनकर कविताक लेल मंचक ओरिआओन करए पड़त, हुनकर शब्दावली आ वादक लेल शिविर लगा कऽ प्रशिक्षण देल जएबाक आवश्यकता अनुभूत कएल जएत आ से कवि लोकनि कइयो रहल छथि ! मिथिलाक भाषाक कोमल आरोह-अवरोह, एतुक्का सर्वहारा वर्गक सर्वगुणसंपन्नता, संगहि एतुक्का रहन-सहन आ संस्कृतिक कट्टरता आ राजनीति, दिनचर्या, सामाजिक मान्यता, आर्थिक स्थिति, नैतिकता, धर्म आ दर्शन सेहो साहित्यमे अएबाक चाही। आ से नहि भेने साहित्य एकभगाह भऽ जएत, ओलड़ि जएत, फ्रेम लगा कऽ टँगबा जोगड़ भऽ जएत। कविता रचब विवशता अछि, साहित्यिक। जहिया मिथिलाक लोककेँ मैथिली भाषा सिखेबा लेल शिविर लगाओल जएबाक आवश्यकता अनुभूत होएत, तहिया कविताक अस्तित्वपर प्रश्न सेहो ठाढ़ कएल जा सकत। आ से दिन नहि आबए ताहि लेल सेहो कविकेँ सतर्क रहए पड़तन्हि। आ ओतए त्वम्, त्वाम्, त्वया, तुभ्यम्, त्वत्, तव, त्वयि-नचिकेताक मध्यमपुरुष एकवचन-अहम्, माम्, मया, मह्यम्, मत्, मम, मयि सँ फराक रूपमे सोझाँ अबैत अछि।
(क्रमशः)

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