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Saturday, April 7, 2012

चि‍त्रा पर शि‍व कुमार झा ‘टि‍ल्‍लू’


चि‍त्राक सनेस
मि‍थि‍लाक भूमि‍ पुरातन कालहि‍ंसँ आर्यावर्तक संस्‍कृति‍क आकर्षण केन्‍द्र रहल अछि‍। सभ दर्शनक संग-संग साहि‍त्‍य सरि‍ताक वैभव-वि‍कासमे मि‍थि‍लाक योगदान अवि‍स्‍मरणीय। एहि‍ भूमि‍क जनभाषामे ज्‍योति‍रीश्‍वरसँ लऽ कऽ अद्यतन काल धरि‍ साहि‍त्‍यकारक भरमारि‍ लागल अछि‍। ओहि‍ साहि‍त्‍यकारक ढेरीमे एकटा एहेन साहि‍त्‍यकार भेल छथि‍, जनि‍क नाम सुनि‍ते हमरा सबहक वास्‍तवि‍क रूप उपटि‍ कऽ आि‍व जाइत अछि‍। ओ छथि‍- बैधनाथ मि‍श्र। तरौनी गामक लाल बैधनाथ मि‍श्र मैथि‍ली साहि‍त्‍यमे ‘यात्री’ नामसँ प्रसि‍द्ध भेलाह। बौद्ध दर्शनसँ प्रभावि‍त रहवाक कारण हि‍न्‍दीमे ‘नागार्जुन’ नामसँ रचना करैत छलाह। प्रांरभि‍क रचना संस्‍कृतमे कएलनि‍, मुदा चौगमा गाम वासी आ मैथि‍लीक चर्चित महाकाव्‍य अम्‍बचरि‍तक सृजनहार पं. सीता राम झाक प्रेरणासँ मैथि‍लीमे सेहो लि‍खए लगलाह। मैथि‍ली साहि‍त्‍यक हुनक प्रमुख कृति‍ -पारो- मानल जाइत अछि‍, परंच एक छोट मुदा प्रासंगि‍क कवि‍ता संग्रह ‘ि‍चत्रा’ हुनका कवि‍क रूपेँ हमरा सबहक भाषाक ध्रुवतारा बना देलक।
चि‍त्राक रचना कोनो योजना बना कऽ नहि‍ कएलन्‍हि‍। सन् १९३१सँ लए कऽ सन् १९४९ई. धरि‍क लि‍खल कि‍छु कवि‍ताक संकलन एहि‍ पोथीमे कएल गेल अछि‍। एक दि‍शि‍ मातृभूमि‍ प्रेम तँ दोसर दि‍शि‍ मैथि‍लीक दशापर क्षोभ। जीवनक समग्र मूल्‍यक तात्‍वि‍क वि‍वेचन। अनि‍योजि‍त रचना सबहक संकलन बड़ कष्‍टदायी होइत अछि‍, मुदा एहि‍मे भाव प्रवाहक अभाव नहि‍ वुझना जाइत अछि‍। माॅ मि‍थि‍ले शीर्षक कवि‍तामे अपन ठाम, अपन गाम, अपन बुद्धि‍ आ अपन दर्शनक सरल रूपमे प्रदर्शन कएल गेल। गौतम यज्ञवल्‍यकसँ लऽ कऽ रमेश्‍वर महाराजक महि‍माक गुनगान। एहि‍ गुनगानक मूल अछि‍- अपन संस्‍कृति‍क वि‍श्‍लेषण। भारती आ मंडन ि‍मश्रक लेल कीर दंपति‍क उदवोधनमे अपन पहि‍चान झलकैत अछि‍। उदयनाचार्य जग्रन्नाथपुरीमे सनातनक पुनरूद्वारक प्रमाणि‍त भेलाह, ई मि‍थि‍लाक वि‍जय थि‍क। वि‍द्यापति‍क कवि‍ता हमर धरोहरि‍ अछि‍। अयाची मि‍श्रक सादा जीवन सेहंति‍त अछि‍, तँ शंकरक वालोहं जगदानंद.... वाल साहि‍त्‍यक आ वाल कौशलक मनोवैज्ञानि‍क वि‍श्‍लेषण।
एक दि‍शि‍ ‘मॉ मि‍थि‍ले’ कवि‍तामे अपन माटि‍पर स्‍वाभि‍मानक दर्शन तँ दोसर दि‍शि‍ ‘अंति‍म प्रणाम’ कवि‍तामे अपन जन्‍म-आ कर्मपर क्षोभ। अर्न्‍तद्वन्‍द्वक एहेना दशा वा वेदना कवि‍मे ि‍कएक उत्‍पन्न भेल? एहि‍ कवि‍ताक माध्‍यमसँ कवि‍ जागरण करवाक लेल पलाएन करए चाहैत छथि‍। अपन संस्‍कारमे नि‍हि‍त वि‍षमतासँ अकच्‍छ कवि‍ झाँपल व्‍यथाकेँ नि‍:शब्‍द उघारए चाहैत छथि‍। जेना अवोध अपन माएसँ घरसँ भागि‍ जएवाक धमकी उपरे‍ मोने दैत अछि‍, ओहि‍ना कवि‍क वेदनामे हृदएगत पलाएन नहि‍ अछि‍। ‘कवि‍क स्‍वप्‍न’ कवि‍तामे कवि‍ समाजक वि‍गलि‍त अर्थहीन व्‍यक्‍ति‍गणक कचोटक मार्मिक चि‍त्रण कएलन्‍हि‍ अछि‍ मि‍थि‍लाक भूमि‍मे सम्‍यक अर्थनीति‍क अभाव अछि‍ तेँ समाजक परि‍दृश्‍यमे भारी अन्‍तर देखए मे अवैछ। एहि‍ भूमि‍पर एकसँ वढ़ि‍ कऽ एक महामानव भेलाह, परंच साधन आ शि‍क्षाक अभावमे कतेक प्रति‍भा मोनइसँ बाहर नहि‍ नि‍कलि‍ पबैत अछि‍- ‘तानसेन कतेक रवि‍वर्मा कते
घास छीलथि‍ वाग्‍मतीक कछेड़मे
कालि‍दास कतेक वि‍द्यापति‍ कते
छथि‍ हेड़ाएल महि‍म वारक हेड़मे’
जौं पेट-पांजड़ि‍ अन्न जलक त्रासमे आकुल हो तँ शि‍क्षाक कल्‍पना नि‍र्मूल प्रमाणि‍त भऽ जाएत, परंच स्‍वपनोमे आशक दर्शन। कवि‍केँ समाजमे नव जोश उत्‍पन्न करवाक प्रेरणा भेटल तेँ प्रवासकेँ छोड़ि‍ अपन मि‍थि‍ला धुरि‍ अएवाक नि‍श्‍चय कएलन्‍हि‍। एहि‍ कवि‍ताक रचना काशीमे कएलनि‍, मुदा मोन तरौनीमे घुि‍रया रहल छल। नि‍श्‍चय जन्‍मभूमि‍क दशापर वेदनासँ कवि‍क मोन तपि‍ रहल होइतनि‍।
‘बूढ़ वर’ कवि‍ताक दर्शन कएलापर हास्‍यपर व्‍यथाक वि‍जय दर्शित होइत अछि‍। शीर्षकसँ स्‍पस्‍ट होइत अछि‍ जे वि‍वाहमे कनि‍या-वरक वएसमे अन्‍तर अवश्‍य हएत। कवि‍ताक मूलमे जएवाक वाद तँ स्‍पष्‍ट भऽ गेल जे वरकेँ वरांठ वा खोरनांठ कि‍छु कहल जाए अनसोहांत नहि‍ लागत। जीवनक अंति‍म अवस्‍थाक वर काँच-कुमारि‍क वरण कहलन्‍हि‍। वि‍वाहि‍ता नि‍:संतान रहि‍ गेली। माएक वि‍रोध नि‍:सफल भऽ गेल। स्‍त्रीगणक व्‍यथाकेँ के बूझत? वाप कैंचाक लोभमे बेटीकेँ बेचि‍ लेलन्‍हि‍। मि‍थि‍लामे एहि‍ प्रकारक पाप होइत रहल अछि‍। समाजक तथाकथि‍त आगाँक पाँति‍मे बैसल जाति‍क दीन आ कर्तव्‍यहीन जनमे ई व्‍यवस्‍था पलेगक रूप धारण कएने छल। अंतमे वेटी धरती माएसँ फटवाक लेल आग्रह करैत छथि‍।
‘वि‍लाप’ कवि‍ताक वि‍षएमे लि‍खब कठि‍न अछि‍ जे एकरा वाल-वि‍याहक कुकृत्‍य वा वि‍धवाक वि‍लापमे सँ की मानल जाए? वाल कालक वि‍याह संस्‍कारमे आनंदक कोन रूप होइत अछि? दुरागमनमे कनि‍या सि‍खेलासँ कनैत छथि‍, मुदा नोरक अभि‍प्राय नहि‍ बूझैत छथि‍। जखन नोरक अर्थ बुझवाक वएस भऽ गेलनि‍ तँ वज्रपात? वैद्यव्‍य जीवनक मार्मिक छंद......।
श्रंृगारसँ पहि‍ने नीति‍ आ वैराग्‍य, एहि‍ जीवनक उदेश्‍यपर वि‍चार करवाक आवश्‍यकता अछि‍। वैद्यव्‍य जीवन पति‍क स्‍मृति‍क संग जीबए चाहैत छथि‍। वि‍हंुसलि‍ नायि‍का, मुदा समाजक कुदृष्‍टि‍क डर। एहि‍ कवि‍तामे सेहो उच्‍च जाति‍क व्‍यवस्‍थापर कटाक्ष कएल गेल। वि‍धवा वि‍याह मि‍थि‍ला समाजक सवर्ण वर्गमे पूर्णत: वंचि‍त छल, एखनो आंगुरेपर गनल-गुथल होइत अछि‍। जाहि‍ वर्गक लोक शांति‍सँ दु:खो नहि‍ सहए दैवए चाहैत छथि‍, ओहि‍मे जन्‍मपर कोना गर्व करू? कवि‍केँ कति‍पय व्‍यथा छन्‍हि‍ एि‍ह व्‍यवस्‍थासँ, खि‍न्न छथि‍ उच्‍च जाति‍क अलच्‍द सदृश सोचसँ। पुरूषसूक्‍तमे कर्मक आधारपर जकरा चण्‍डाल आ छुद्र सन संज्ञा देल गेल, हुनक सोच एखन पारदर्शी अछि‍। ओहि‍ वर्गक कांताकेँ ई अधि‍कार छन्‍हि‍ जे कुकर्मी स्‍वामीसँ कखनो जान छोड़ा कऽ आन मनुक्‍खक वरण कऽ सकैत छथि‍ मुदा आगाँक पाँति‍मे बैसल प्रवुद्ध वर्गक वि‍धवा अवला बनि‍ उज्‍जर साड़ीमे दुवकलि‍ छथि‍, मुदा तैयो वागमती कातक बगुला हुनक चरि‍त्र हनन करवाक लेल सदि‍खन उद्धत छथि‍। एहि‍ दशाकेँ देखि‍ कोनो कवि‍क ई उक्‍ति‍ प्रासंगि‍क अछि‍-
आगि‍ भेल शीतल, पानि‍ अदहन भऽ उधि‍एलै
काँट बनल कोमल आ फूले गड़ि‍-गड़ि‍ गेलै
ककरासँ करतै तकरार हम जि‍नगी
धि‍क-धि‍क जुआनी धि‍क्कार हमर जि‍नगी।
कौशि‍कीक धार कवि‍तामे कोशी माएक पसारल वि‍नाश लीलासँ भेटल परि‍णामक पीड़ा मड़ोरि‍ दैत अछि‍। मुदा ई थि‍क मि‍थि‍लाक शोक। ‘प्रेयसी’ कवि‍ता श्रृंगारसँ भरल अछि‍। प्रेमी द्वारा प्रेमि‍काक प्रति‍ समर्पित संवाोधन नीक लागल। एहि‍ सि‍नेहमे प्रेमी प्रेमि‍काकेँ अपन शक्‍ति‍ मानैत छथि‍। सि‍नेहक मूल रूपक वर्णन, कतहु रूपक चर्च नहि‍। प्रेमी अपन प्रेमीकाकेँ तपवति‍ छथि‍ मुदा ओ अपन नि‍र्णएसँ नहि‍ वि‍लग भेली। एहि‍ समर्पणसँ प्रेमी ि‍सनेहक जुआरि‍ पानि‍ फुटि‍ गेल-
अपन इच्‍छापर तोहर आशाक कैलि‍यहु होम
तों वनलि‍ रहलि‍ सदए सखि‍ मोम
‘फेकनी’ कवि‍ताक नायि‍का फेकनी कंजूस महि‍ला छथि। कैंचा वचा-वचा कऽ अपन संतति‍क लेल राखव छनि‍ हुनक इच्‍छा। दूध बेचि‍ कऽ टका जमा करैत छथि‍, ओहो दूधमे पानि‍ मि‍ला कऽ तेँ पानि‍ जकाँ दि‍वस वि‍तैत छन्‍हि‍। कोनो धर्म-कर्म नहि‍, कवि‍ एहि‍सँ छुब्‍ध छथि‍। एहि‍ प्रकारक घटना हमरा सबहक गाम-घर होइत अछि‍। पेट काटि‍ कऽ जकरा लेल संयोजन करैत छथि‍, ओ ओहि‍ धनकेँ की करताह? सहज अछि‍-
पूत कपूत तँ कि‍एक धन जोहव
पूत सपूत तँ कि‍ए धन जोहव।
‘लखि‍मा’ कवि‍ता मि‍थि‍ला नरेश राजा शि‍व सि‍ंहक अर्द्धागि‍नी लखि‍मा रानीक प्रति‍ समर्पित अछि‍। महाकवि‍ वि‍द्यापति‍क श्रंृगार रसक सि‍द्धि‍मे लखि‍मा जीक व्‍यक्‍ति‍त्‍व आ सुन्‍दरताक पैघ भूमि‍का छल। ओना वि‍द्यापति‍क चरि‍त्रपर संदेह करव कवि‍क ना दृष्‍टि‍कोण नहि‍ अछि‍, मुदा हुनक श्रंृगारक नायि‍का लखि‍मा रानी छलीह। महाकवि‍क रचनासँ स्‍पष्‍ट होइत अछि‍ जे लखि‍माक सौन्‍दर्य ततेक वि‍लक्षण छल जे हुनक रचनाकेँ अमरत्‍व प्रदान कऽ देलक। वि‍द्यापति‍क नयनमे लखि‍मा अवश्‍य छलीह, परंच ओ कर्तव्‍यवंधसँ बान्‍हल छलाह। हुनक मनमे वि‍रति‍ छलन्‍हि‍।
‘उड़ान’ शीर्षक कवि‍ता कल्‍पनापर आधारि‍त अछि‍। सहज अछि‍ जे कल्‍पनाशील व्‍यक्‍ति‍केँ कर्मसँ वेसी एहि‍पर वि‍श्‍वास होइत छैक। वास्‍तवि‍क जीवनमे कर्मक जतेक महत्‍व हो मुदा कल्‍पनाक उड़ान वि‍लगि‍त मानवकेँ आनंदक शि‍खरपर पहुँचा दैत अछि‍। कल्‍पना कहि‍यो धोखा नहि‍ दैत अछि‍, एहि‍मे ककरोसँ आश नहि‍ होइत अछि‍। स्‍वप्‍नक भारकेँ केओ नहि‍ डि‍गा सकैत छैक।
‘गामक चट्ठी’ कवि‍ता प्रवासमे रहनि‍हार एकटा गरीवक नाओ लि‍खल हुनक कनि‍या व्‍यथाक कि‍छु पाँती थि‍क।
गाममे अपन नेनाक संग रहैत दीनक दाराकेँ की-की सहए पड़ैत अछि‍, एकर मार्मि‍क वर्णन कएल गेल अछि‍। जौं हाथमे कि‍छु कैंचा नहि‍ हुअए तैयो गाम अएवाक नि‍वेदन व्‍यथि‍त कनि‍याँक हृदएगत कचोट बुझना गेल। चारू कातसँ समस्‍यासँ घेरल नारी अपन पति‍सँ खाली हाथ गाम धुरि‍ अएवाक लेल कहैत छथि‍। जीवन डोरि‍केँ पकड़ि‍ कऽ राखव कठि‍न भऽ गेलनि‍। सम्‍यक अर्थनीति‍क उद्धोषण यात्री जीक एहि‍ कवि‍तामे देखएमे आएल। अपन सनेशकेँ कखनो उधारि‍, कखनो झाँपि‍ यात्री जी असमान समाजक अस्‍ति‍त्‍वकेँ ललकारि‍ रहल छथि‍। दीनक नेना पि‍तृक दर्शनक लेल आकुल छथि‍, ओ तँ नेना छथि‍ मुदा माए कि‍ए बजावए चाहैत छथि‍ अपन स्‍वामीकेँ। कवि‍क एहि‍ भावकेँ स्‍पष्‍ट करव आजुक लोकसँ संभव नहि‍ बुझना जाइत अछि‍।
ठीठर मामा कवि‍ता गाममे सभ दि‍न रहएबला ठीठर पाठकक पटना प्रवासक ि‍स्‍थति‍पर लि‍खल गेल अछि‍। भगजोगि‍नीक दर्शन करएबला लोककेँ हजार वोल्‍टक इजोतमे उजगुजाहटक अनुभव होइत एहि‍। एहि‍ कवि‍ताक प्रसंग साधारण अछि‍ आ भाषामे प्रवाहक अभाव बुझना गेल।
‘परमि‍टक साड़ी’ चारि‍ अना वेहरी दऽ कऽ तीन टकामे परमि‍टसँ कनि‍या काकीक लेल आनल साड़ीपर आधारि‍त अछि‍। गाम-घरमे बेहरी दऽ कऽ समान खरीदवाक परम्‍परा प्राचीन अछि‍। एहि‍ कथाकेँ यात्री जी कोन उद्धेश्‍यसँ लि‍खलन्‍हि‍ नहि‍ स्‍पष्‍ट भेल। देश कालक दशापर सामान्‍य प्रस्‍तुति‍। कृति‍का नक्षत्रमे, हि‍मगि‍रि‍क उत्‍संगमे, भए गेल प्रभात आ ताड़क गाछ शीर्षक कवि‍ता सभ प्रकृति‍ वर्णनक छोट छाया प्रस्‍तुति‍ करैत अछि‍। ई चारूटा कवि‍तामे कवि‍क उदेश्‍य हुनक शब्‍दसँ नहि‍ प्रकट भऽ सकल। छंद समायोजन नीक लागल मुदा दोसर, कवि‍ता सभसँ तारतम्‍य नहि‍ बुझना जाइत अछि‍। ‘द्वन्‍द्व’ कवि‍ताक शब्‍द-शब्‍दमे परि‍ताप दर्शित भेल। कि‍ंकर्तव्‍य वि‍मूढ़ छथि‍ कवि‍, गाममे रहथि‍ की प्रवासमे? गाममे वि‍पन्नता, मुदा सि‍नेहक आवरण अछि‍। मोरंग वा आन ठामक प्रवासमे कैंचा-कौड़ी तँ अछि‍, मुदा परि‍वार समाजक ि‍सनेह नहि‍। पावनि‍ ति‍हारक जे आनंद गाममे भेटैत अछि‍, ओ शहरमे संभव नहि‍। एक ठाँ गामक जीवनसँ कवि‍क मोन गुजगुजा गेलनि‍। गामक छोट लोक (साधन वि‍हि‍न) पलाएन कऽ रहल अछि‍, तेँ सामाजि‍क व्‍यवस्‍थामे अन्‍तर आि‍व गेल। यात्री जीक अर्न्‍तमन समाजक बदलैत स्‍वरूपसँ संतुष्‍ट अछि‍, कि‍एक तँ हुनक साम्‍यवादमे समाजवादक ज्‍योति‍ प्रखर भेल अछि‍।
‘ऋृतु संधि‍’ शीर्षक प्रकृति‍ वर्णनसँ जोड़ल अछि‍, मुदा एहि‍मे अर्थनीति‍क मर्म झाँपल अछि‍। ग्रीष्‍मक तात्‍पर्य दीन मुदा उद्वेलि‍त दीन, वर्षाक अर्थ नव जीवनक वि‍श्‍वास। दीनमे साधनक अभाव परंच हुनक श्रद्धा उद्वेलि‍त अछि‍। एहि‍ कवि‍तामे महाकवि‍ पंतक छाया वादक झलकि‍ देखएमे अबैत अछि‍।
जौं यात्री जीक पद्य सागरक सुवासि‍त सरि‍ता चि‍त्राकेँ मानल जाए तँ एहि‍मे सभसँ पैघ योगदान ‘वंदना’ कवि‍ताक देल जाएत। ‘वंदना’ कवि‍ताक शीर्षक मात्र माध्‍यम थि‍क हुनक जन जनक व्‍यथाकेँ नग्‍न करवाक लेल। मि‍थि‍लाक समग्र जीवन दर्शनकेँ एहि‍ कवि‍तामे कवि‍ मंचस्‍थ कऽ देलनि‍। नेपथ्‍यमे ि‍कछु नहि‍ रहि‍ गेल। अनुलोम-वि‍लोम, आशक्‍त-घृणा सभटा उपटि‍ कऽ बाहर कऽ देलनि‍। मि‍थि‍ला वर्णनपर बहुत रास कवि‍ताक रचना भेल अछि‍। परंच वेसी कि‍छु वि‍शेष वर्गकेँ महि‍मामंडि‍त कएलक। उपेक्षि‍तकेँ सम्‍मान देवाक ि‍हनक शैली आवएबला वास्‍तवि‍क मैथि‍ल संस्‍कृति‍क रक्षकक लेल कोसक पाथर प्रमाणि‍त हएत। मि‍थि‍लाक माटि‍-पानि‍मे रहनि‍हार, संस्‍कृति‍केँ आत्‍पसात केनि‍हार सभटा मैथि‍ल छथि‍। मैथि‍लीमे एतेक सम्‍यक सोच रखएबला कतेक लोक छथि‍? मैथि‍ली भाषीक चर्च होइते मैथि‍ल ब्रह्मण आ मैथि‍ल कर्ण कायस्‍थक नाओ उमरि‍ जाइत अछि‍, मुदा अन्‍य वर्ग की मैथि‍ल नहि‍? जौं दोसर भाषाक लोक उपर्युक्‍त दुनू जाति‍क लेल एहि‍ भाषाक वाचकक प्रयोग करैत छथि‍, तँ दुनू कि‍एक नहि‍ ि‍वरोध करैत छथि‍? ओना एहि‍ वर्गक कि‍छु लोक वि‍स्‍तृत सोचक छथि‍, मुदा ओ सेहो एहि‍ प्रश्‍नपर चुप भऽ जाइत छथि‍न्‍ह? यात्री जीक आत्‍मा नि‍श्‍चि‍त रूपसँ एहि‍ कवि‍ता रचना करए काल काँपि‍ गेल हेतनि‍। एहि‍ सनेशकेँ जौं सभ गोटे आत्‍मसात कऽ ली तँ मैथि‍लीक परि‍दृश्‍य अवश्‍य बदलि‍ जाएत। आर्य, द्रवि‍ड़, आंग्‍ल, इस्‍लाम आ पारसी सभ परि‍वारक सभटा भाषामे मात्र मैथि‍लीपर जाति‍वादी स्‍वरूपक कलंक लागल अछि‍।
‘चि‍त्रा’ संग्रहक वि‍शेष पक्ष अछि‍- एकर सम्‍पूर्णता। आंचलि‍क रचनाकेँ मैथि‍ली साहि‍त्‍यमे प्राथमि‍कता देल गेल अछि‍। एहि‍ भ्रमकेँ यात्री जी ‘गाॅधी’ शीर्षक कवि‍ता लि‍खि‍ कऽ तोड़ि‍ देलनि‍। गाँधी मात्र एक व्‍यक्‍ति‍क नाअो नहि‍ ‘भारतीय दर्शन’ थि‍क। एहि‍ दर्शनमे कोनो वि‍भेद नहि‍, सबहक लेल स्‍थान एहि‍ दर्शनक मूल संस्‍कार थि‍क। वि‍डंम्‍बना अछि‍ जे समाजमे ि‍दव्‍य ज्‍योति‍ जगावएबलाक अंत नि‍र्मम होइत छन्‍हि‍। इसा-मसीह आ सुकराते जकाँ गाँधी मर्म स्‍पर्शी रूपेँ वि‍लोकि‍त भेलाह। राजा भर्तृहरि‍क ‘वैराग्‍य शतक’ जकाँ यात्री जीक रचनामे क्षोभक अवलोकन कएल जा सकैत अछि‍। ‘आसि‍न मासक राति‍ इजोरि‍या कहैमे तँ ज्‍योति‍क प्रतीक थि‍क, मुदा बुढ़वा पीपरक ठुट्ठपर बैसल नील कंठक त्राससँ भरल जीवनमे एहि‍ ज्‍योति‍क कोन अर्थ? फागुनक इजोरि‍या टहाटही हो वा युग धर्म सभ ठाम वि‍गलि‍त असार जीवन रसकेँ छंदसँ यात्री जी पसारि‍ देलनि‍। जेठक दुपहरि‍यामे कालक प्रहारकेँ देखएबाक सार्थक प्रयास कएल गेल।
देश दशाष्‍टक भ्रष्‍टाचारपर लि‍खल यात्री जीक अश्रुकण थि‍क। यात्री जीक यौवन परतंत्र भारतमे बीतल, मुदा स्‍वतंत्रताक दू बरख वाद एहि‍ कवि‍ताक रचना कएलन्‍हि‍। जे आश अप्‍पन लोकसँ कहल गेल ओहि‍ आशक पूर्णतामे संदेह देखएबाक यात्री जी प्रयास कएलनि‍।
परम सत्‍यकेँ चि‍त्राक सतोगुण कहल जा सकैत अछि‍। स्‍वामी वि‍वेकानंदक शून्‍यवादी सोच सदृश यात्री जी जहानक अस्‍ति‍त्‍वपर प्रश्‍न चि‍न्‍ह लगएवाक प्रयास कएलनि‍। प्रारंभमे वैराग्‍यक अनुभूति‍, मुदा शनै: शनै वि‍श्‍वासक सोतीमे डुवकी लगावए लगलनि‍। यएह थि‍क गृहस्‍थ धर्म। मनुष्‍य वि‍पत्ति‍मे संसारकेँ मायागृह बूझैत अछि‍, परंच मोहक तांडवसँ केओ नहि‍ बचि‍ सकैछ। अंतमे वि‍श्‍वासक संग एहि‍ कवि‍ताक दुरागमन कएल गेल।
अंति‍म पद्य एकटा पाछाँक पछाति‍मे वि‍चरण करएवाली नारीक कर्मगाथा थि‍क- ‘गोट-वि‍छनी’। नारी पुनरूत्‍थानपर भाषण खूव देल जाइत अछि‍ मुदा अज्ञ, दीन, साधन वि‍हीन, शोषि‍त आ समाजक धारसँ बाढ़ि‍क खाधि‍ जकाँ कटलि‍ नारीक व्‍यथा लग केओ नहि‍ जा सकल।
‘चि‍त्रा’ कवि‍ता संग्रह चि‍त्रा नक्षत्रक तीत पानि‍ जकाँ चि‍न्‍तन करवाक योग्‍य अछि‍। रचनाकारक जीवन चरि‍त्र जौं सम्‍यक हो तँ रचनाक वि‍षए-वस्‍तु समाजक लेल दर्शन भऽ जाइत अछि‍। समग्र जीवन संघर्षक पांजड़ि‍मे वि‍तएवाक कारण यात्री जी कर्म आ धर्मक हृदएमे घुसि‍ गेल छथि‍। चि‍त्रासँ स्‍पष्‍ट दर्शन भेल जे यात्री जी मानव धर्मी छथि‍। छनहि‍मे कचोट आ क्षणहि‍मे क्रान्‍ति‍क जुआरि‍, आवेग आ अतृप्‍ति‍क छोभ रहि‍तहुँ वि‍हानक वि‍श्‍वास तृण-तृणकेँ ि‍सहरा दैत अछि‍। एहि‍ रचनाकेँ जौं आत्‍मसात कऽ लेल जाए तँ वैदेहीक मि‍थि‍लामे पुर्नस्‍ति‍त्‍व सुधारससँ ओत प्रोत भऽ सकैत अछि‍।
शेष- अशेष............

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